मानसिकता कंट्रोल करता है शब्द जनरेशन गैप

राघवेंद्र तेलंग, सुपरिचित कवि,लेखक,विज्ञानवेत्ता


‘फिलामेंट एलिमेंट: हंसध्वनि’ क्यों और किसलिए?

फिलामेंट एलिमेंट :हंसध्वनि’, नए कॉलम का नाम है, ऐसा इसलिए कि आज का दौर न्यूक्लियस फैमिली का है, जिसमें दो पीढ़ियों के बीच संवाद और मिलन का अभाव है और इन के बीच मौजूद तीसरी पीढ़ी उपेक्षा महसूस करती हुई अकेलेपन का शिकार है। यानी इनके बीच का एक धागा कहीं गुम हो गया है। इससे हो यह रहा है कि भौतिक अर्थ स्वरूपों का केंद्रीकरण होता जा रहा है और अहं प्रेरित विकृतियों का पहाड़ खड़ा होता जा रहा है। समग्रता में कहें तो सांस्कृतिक विकृतियां फलती-फूलती जा रही है। आज डिजिटल प्लेटफॉर्म्स यथा अखबार,वेब पोर्टल, सोशल मीडिया पर युवा भी हैं और सजग प्रौढ़ भी। इनके बीच इंटरकनेक्टेडनेस स्थापित होने से ही बदलाव,विकास की गति तेज होगी। इसीलिए इस कॉलम का शीर्षक अंग्रेजी और हिंदी में मिलाकर,वह भी साइंस और स्पिरिचुएलिटी को ध्यान में रखते हुए रखा गया है। साइंस की प्रकृति ग्लोबल है,वहीं स्पिरिचुएलिटी के कंटेंट का भी तेजी से प्रसार हो रहा है। आगे के समय में यह तेजी से होगा,यह स्पष्ट है। यह कॉलम इंटेलेक्ट रूपी एक वृक्ष के बनते तने को भी वैचारिक रूप से मजबूत करेगा और उसे उसकी जड़ों की भी याद दिलाएगा। हमारी पारंपरिक जड़ों में समाए वैज्ञानिक दृष्टिकोण और उनमें निहित विज्ञान के अनुरूप जीवन शैली के निर्वाह की बातें इसमें होंगी और आधुनिक तकनीक से नित्य-प्रति बनते डायनामिक परसेप्शन पर भी नजर होगी। कोशिश होगी कि ‘फिलामेंट एलिमेंट: हंसध्वनि’ कॉलम में विषयों का तात्विक विवेचन हो और एक जीवन दर्शन उभरे ताकि पाठक के परसेप्शन में न्यूक्लियस का विचार आए और उस के विज़न में ऐसा कोण पैदा हो ताकि फिर वह हर विषय में उसके नाभिक का विचार ढूंढे। व्यस्त जीवन शैली के कारण आज के समय की इस पीढ़ी के पास पढ़ चुकने के बाद उस पर तत्काल मंथन की प्रक्रिया में बने रहने का समय नहीं है,सो पढ़ चुकने के बाद शब्द कपूर बनकर रह जाते हैं। यहां अभिव्यक्त कथ्य ,कंटेंट फूल खिलाने के लिए आवश्यक फिलामेंट एलिमेंट की तरह होंगे और जब तक आपको उन फूलों की सुगंध का अहसास बना रहेगा तब तक हंसध्वनि के शब्द आपकी प्रत्यक्ष स्मृतियों में बने रहेंगे।’फिलामेंट एलिमेंट: हंसध्वनि’ कॉलम पाक्षिक है और नियमित तौर पर इसे आपके लिए लिखेंगे सुपरिचित कवि,लेखक,विज्ञानवेत्ता राग तेलंग जिनका मूल नाम राघवेंंद्र तेलंग है। यह कॉलम मिशन रूपांतरण के उनके अनुभवों और प्रयोगों का एक हिस्सा है। पाठकगण लेखक से उनके ई-मेल पते पर सम्पर्क कर सकते हैं।सं.

आप सब महसूस करते ही होंगे कि हम जब भी किसी से कुछ कहते हैं तो ऐसे में एक विचार लगातार हमारा पीछा करता रहता है कि जिससे हमने कहा उसने हमारी बात समझी भी कि नहीं! कहने के पहले जब ऐसा हमें लगता है तब हम कही जाने वाली बात के विचारों को क्रमबद्ध करते हैं,तरतीबवार जमाते हैं। जब हम बात कह चुके होते हैं तब भी संशय बना रहता है कि हमारी बात के माध्यम से अभिव्यक्त की गई भावना उस तक पहुंची या नहीं!
जब घर में दो पीढ़ियों के बीच ऐसी संवादहीनता यानी असफल संवाद घटता है तो वह क्रिया जनरेशन गैप हो जाती है और जब बाहर ऐसा घटता है तो यह कम्युनिकेशन गैप हो जाता है।

अब जरा सोचिए आखिर गड़बड़ कहां है? आगे जो मैं लिखने जा रहा हूं वह एक रेल यात्रा के दौरान सुना हुआ दो बुजुर्ग महिलाओं का संवाद है। आईए देखते हैं इसमें क्या कहने की कोशिश की जा रही है।

