इस तरह मैं जिया-8: डिस्प्ले बोर्ड पर बत्ती जलती और ऑपरेटर पूछता, नंबर प्लीज?
हर जीवन की ऐसी ही कथा होती है जिसे सुनना उसे जीने जितना ही दिलचस्प होता है। जीवन की लंबी अवधि सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में गुजारने वाले इस शृंखला के लेखक मनीष माथुर के जीवन की कथा को सुनना-पढ़ना साहित्य कृति को पढ़ने जितना ही दिलचस्प और उतना ही सरस अनुभव है। यह वर्णन इतना आत्मीय है कि इसमें पाठक को अपने जीवन के रंग और अक्स दिखाई देना तय है।
मनीष माथुर, सामाजिक कार्यकर्ता
माना कैंप (रायपुर): 1975–1977
माना कैंप रायपुर के हवाई-अड्डे माना गांव में अवस्थित था, जो लगभग 20 वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ था। यहां 1973 तक लगभग 22 हजार प्रवासी परिवार बसाए गए थे। जब इन परिवारों को 1975 में रोजगार मुहैय्या कर मुख्य धारा में शामिल करने का प्रयास किया गया तब प्रवासियों के व्यापारी वर्ग के समूह ‘उद्बास्तु उन्नायांसी समिति’ ने पुनर्वास का विरोध करना शुरू किया। यह समूह इस सवा लाख से ऊपर के जनमानस के लिए अपना बाजार चलाता था। विरोध स्वरूप तमाम धरना, प्रदर्शन, हिंसक प्रदर्शनों की शृंखला शुरू हुई। इस समस्या को सुलझाने के लिए ही केंद्र सरकार (केंद्रीय पुनर्वास मंत्रालय) द्वारा राज्य प्रशासन सेवा के दो अधिकारियों को नियुक्त किया गया।
माना कैंप एक स्व-शासित व आत्म-निर्भर कस्बा था। यहां सुरक्षा, परिवहन, बिजली-पानी, प्राथमिक तथा उच्चतर माध्यमिक स्कूल, अस्पताल, सूचना तथा डाटा केंद्र व टेलीफोन एक्सचेंज आदि थे। मानव संचालित टेलीफोन एक्सचेंज हमारे घर से लगा हुआ ही था। ट्रंक-कॉल लगाते ऑपरेटर्स की आवाज दूर-दूर तक सुनाई देती थी। डायलविहीन फोन उपकरण के क्रैडल को उठाने पर दूरभाष केंद्र के डिस्प्ले बोर्ड पर बत्ती जलती और ऑपरेटर पूछता, नंबर प्लीज?
मेरी शाला का कोई नाम नहीं था। उसे सिर्फ प्राथमिक शाला के नाम से ही जाना जाता। स्कूल एक तीन कमरों की छोटी सी इमारत थी जिसके आगे खेलने का मैदान था। पिल्लई मैडम हमारी टीचर थीं। वो ही पांचवी कक्षा के सारे विषय पढ़ाती थीं। एक दक्षिण भारतीय शिक्षिका जब बांग्ला, छत्तीसगढ़ी और हिंदी भाषी बच्चों को बहुत प्यार से पढ़ाती तो समां अलग ही होता। हम सब बच्चे टाट-पट्टी पर बैठते। उस समय समरसता अथवा समानता का पाठ किताबों में ना होकर एक हक़ीकत होता था। मेरे सहपाठियों में माना के उच्चतर माध्यमिक शाला के प्राचार्य के सुपुत्र, कल्याण, मैं तथा दूसरे कैंप-कमांडेंट गुप्ता अंकल का बेटा पंकज, हमारे घर के सुरक्षाकर्मियों के बच्चे तथा प्रवासियों के बच्चे एक साथ बैठते, पढ़ते, खाते और खेलते थे।
अब तक मैं गालियों की वर्णमाला से ही परिचित था। यहां आकर जाना कि मेरे सहपाठी तो गालियां देने में स्नातक हैं। पांचवी के ही 14 लड़के अपनी 4 सहपाठी कन्याओं से नियमित तौर पर प्रेम का इजहार करते थे। प्रेमपत्रों का आदान-प्रदान भी होता।
