अमर सिंह चमकीला फिल्म के बहाने

योगेश कुमार ध्यानी, मरीन इंजीनियर और स्वतंत्र लेखक

हाल ही में नेटफ्लिक्स पर रिलीज हुई फिल्म ‘अमर सिंह चमकीला’ भारतीय सिनेमा के हालिया परिदृश्य मे स्फूर्ति फूंकने का कार्य करती है। इसे देखते हुए हम फिर से सिनेमा के औचित्य संबंधित प्रश्न पर विचार करने लगते हैं और उत्तर के रूप में फिलहाल सबसे करीब मौजूद फिल्म के तौर पर इस फिल्म का नाम हमारे जेहन मे तैर जाता है। हाल फिलहाल आ रही फिल्में अपनी एप्रोच में अतिवाद का शिकार जान पड़ती हैं। भले ही उनके विषय अलग-अलग हों, राजनीतिक किरदारों या घटनाक्रमों पर बनी फिल्में हों या फिर राष्ट्रवाद और देशभक्ति पर आधारित, ज्यादातर फिल्में अपनी बात रखने की प्रक्रिया में लाउड हो जाती हैं। विषय पर सरसरी पड़ताल के बाद उनमें अपने निष्कर्ष को स्थापित करवाने की जल्दबाजी दिखती है।

दूसरी तरह की फिल्में विजुअल इफेक्ट्स की अति से भरी हुई हैं। हाई एक्शन से भरपूर ये फिल्में लोकेशंस से अधिक लैब की फिल्में हैं। सब कुछ अवास्तविक होते हुए भी दर्शकों से कहानी के स्तर पर जुड़ पाना ऐसी फिल्मों के लिए बड़ी चुनौती रही है। फिर भी हालिया रुझान ये दर्शाते हैं कि बेहद कमजोर कहानी और अविश्वसनीय विजुअल इफेक्ट्स और प्रमोशन के दम पर भी फिल्में बड़ा मुनाफा कमाने मे कामयाब हो जा रही हैं। एक नया दर्शक वर्ग तैयार होता जा रहा है जो थियेटर में इन इफेक्ट्स का अनुभव करने ही आता है। ऐसे में कहानी के कमजोर पड़ने के खतरे सर उठाते हैं।

ऐसे दौर में इम्तियाज अली अपनी फिल्म ‘चमकीला’ के साथ आते हैं और कहानी तथा फिल्मों के अन्य जरूरी घटक जैसे संगीत और अभिनय आदि मे बतौर सिनेदर्शक हमारा विश्वास फिर से पुख्ता होता है। ‘चमकीला’ देखते हुए हमें पुराने इम्तियाज अपने निखार के साथ मिलते हैं। इम्तियाज के पिछले कुछ काम दर्शकों से जुड़ पाने मे कामयाब नहीं हो सके थे। लेकिन एक बड़े दर्शक वर्ग ने इम्तियाज से एक बेहतर फिल्म की उम्मीद लगाई हुई थी जो अब ‘चमकीला’ के साथ पूरी हुई है। ‘रॉकस्टार’, ‘जब वी मेट’ और ‘हाइवे’ जैसी फिल्मों के बाद इम्तियाज से अपेक्षाओं का बढ़ जाना स्वाभाविक भी था।

‘चमकीला’ विषय चयन और प्रस्तुतिकरण दोनों स्तर पर आकर्षित करती है। फिल्म रिलीज से कुछ समय पहले अखबारों ने अमर सिंह चमकीला के बारे मे खबरें प्रकाशित की थीं जिनको पढ़कर दिमाग में एक खाका खींच जाता है। चमकीला अस्सी के दशक में पंजाब में मशहूर हुआ एक लोकगायक था जिसके गानों की बिक्री का रिकार्ड आज भी कायम है। उसकी लोकप्रियता उसे कनाडा, मिडिल ईस्ट जैसे देशों तक ले गयी जहां उसने हाउसफुल शोज किये और उसके शोज की टिकटें ब्लैक में बिकी। इसके अलावा चमकीला के जीवन से जुड़ा एक भयावह पक्ष उसकी और उसकी पत्नी की अज्ञात हमलावरों द्वारा गोली मार कर की गयी हत्या है, जिसका रहस्य आज भी अनसुलझा है।

हिंदी सिनेमा में बायोपिक फिल्मों की सफलता का ग्राफ बहुत अच्छा नहीं है। इधर, कुछ वर्षों में बायोपिक फिल्में बनने का चलन भी बढ़ा है जिसमें हम अक्सर पाते हैं कि मुख्य किरदार को हूबहू दिखाने के लिए बहुत मेहनत की जाती है लेकिन पूरी फिल्म तथ्यों के अभाव में या घटनाओं की बहुलता के कारण बिखर जाती है।

