हंसध्वनि में ही है हंसध्वनि राग
राघवेंद्र तेलंग, सुपरिचित कवि,लेखक,विज्ञानवेत्ता
आज हंसध्वनि में जीवनानुभव से निकली ऐसी बातों पर मूल विचार जो हमें हमारे मूल मनुष्य स्वरूप से विकृत पशु स्वरूप की ओर भागते चले जाने की खतरनाक दिशा की ओर इशारा करती हैं। चलिए, शुरूआत एक कविता ‘शुद्ध घी’ से करते हैं:
शुद्ध घी
इसलिए शुद्ध नहीं है
क्योंकि
जीवन शुद्ध नहीं है
जीवन जितना शुद्ध होगा
शुद्ध घी
उतना ही शुद्ध होगा।
दो लाइनों में जीवन दर्शन का सत्व समेटे यह कविता एक बड़ी बात की ओर इशारा कर जाती है। जीवन भर हम हंसध्वनि और काकध्वनि की सीमाओं के बीच झूलते रहते हैं। जितना हम शुद्ध हवा की ओर ऊंचा और ऊंचा उड़ने की ओर सोचते हैं प्रदूषित वायु यानी पॉल्यूटेड एयर हमें नीचे और नीचे की ओर यानी कौओं की कांव-कांव वाले झुंडों की कर्कश आवाजों के बीच ला पटकती है। कभी सोचा है आखिर क्यों हम चाहकर भी चंदन नहीं हो पाते! क्या वजह है कि हम अपनी चाह का जीवन चाहकर भी नहीं जी पाते? तो चलिए आज अपनी हंसध्वनि की तलाश में चलते हैं।
अपने आसपास के लोगों और लोगों की प्रवृत्तियों पर जरा गौर करना शुरू करते चलिए,इसी अवलोकन में आज के प्रश्न का हल छुपा हुआ है। ग्लोबल वार्मिंग आज का सबसे चर्चित शब्द है। आज यह शब्द पृथ्वी के बढ़ते तापमान की चिंता का शब्द है। अर्थात पृथ्वी के बीमार हो जाने की ओर इंगित करने का एक सिग्नल। इस सिग्नल को पकड़िए।
हम अपने आसपास के बहुतायत लोगों की और अपने मां-पिता के जमाने के लोगों के बीच जब तुलना करते हैं तो पाते हैं कि आज पहले से कहीं ज्यादा,बहुत ज्यादा बेचैनी है,व्यग्रता है। यह वृद्धि चिड़चिड़ाहट,गुस्सा,आरोप-प्रत्यारोप,लोभ-लालच,शंका जैसी बढ़ती चली जाती प्रवृत्तियों से स्पष्ट होती है। यही वो पैमाने हैं जो शोर और कर्कश ध्वनि के कारण भी हैं। हमारे असंयमित व्यवहार से ही हमारी धरती बीमार पड़ी है। हमारे भीतर की बढ़ी हुई गर्मी से पृथ्वी का तापमान भी बढ़ा है। हमने हमारे द्वारा पैदा गर्म विकिरण की तरंगों से गाने वाले परिंदों के आशियाने ही उजाड़ डाले। पृथ्वी को ठंडा बनाए रखने वाले पेड़ आज शहरी जीवन में दुर्लभ दृश्य हो गए हैं। इससे हुआ यह कि विविध पक्षियों का आवागमन नष्ट हो गया। साथ ही हर सुबह सुनाई पड़ने वाले विविध संगीत स्वरों का भी लोप हो गया।
मुंबई सितारों के संगीत का शहर भी है। उसने पूरे देश के मानस में दिव्य हंसों की ध्वनि हमें हमेशा से सुनाई है। यह शहर अनेक संगीतकारों की साधनास्थली है। ऐसे शहर पर अगर कौओं की कर्कश ध्वनि हंसध्वनि पर छा जाए तो संगीत को जीवन से विदा होते देर नहीं लगेगी। अपने भीतर का संगीत बचाइए,कौओं की संख्या और उन पर अपनी निर्भरता को कम कीजिए। अपने भीतर विराजमान ईश्वर प्रदत्त हंस की रक्षा कीजिए,उसे काकस्पर्श से बचाइए। आज की हंसध्वनि यही कह रही है।
जब आप कुछ नहीं करते,जीवन जब आपके लिए ऐश्वर्य प्रदर्शन व टाइमपास का जरिया हो जाता है तब ऐसे में वह निरुद्देश्य और खाली जैसा जीवन होता चला जाता है और उस खाली स्थान को फिर नकारात्मक फोर्सेज घेरने लगतीं हैं और हिंसा, लालच, लोभ, स्वार्थ, धोखे पर आधारित अप्राकृतिक, नकली जीवन अपने आप निर्मित होने लगता है। इसका पता तब चलता है जब अंतिम समय में टाइम कम पड़ जाता है और दम-सा घुटने लग जाता है।
महाभारत में स्वर्गारोहण के समय एक श्वान के भी धर्मराज के साथ होने का उल्लेख है। क्या कारण है कि धर्मराज के साथ एक कोई दूसरा योग्य मनुष्य नहीं था सिवाय एक श्वान के!