शिवाजी हमारी पांचवीं जमात का कप्तान था। उसके कप्तान बनाने की योग्यता उसका पांचवी में दूसरी बार फेल होना था।
नियम साफ था, सबसे सीनियर ही क्लास मॉनिटर हो सकता था। फिर शंकर, बिमल, कल्याण, मिलिंद और एक लड़की जिसका घरेलू नाम पुतुल था मेरे सहपाठी थे। क्योंकि फिजा में मोहब्बत घुली हुई थी, शायद इस कारण एक दिन मिलिंद ने उसकी तरफ एक प्रेम पत्र उछाला। पुतुल एक निडर व आत्मविश्वास से भरी हुई लड़की थी। बिना देर किए उसने मिलिंद की तरफ कदम बढ़ाए और उसे एक तमाचा लगाया। मेरे प्रेम करने के सपने उस घटना के साथ ही चूर-चूर हो गए।
माना हवाई-अड्डे के एक सुरक्षा गार्ड के एक सुपुत्र बहादुर मेरे सहपाठी थे। उसने प्रस्ताव दिया कि यदि मै उसे अपनी तो रंगीन पेंसिल्स दूं तो वह मुझे हवाई-जहाज दिखाएगा। माना हवाई-अड्डा उन दिनों ग्लाइडर बेस भी था। हम रोज आसमान में बेआवाज जहाज को उड़ते हुए देखते थे। बहरहाल, सौदा पक्का हुआ और हम दोनों भरी दुपहरिया में हवाई अड्डे पहुंचे।
मैंने देखा कि ग्लाइडर और पतंग में कोई ज्यादा फर्क नहीं है। जिस तरह हम पतंग के धागे की गिर्री (या बांग्ला में लटाई) से पतंग को खींच कर ऊपर उठाते हैं, उसी तरह ग्लाइडर के आगे भी एक केबल बंधी थी, जिसे एक जीप में लगी मशीन से तेजी से खींचा जाता। ग्लाइडर का पायलट उसे ऊपर की तरफ उठाता और एक चील की तरह हवा में मंडराता।
उसे आपसी विश्वास या लापरवाही कहें पर वो पायलट साहेब मुझे साथ लेकर उड़ने को तैयार हो गए। वह एक अविश्वसनीय और रोमांचक अनुभव था। मेरे भाई-बहनों ने भी स्वीकार नहीं किया कि मैं ग्लाइडर में उड़ कर आया हूं।
स्वतंत्रता दिवस तथा गणतंत्र दिवस उन दिनों धूमधाम से मनाए जाते थे। सभी छात्र–छात्राएं इसकी तैयारी एक-दो दिन पहले ही शुरू कर देते जिसमें स्कूल गणवेश की धुलाई, नील तथा टिनोपौल के साथ। पीटी शू की धुलाई, फिर उसे खड़िया से पूरा सफेद करना आदि शामिल था। इस अवसर पर तहसील के तमाम पाठशालाओं की पीटी तथा अन्य प्रतियोगिताएं भी होतीं। कल्याण हमारा पीटी लीडर था और मैं ‘देश-प्रेम’ के गीतों का।
ना काहू से बैर वाली, जिंदगी कितनी खुशनुमा थी!
इस तरह मैं जिया-1: आखिर मैं साबित कर पाया कि ‘मर्द को दर्द नहीं होता’
इस तरह मैं जिया-2: लगता था ड्राइवर से अच्छी जिंदगी किसी की नहीं…
इस तरह मैं जिया-3: हम लखपति होते-होते बाल-बाल बचे…
इस तरह मैं जिया-4: एक बैरियर बनाओ और आने-जाने वालों से टैक्स वसूलो
इस तरह मैं जिया-5: वाह भइया, पुरौनी का तो डाला ही नहीं!
इस तरह मैं जिया-6: पानी भर कर छागल को खिड़की के बाहर लटकाया…
इस तरह मैं जिया-7: पानी भरे खेत, घास के गुच्छे, झुके लोग… मैं मंत्रमुग्ध देखता रहा
मुझे भी विश्वास नहीं कि आप ग्लाइडर में उड़े और
पुतुल के प्रेम में नहीं पड़े 🤨