इम्तियाज ने इस फिल्म में उस संतुलन को साध लिया है। चमकीला की हत्या सिर्फ 28 साल की उम्र में हो गयी थी। चमकीला के गाने की शुरुआत से लेकर उसके लोकप्रिय होने और फिर हत्या तक के सफर को इम्तियाज ने बखूबी दूसरे किरदारों की किस्सा बयानी के माध्यम से दर्शाया है। फिल्म की शुरुआत में ही चमकीला और उसकी पत्नी की हत्या का प्रसंग दिखाया गया है जिसके बाद सारी कहानी फ्लैशबैक में चलती है। सभी घटनाएं क्रमवार तरीके से स्पष्ट और प्रभावी रूप मे दर्शक के सामने खुलती हैं।

चूंकि, यह फिल्म गायक पर आधारित है तो जाहिर तौर पर संगीत को भी इस फिल्म का एक किरदार माना जा सकता है। चमकीला के गानों के अलावा एआर रहमान और इरशाद कामिल के गीत भी कमाल के हैं। अंतिम गीत जो विदा का है, उसके आने तक हम पूरी तरह से चमकीला के किरदार के साथ होते हैं और उसका द्वंद्व, उसका संगीत सब हमारे साथ होता है। निश्चित तौर पर इसका बड़ा श्रेय दिलजीत दोसांझ के अभिनय और गायन को जाता है लेकिन सह कलाकारों ने भी कहानी को जीवंत बनाया है। अमरजीत कौर के रूप मे परिणिति का चयन सटीक है तो चमकीला के साथी टिक्की के किरदार मे अंजुम बत्रा की अदाकारी कमाल की है।

इसके अलावा गैर पंजाबी दर्शकों की सुविधा के लिए पंजाबी गीत के बोलों को स्क्रीन पर रोमन में दिया गया है। साथ ही अनेक स्थान पर चमकीला और अमरजीत कौर की असली तस्वीरों के दृश्यों के साथ फिल्म के दृश्यों का मिलान स्क्रीन को दो हिस्सों मे बांटकर दिखाया गया है।

तकनीकी पक्षों के अलावा अगर यह फिल्म लोकप्रिय होती है तो इसकी वजह चमकीला के जीवन की कहानी होगी जिसके जरिये तत्कालीन पंजाब की झलक मिलती है। गीत अखाड़ों का कल्चर, कैसेट्स के प्रति लोगों की दीवानगी दिखती है। उन लोगों की तरफ भी एक इशारा मिलता है जो खुद को धर्म का झंडाबरदार मानते हैं और जिनके लिए फोर्स, कमेटी या डिपार्टमेंट जैसे शब्दों का इस्तेमाल फिल्म मे किया गया है। हालांकि, वह कितना बड़ा है, सशस्त्र है, उसमें कौन-कौन शामिल है, उसका स्वरूप कैसा है और सत्ता में उसकी भागीदारी किस हद तक है, यह तो पता नहीं लगता पर हम उसके प्रभाव को चमकीला पर बनाये जा रहे दबाव के माध्यम से जान सकते हैं।

लोगों की पसंद और मजहब के तथाकथित प्रहरियों के द्वारा तय किये जा रहे मापदंडों के बीच किसी तरह संतुलन बनाते हुए लेकिन अंतत: अपने संगीत में रमे हुए चमकीले की कहानी जानने योग्य और चौंकाने वाली है। फिल्म में चमकीला अपनी खूबियों, खामियों और अपने गीतों के साथ हमारे सामने आता है। इम्तियाज इतनी गुंजाइश छोड़ देते हैं कि दर्शक ‘चमकीला’ के बारे में अपनी राय स्वयं बनाये। स्वयं तय करें कि ‘चमकीला’ के अश्लील बोलों और फोर्स और कमेटी (तथाकथित) द्वारा उस पर इस प्रकार के गाने न गाने के लिए बनाये गये दबाव मे से क्या गलत था और कितना।

नियंत्रण, नैतिकता, षड्यंत्र और प्रसिद्धि की चाह सब मिलकर एक त्रासद अंत में बदल जाते हैं। जिसमें से असली गुनहगार का पता न तो पुलिस ने लगाया न ही हम और आप किसी एक को आरोपी कहने और किसी को बरी करने की क्षमता रखते हैं। फिर भी इम्तियाज की यह फिल्म एक विरले विषय के चयन, निर्णयात्मक हुए बिना उसके निष्पक्ष ट्रीटमेंट और शायद सबसे ज्यादा अपने संगीत और शानदार अदाकारी के कारण लंबे समय तक याद की जाएगी।

एक और विचारणीय बात यह है कि इस फिल्म को थियेटर के बजाय पहले ओटीटी पर क्यों रिलीज किया गया? यही हमने बेहतरीन वेब सीरीज ‘रेलवेमेन’ के साथ भी देखा था। आखिर वे कौन से कारक हैं जो फिल्मकारों को थियेटर से दूर कर रहे हैं? क्या ऐसा बॉक्स ऑफिस प्रेशर से बचने के लिए किया जाता है? थियेटर के बदले स्वरूपों में महंगे टिकटों और ओटीटी की नयी व्यवस्था के मध्य और कमर्शियल दबाव के बीच आज के दौर में पहले के मुकाबले एक ईमानदार फिल्म बनाना कितना आसान या कठिन हुआ है, यह भी विमर्श का विषय होना चाहिए क्योंकि यही आने वाले समय के भारतीय सिनेमा की दिशा को निर्धारित करेगा।

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