धर्म का एक बड़ा अर्थ सौ प्रतिशत अनुशासित जीवन से है। धर्मराज की सुसंगति से जो श्वान भी सौ प्रतिशत अनुशासित हो जाए और फिर वह भी नितांत एक दिव्य मौन की सीढ़ी के सहारे मनुष्य के साथ स्वर्ग के द्वार पर पहुंच जाए,उसे सुपात्र ही कहेंगे।
यह उदाहरण सांकेतिक है,एक सूत्र है। लेकिन हमारे दैनिक जीवन में हम इन संकेतों को इग्नोर करते हुए लापरवाही भरा,अनुशासनहीन,इनडिसिप्लिन्ड लाइफ स्टाइल के साथ जीवन बिताते रहते हैं। पेट्स के गले में जंजीर इसलिए भी है कि उनके मालिकों को पेट्स को दी गई अनुशासन की ट्रेनिंग पर भरोसा ही नहीं। जबकि इसी के उलट पेट्स को मनुष्यों के समाज में रहने का शऊर,अनुशासन सिखाने वाले कई ऐसे प्रशिक्षक हैं जो पेट्स को इस तरह के अनुशासन में ढाल देते हैं कि उनका हिंसक और शिकारी स्वभाव जाता रहता है और वे एक अनुशासित मनुष्य समाज के लायक हो जाते हैं। यह तथ्य किसी से छुपा नहीं है कि जैसी पालतू की वृत्तियां होंगी वैसी ही उनके मालिकों में भी जरूर हो सकती हैं!
आपने देखा ही होगा कि समारोहों में डीजे का कानफाड़ू संगीत और हार्ट अटैक के स्तर को छू लेने वाले डेसिबल मापांक के दौर में,घर-घर में सुनाई आते मनोरंजन चैनलों के उच्च शोर में आदमी और समाज के बीच संवेदनशील तंतु टूटते-से जा रहे हैं। मौन की महत्ता और एकांत व साधना की बातें और स्थान आज गायब इसीलिए हैं कि उच्च आवृत्ति और बीट्स की तरंगों के दौर में मनुष्य के साथ-साथ संवेदनशील पशु-पक्षियों,जीवों के व्यवहार तेजी से बदलते जा रहे हैं। आजकल पालतू कुत्ते भी विस्फोटक की तरह अचानक आपके पीछे भौंकते हुए दौड़ पड़ते हैं,मल्टी में रहने वाले बुज़ुर्गो की नींद और खेलते हुए मासूम बच्चे ख़तरे में है। ऐसा ही स्ट्रीट डॉग्स के साथ भी है। मधुमक्खियों के छत्ते के निकट तेज आवाज में लगातार ढोल बजाने के कारण मानवों पर उनके अचानक हमले की खबर हाल ही मैंने दैनिक भास्कर में इसी माह पढ़ी है।
तेज गति और तेज आवाजों में कोई भी जीव विवेकशून्य हो जाता है और अचानक उसका व्यवहार बदल जाता है। देखना और सुनना अब एक लगातार क्रिया बन चुकी है,जिसमें कल्पना और सोच-विचार के लिए स्थान नहीं है। कोई सोचने को तैयार ही नहीं कि पढ़ना-लिखना मनुष्य को क्रिएटिव और संवेदनशील बनाता है,कला के लिए तैयार करता है। कहने की जरूरत ही नहीं कि कला ही मनुष्य को अनुशासित कर एक सौ प्रतिशत वाले कम्प्लीट व्यक्तित्व के लिए तैयार करती है और वह सौ प्रतिशत वाली पर्सनैलिटी ही फिर स्वर्गारोहण के लिए तैयार होती है। ऐसे सौ प्रतिशत वाले श्वान को जंजीर में बांधने की फिर जरूरत ही नहीं पड़ती बल्कि कहा ये जाए कि जंजीर अनुशासनहीन के लिए है और जिसके गले में जंजीर है उसके बारे में साफ है कि वह कभी भी अचानक वाला व्यवहार कर सकता है,उसके लिए स्वर्ग बहुत बहुत दूर है,असंभव।
