अहसास होता है, सच में हम शुतुरमुर्ग बने रहे हैं

आशीष दशोत्तर, समीक्षक

व्यंग्य एक अलग दृष्टिकोण की मांग करता है। किसी भी विषय पर व्यंग्य रचना से पहले यह बहुत आवश्यक होता है कि उसकी दशा क्या होगी उसी से उसकी दिशा तय होती है । निरंतर व्यंग्य लेखन के क्षेत्र में होते रहे परिवर्तन और विषय की विविधता ने व्यंग्य लेखन की शैली ने कई सारे नए आयाम पैदा किए हैं।

सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार शांतिलाल जैन अपनी व्यंग्य रचनाओं के माध्यम से इस नए आयाम को स्थापित करते हैं। उनके हाल ही में प्रकाशित व्यंग्य संग्रह ‘… कि आप शुतुरमुर्ग बने रहें’ में इन आयामों को देखा जा सकता है। व्यंग्य संग्रह का हर व्यंग्य अपने आप में एक सामान्य विषय को बहुत रोचकता के साथ प्रस्तुत करने में सफल दिखाई पड़ता है। शांतिलाल जैैन के पास सूक्ष्म दृष्टि है, विषय को प्रस्तुत करने का सलीका है, उस विषय के विविध पक्षों का तुलनात्मक अध्ययन करने की क्षमता है और भाषाई समृद्धि है। इन सब को मिलाकर जब वे व्यंग्य लिखते हैं तो विषय अपने आप आगे बढ़ता जाता है। शांतिलाल जी के व्यंग्य बतियाते व्यंग्य हैं। वे अपने पाठक से बातचीत करते हैं। इन व्यंग्य रचनाओं से गुजरते हुए कहीं भी पाठक को ऐसा महसूस नहीं होता है कि वह कुछ ऐसा पढ़ रहा है जो उसके जीवन में शामिल नहीं है। बल्कि व्यंग्य का हर मोड़ उसे अपनी जिंदगी का मोड़ नजर आता है।

उनके व्यंग्य के विषय बहुत ज्‍यादा पेचीदा नहीं होते। हमारी जिंदगी के इर्द-गिर्द घूमते हैं। यद्यपि उन विषयों को आगे बढ़ाने में वे कई सारे संदर्भों को शामिल करते जाते हैं। जैसे अपने एक व्यंग्य की शुरुआत ही वे इस तरह करते हैं- ‘आर्यावर्त का हर नागरिक श्रीमान, रिश्वत देकर दु:खी नहीं है, रिश्वत देकर भी काम नहीं होने से दुखी है।’ व्यंग्य की यह पहली पंक्ति ही पाठक को आगे पढ़ने के लिए मजबूर करती है । पाठक के मन में यह स्पष्ट हो जाता है कि वह आगे कुछ ऐसा पढ़ने जा रहा है जो रिश्वतखोरी पर आधारित है। जब वह व्यंग्य के अंत में पहुंचता है और यह पढ़ता है ‘और सीसीटीवी? कमाल करते हैं आप , देश और दफ्तर दोनों के ख़राब पड़े हैं।’ तो पूरी व्यवस्था पर प्रश्न चिह्न लग जाता है। जिसे व्यवस्था को देखना है वे आंखें बंद पड़ी हैं। जिसे जि‍म्मेदारी दी गई है वह मौन है। जिसे निगरानी का काम दिया गया है वह कुछ देख नहीं रहा है, यानी सब गड़बड़झाला है । यह व्यंग्य की पूर्णाहुति एक नए व्यंग्य को जन्म देती है। शांतिलाल जैन के हर व्यंग्य इसी तरह प्रारंभ होते हैं और एक सवाल छोड़कर खत्म हो जाते हैं। यह व्यंग्य की सफलता है कि वह पाठक के साथ चलते हुए उसे झगझोरता भी है और उसके भीतर एक सवाल छोड़कर भी जाता है। यही सवाल उस पाठक को सदैव कचोटता रहता है।

किताब के शीर्षक व्यंग्य से प्रारंभ करते हुए वे आखिर में एक नई सुबह नहीं आने की घोषणा करते हैं। इतनी सारी विसंगतियां और विद्रूपताएं होने के बाद कोई कैसे मान सकता है कि सब कुछ बेहतर हो जाएगा, रामराज आ जाएगा । व्यंग्यकार के यहां भी यही चिंता दिखाई देती है । वह भी एक नई सुबह लाने की कोशिश करता है मगर कर्तव्यों के पालन में कोताही और अपनी भूमिका और दायित्व को न समझने की भूल हमें ऐसी ही विसंगति की ओर ले जा रही है।

संग्रह के सभी 56 व्यंग्य अलग विषय के साथ एक अलग पैगाम देते नजर आते हैं। शांतिलाल जी के यहां आम आदमी की तकलीफों का जिक्र काफी देखने को मिलता है। उनके विषय भी सामान्य व्यक्ति के जीवन से ही उठाए गए हैं। यातायात की समस्या हो, प्रदर्शनकारी विवाह समारोह की बात हो, हमारे रीति-रिवाज की आड़ में हो रहे अन्याय का जि‍क्र हो या हमारे संबंधों में आई दरार, सभी को शांतिलाल जी बहुत प्रभावी ढंग से उठते हैं।

‘आंकड़ों का तिलिस्म’, ‘चूल्हा गया चूल्हे में’, ‘सिंदबाद की आठवीं कहानी’, ‘कंफ्यूज लियोन और सच की तलाश’, ‘घर फूंक तमाशा देख’, ‘वर्क फ्रॉम होम’ जैसे विषयों पर व्यंग्य रचना कर श्री जैन ने महत्वपूर्ण कार्य किया है। इन व्यंग्य रचनाओं में पंच बहुत हैं। हर रचना अपने आप में एक कटाक्ष करती है। समझने वाला छोटे-छोटे वाक्य को पढ़कर तिलमिला जाता है। यही इन व्यंग्य रचनाओं की सफलता है।

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