(1) आजकल के बच्चे हमें क्या समझेंगे, हमारा भी क्या जमाना था। तब तो घरों में गैस भी नहीं होती थी,कितनी मुसीबतों से चूल्हा जलता था , हम ही जानते हैं,इन बच्चों ने तो वह समय ही नहीं देखा। तब घर चलाना इतना आसान नहीं था,अब तो इंटरनेट का जमाना है, । बच्चे रेसिपी बनाने के तरीके हमसे नहीं गूगल से पूछते हैं। मैं समझती हूं कि गूगल की शरण में जाने से युवा पीढ़ी जनरेशन गैप को ही बढ़ावा दे रही है। मैं तो कहती हूं कि इस मुए इंटरनेट को बैन कर देना चाहिए,घर में तो मोबाइल,बाहर भी मोबाइल,क्या इन बच्चों के कान नहीं पक जाते! मोबाइल से फुर्सत मिले तब ना हमसे बात करें,हमसे बात करेंगे तब ही ना हमको समझेंगे।

वहीं कुछ दिनों बाद किसी एक और रेल यात्रा में इसी विषयक आधुनिक पीढ़ी के युगल के बीच हुआ संवाद भी कानों में पड़ा। आईए इसमें भी देखें कि क्या कहने की कोशिश की जा रही है,और यह भी गौर करें कि दोनों पीढ़ियों के बीच तार आख़िर जुड़ क्यों नहीं पा रहे हैं।

(2) यार! मैं मम्मी-पापा को समझाऊं भी तो कैसे ? वे हमेशा एक यूटोपिया में जीते हैं। जब ज़माना बदलता है ना। तो मूल्य,आदर्श,रहन-सहन,व्यवहार,भाषा-संस्कृति वगैरह-वगैरह सब भी तो बदलता है ना। अब नित नई टेक्नॉलॉजी की वजह से यह सब घटनाएं और भी तेजी से बदल रही हैं। उनके समय में बदलाव की प्रक्रिया धीमी थी,इसलिए चीज़ें और रिश्ते इतनी जल्दी टूटते-बनते नहीं थे,ये लोग अपेक्षाओं के साथ जीते हैं,हम लोग उपेक्षाओं के साथ,हमारी प्रोफेशनल लाइफ ही ऐसी है कि हम इस तेजी के दौर में हमारी हो रही उपेक्षाओं की उपेक्षा ना करें तो जीना ही मुश्किल हो जाए। कहीं कोई जनरेशन गैप नहीं है, बस कम्युनिकेशन के माध्यम बदल गए हैं,हमारे माध्यम अलग हैं,इनके अलग। हमारे मीडिया वर्चुअल ज्यादा हैं,इनके सब रीयल। इनके लिए गॉड रीयल में हैं,हमारे लिए गॉड एक वर्चुअल आईडेंटिटी है। वैसे भी न्यूक्लियस विकास के मॉडल में जीते हुए ऐसी शिकायत तो आनी ही है। हमें पता है हमारे समय के साथ ये हो नहीं सकते और यह समय हमें इजाज़त नहीं देता कि हम न्यूक्लियस विकास के मॉडल को तोड़ें। सारा मामला सरवाइवल से जुड़ा है,फिटेस्ट होंगे तो ही बचेंगे,सिर्फ फिट भर बने रहने से काम नहीं चलेगा,फिटेस्ट बने ही रहना होगा। अब यह ना पूछो कि हमारे बड़े-बूढ़ों ने अपने समय में हमारे लिए विकास का ऐसा मॉडल गढ़ा ही क्यों ? सोचो! फिर पता चलेगा कि गड़बड़ आखिर है कहां!. जनरेशन गैप के इन दोनों पहलुओं का विश्लेषण किए बिना संश्लेषण के लिए ज़रूरी मूल विचार तक पहुंचना नहीं हो सकेगा। तब कहीं जाकर समझ बनेगी कि जनरेशन गैप का क्या कारण है

जनरेशन गैप एक ऐसा शब्द है जो हर दौर में प्रचलित रहा है। इस शब्द की तासीर ऐसी है कि हम उसके पहले ही प्रभाव से बच नहीं पाते और गैप के कहने को डिफॉल्ट जनरेटेड मानकर मान लेते हैं। जनरेशन गैप शब्द आपको सोचने-समझने की अनुमति नहीं देता और आप पहली बार में ही स्वीकार कर लेते हैं कि हां! ऐसा ही है,ऐसा ही होता आया है और आगे भी ऐसा ही होगा। ये तो हुआ जनरेशन गैप शब्द का क्लासिकल,भौतिक चेहरा जो सदा से एक-सा है और हमारे मानस में बैठकर हमारी मानसिकता को कंट्रोल करता है। जिस भी घर में यह मायावी शब्द घुस जाए वहां यह दूरी,दरार,फांक पैदा कर देता है।