जंजीर में किसी जीते-जागते जीव को कैद रखकर बांधना निर्दयता है,उसके लिए आलीशान घर भी जेल है और बांधने वाला नेचुरल या प्राकृतिक मनुष्य भी नहीं,वह अचानक कभी भी मानवीय मूल्यों के विरूद्ध व्यवहार कर सकता है, उसने अपने इसी डर के कारण ही एक वफादार-साहसी जीव को क़ैद कर रखा है। वफादारी सिखाने वाले शिक्षक के गले में ही जंजीर डाल देना स्वयं इस बात का साक्ष्य है कि जंजीर थामा हुआ यह मनुष्य किसी का भी वफादार साथी नहीं हो सकता। ऐसे पेट्स पालक जो संवेदनशील हों तो इस बात को पढ़कर जरूर नोट करें,पढ़ने से ही हिंसक सोच जायेगी,वरना तो संवेदनशीलता और क्रिएटिविटी को टीवी,ओटीटी,फिल्में सुला ही रहे हैं हिंसा के प्रसार के जरिए। स्मरण रहे कि युद्धरत देशों में मनुष्यता का वास बंकरों में पाया जाता है तब वहां खुली हवा में सांस लेने का महत्व पता चलता है। अपने कुत्सित स्वार्थों को साधने के लिए फरियादी बनकर कानून का दुरूपयोग करने वाले पेट्स लवर्स पर भी हाउसिंग सोसायटीज को नजर रखना चाहिए। अन्यथा सोसायटी की नसों में यह कैंसर फैलता चला जाएगा और संगीतमय जीवन के प्राण छूट जाएंगे।
इसी संदर्भ में बताता चलूं कि मिशन पंख,जो कि पिंजरा मुक्त समाज के लिए संकल्पित है,भोपाल के युवाओं का ऐसा मिशन है जो पशु-पक्षियों की प्राकृतिक स्वतंत्रता के लिए,आजादी के लिए कार्य कर रहा है। मेरे अनुजवत मित्र धर्मेंद्र शाह इस मिशन के प्रणेता हैं। शीघ्र ही उनके इस मिशन की सफलता की कहानी स्टार प्लस टीवी चैनल पर आने वाली है। धर्मेंद्र शाह की कहानी इतनी प्रेरक है कि जब मैंने उनकी आत्मकथात्मक पुस्तक ‘पिंजरा’ का कवरेज किया तो कुछ अतिसंवेदनशील कवि मित्रों ने अपने घरों के पिंजरे में कैद तोतों को आजाद कर दिया।
कहने का स्पष्ट अर्थ इतना ही है कि ‘मिशन जंजीर फ्री’ के पहले कदम की प्रतीक्षा है और अपेक्षा यही है कि पहले कदम का सफर मुंबई से ही शुरू हो। मेरे शहर भोपाल में भी अब मल्टी स्टोरीड कल्चर आम है,मगर देखें तो यहां भी पेट्स लवर्स या कहें कुत्ता प्रेमी इस बात को समझने के लिए तैयार ही नहीं कि उनके कुत्ते जंजीर से बंधे रहने के कारण ही बेवजह कभी भी भौंकते रहते हैं,यहां तक कि बच्चों को काटने तक लपक पड़ते हैं।
दरअसल, उनका यह भौंकना मुक्त होने की सहायता के लिए आवाज लगाना है,यह बुनियादी संकेत उनकी समझ में ही नहीं आता। हम सभी की तरह उनके जीवन का भी तो उद्देश्य सौ प्रतिशत संपूर्ण बनकर अंत में धर्मराज के साथ होना है। ये जमीन के पशु हैं, ये दौड़ने के लिए बने हैं। अब शिकारी मानव का ज़माना रहा नहीं कि शिकार को सूंघने के लिए इनकी आवश्यकता हो। अब डिजिटल लॉकर और बैंकिंग का जमाना है तब फिर ऐसे में रखवाली हो तो आखिर किसकी! फिर क्यों जंजीर में बंधे रहें बेजुबान,मासूम कुत्ते! बिना जंजीर के जो आकर आपसे लिपट जाए वही असली पालतू है,वही आपका अकेलापन दूर कर सकता है। जिसे भी आप जंजीर से बांध देते हैं उसका तत्क्षण गला घोंट देते हैं,ऐसा जीव बहुत बहुत अकेला हो जाता है और हर क्षण अपनी चुप निगाहों से श्राप की तरंगें फेंकता रहता है। ऐसी बददुआएं फलीभूत होती हैं कम से कम इसमें मुझे तो कोई शंका नहीं है।
अब समय की मांग है कि हम मनुष्यों के असंयमित व्यवहार को बदलने की शुरूआत आवारा,हिंसक और शिकारी स्वभाव के कुत्तों और जंजीरों में कैद ट्रेनिंग के बाद भी इनडिसिप्लिन्ड,अनुशासनहीन कुत्तों से करें। पक्षियों से शुरूआत हम कर ही चुके हैं। यह साइलेंट कल्चर की ओर एक कदम होगा जिससे कि भारतीय कला-संस्कृति की साधना के लिए एकांत और साधना की राह खुलेगी। इससे जंजीरों में बांधने वालों के व्यवहार में परिवर्तन आएगा और उनकी शिकारी प्रवृत्तियों को अनुशासन और संयमित जीवन के आनंद का रस का महत्व समझ आएगा। जो पेट्स लवर्स इस भावना को नहीं समझते वे पशुओं के प्रति क्रूरता तो कर ही रहे हैं और अपनी शान-औ-शौकत,रूतबे की खातिर धर्मराज के इस साथी को उसके गंतव्य तक जाने से भी रोक रहे हैं और यह पाप है।
यह तो निश्चित ही है कि कुत्तों की आवाज को डिकोड कर लिखे गए इस शब्द रूपी आलेख से गुजरने के बाद हरेक पेट्स लवर अपनी ही तरह कुत्तों को भी अपने जीवन से लव्ह करने के अधिकार को सम्मान देने के बारे में सोचेगा। यह हर जीव को मिले जीवन के वरदान के पक्ष में लिखी गई बात है और हर कानून इस प्राकृतिक स्पिरिट के मुताबिक ही बना है,जंजीरों के पक्ष में नहीं। जंजीरें ईश्वर और कानून ने पापियों के लिए बनाई हैं। आप कोई भी हों अब तो समय की मांग है कि प्रकृति धर्म का पालन हो सो अपने अपने स्तर पर भले सोच में ही सही ‘मिशन जंजीर फ्री’ से शुरूआत कीजिए। इतना सब कह चुकने के बाद यह कामना करनी चाहिए कि ऐसे क्रूर पेट्स लवर्स अब कहीं हंसध्वनि को ही कैद करने के इरादे से हिमालय के मानसरोवर तक भी न पहुंच जाएं। हे! ईश्वर इन्हें माफ करना ये नहीं जानते कि ये क्या कर रहे हैं!