किसी भी मुद्दे के तीसरे आयाम को समझे बिना आप उस मुद्दे यानी अखाड़े के दोनो पहलू यानी पहलवानों के बीच हो रहे द्वंद्व का फैसला नहीं कर सकते। अब एक तीसरा अनुभव भी बयान कर दूं। यह एक दिलचस्प किस्सा है, जैसा कि बाहरी दुनिया के लोग करते आए हैं वैसे ही एक दिन एक बाहरी अंतरिक्ष से आया एक क्षुद्र ग्रह हमारे घर के ऑरबिट में मेहमान बनकर आया। उसने मेरे और मेरे गुरू-पिता के बीच में जनरेशन गैप के बीज बिना कहे बोने के प्रयास किए। मेरे पिता ने उसे यह कहकर निरस्त्र कर दिया कि पाण्यात काठी मारल्यास पाणी वेगळा होत नाहीं अर्थात पानी में लाठी मारने से पानी अलग नहीं होता।

जब अधिकाधिक लोग शिकायती हो जाएं तो समझ लीजिए देश आर्थिक और वैचारिक गरीबी के दौर में प्रवेश कर चुका है। ऐसी स्थिति में लोग तार्किक अधिक होंगे और भावना के संकेतों को बूझना भूल चुके होंगे। यह प्रेम भावना के लुप्त होते चले जाने का दौर होगा। इस प्रेम भावना से संचालित संबंधों और रिश्तों के बीच ऑर्गेनिक संवाद की डोर अदृश्य होती चली जाएगी। दिखाई न देने की बेचैनी और इस बेचैन कहन को न समझा सकने की स्थिति को फिर लोग कहेंगे ‘जनरेशन गैप’ !

दरअसल, यह उस शिक्षा का कसूर है जिसने आजीविका के लिए तो तैयार किया परंतु नैतिकता के निर्वाह की सांस्कृतिक शिक्षा नहीं दी,फलत: यह गैप भरा नहीं गया और उभरकर दिखाई पड़ने लग गया। यह समझने में मुश्किल नहीं कि वास्तव में जनरेशन गैप कुछ नहीं है,बस एप्रिसिएशन के प्लेटफार्म बदल गए हैं और इन प्लेटफार्मों पर विभिन्न आयु समूहों या पीढ़ियों की इन्टरकनेक्टिविटी का अभाव है। बाहर ऑर्गेनिक वर्ल्ड में भी यही अभाव है। हमारा आशय घर,समाज से है। दूसरी बात आप हिंग्लिश के पैरोकार नहीं,आलोचक हैं यह जानते हुए भी कि यह तकनीकी का युग है। आप भाषा की शुद्धता के हामी हैं जबकि यह बाइनरी लेंग्वेज का युग है और यही मूल भाषा है। हिंग्लिश लोकभाषा बोली की तरह हो गई है बदलती संस्कृति की भाषा,नई पीढ़ी के दौर की। गुज़रे दौर में सबकी भाषा और संस्कृति में,रहन-सहन में स्वाभाविकत: फासला पैदा हुआ है और यह हर दौर की बात है। संतुलन के लिए बीच का पुल बीच आपको ही बनना-बनाना होगा। इस इगो ड्रिव्हन सोसायटी में एक निरपेक्ष ही यह करेगा और ऐसा एक अनुभवी ही कर सकेगा। दिक्कत हम सब के साथ यह है कि हम उस पुल के नीचे का पत्थर बनना नहीं चाहते,हम शीर्ष पर ही दिखना चाहते हैं इसे समझिए ! दिक्कत इस ज़िद में है। नई पीढ़ी विस्तारवादी मानसिकता के लोगों के लिए काम कर रही है। एक दिन वह दौड़ से उकता जाएगी तब वह उस बिंदु को तलाशेगी जो अपने में संकुचित होगा,नम ओस की तरह,शबनम के जैसा। यह संकेत है उस मॉडल की ओर जो हर कोई होना चाहता है। यह शाश्वत मॉडल स्वयं कहता है कि जितना कम आपका फैलाव होगा उतना अपनी दिशा के 360 डिग्री वृत्त पर आपका कंट्रोल होगा,चीजें कम गुमेंगी और बेचैनी भी उतनी ही कम होगी और हां! शांतता उतनी ही अधिक प्रकट होगी।

फिलामेंट एलिमेंट के रूप में कहने का आशय यह है कि जब तक आप किसी विषय,मुद्दे,समस्या,व्यक्ति के दोनों पहलुओं-पक्षों को भलीभांति न जान लें तब तक कोई एक निश्चित धारणा न बनाएं,निश्चित न करें,परिणाम न दें।

आइए, एक कविता के जरिए इसी बात की हंसध्वनि को महसूस करते हैं।

दो लोग

जीवन में
सिर्फ दो ही लोग
आपको जान सकते हैं

एक वह
जो आपको सामने से देखता है

दूसरा वह
जो आपको पीछे से देखता है

जो सामने से देखता है
वह आपको आधा जानता है

जो पीछे से देखता है
वह भी आपको आधा जानता है

दोनों जब मिलते हैं
आपको जान जाते हैं ।

raghvendratelang6938@gmail.com

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