एक अति संवेदनशील ईश्वरीय जीव कृति को जंजीरों में जकड़ने वालों की निष्ठुरता का प्रकट रूप देखने के लिए किसी सबूत की जरूरत नहीं। इन देसी अंग्रेजों के उपनिवेश एक दिन हाथ से जाते रहेंगे यह तय है,जंजीरों को तो एक दिन टूटना ही होता है ये किसी को नहीं भूलना चाहिए। शहरों में हर ऊंची इमारतों वाली सोसायटियों में अमन-चैन,शांति साधकों की राह में बाधा हैं,रुकावट हैं,बैरियर हैं ऐसे हिंसक जंजीरवादी। इन्हें सांस्कृतिक प्रशिक्षण,ट्रेनिंग की आवश्यकता है। मेरा ऐसा अवलोकन है कि नकलीपन से लबरेज इनकी अशुद्ध अंग्रेजी की बातचीत सुनेंगे तो पाएंगे कि ये गूगल को ही ज्ञान का एकमात्र कोश समझ बैठे हैं और उसी में सारी बातों का इलाज ढूंढ कर नुस्खे लोगों को जता-जताकर अपने ज्ञान का अहसान लादते फिरते हैं। ये भारतीय कम इंडियन ज्यादा हैं। परंपरा बोध,मूल्यों के संरक्षण की चिंता से इनका दूर-दूर तक वास्ता नहीं।
यहां यह स्पष्ट कर दूं कि ये बातें हिंसक प्रवृति के क्रूर पेट्स मालिकों के बारे में हो रही हैं,लवर्स का मैं सम्मान करता हूं। लवर्स का गुण ही यह है कि वह स्वामित्व का भाव नहीं रख कर समर्पण के साथ पालक की तरह पेश आता है उसके पेट्स के लिए शब्द है श्वान और जो किसी जीवंत प्राणी के साथ मालिकियत के भाव के साथ पेश आए वह दास प्रथा का समर्थक होगा ही होगा यह कहने की नहीं समझने की बात है। यह विचारणीय तथ्य मुंबई की एक सोसायटी में दो समूहों के टकराव की घटना से उपजा है।
मेरा मानना है और अनुभव भी है कि संगीत की प्रतिभा दिव्य गुणों के पनपने से ही आती है और ऐसे लोगों में दिव्यता होती है। ऐसी प्रतिभाओं के रास्ते में आसुरी ताकतें अवरोध,रोड़े खड़ी करती ही हैं। पेट्स लवर्स हम सब भी हैं मगर दर्द होता है पेट्स की ऐसी हालत देखकर। हँस के इर्द-गिर्द कौओं के कर्कश शोर की जंजीरों को बढ़ते देखकर यह सब विचार आ गए। इसे एक अनुरोध और अपील भी समझें।
फिलामेंट एलिमेंट वाली बात यह है कि उत्तरी ध्रुव और दक्षिण ध्रुव की जमा बर्फ पिघलने तथा समुद्रों की सतह में वृद्धि होना ही संकेत करता है कि अब जमीन टापू होने की ओर है और जीव-जगत की हर नस्ल पर गहरा खतरा मंडरा रहा है। जब रहने और पीने के पानी के स्रोतों की जगह ही सिकुड़ते चली जाएगी तो इमारतों की ऊंचाई आखिर किस हद तक बढ़ सकेगी जरा सोचिए भला! आदमी निरीह कबूतर में तब्दील होता चले जाएगा और उसके घर कहलाएंगे दड़बे।
हंसध्वनि यह कहती है कि देवदत्त और सिद्धार्थ गौतम जैसों के बीच संघर्ष व वाद-विवाद पुराना है। एक का मानस कहता है जिसने शिकार किया जीव उसका हुआ वहीं दूसरे का बोध कहता है कि जो जीव को बचाए,रक्षा करे,स्वतंत्र महसूस कराए जीव पर उसी का अधिकार। यह अंधेरे और उजाले की सनातन काल से चली आ रही लड़ाई है। इस संबंध में भोपाल-नागपुर के प्रकृति प्रेमी व मीडिया में सक्रिय मित्रों से जब बात हुई तो उन्होंने मत व्यक्त किया कि पर्यावरण मंत्रालय को नीति और कानून के जरिए क्रुएल अर्बन पेट्स मालिकों के मानस के रूपांतरण के लिए जरूरी सुझाव अवश्य दिए जाना चाहिए। मुंबई और भोपाल के बहुमंजिला इमारतों की सोसायटियों से रहकर मिले अनुभवों पर आधारित यह आलेख आपको अच्छा लगा होगा ऐसी उम्मीद की जानी चाहिए।
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