
- आशीष दशोत्तर
साहित्यकार एवं स्तंभकार
आसानियों में गहराइयों का अहसास
जो डूबना है तो इतने सुकून से डूबो,
कि आसपास की लहरों को भी पता न लगे।
मुशाहिदे और मुतआले के ज़रिये नए मआनी पैदा करने वाले शाइर क़ैसर उल जाफ़री साहब की शाइरी में सादा ज़ुबानी के साथ गंभीरता महसूस की जाती है। यही शाइर का कमाल है कि वह बहुत आसानियों में भी बहुत कुछ शामिल कर ले। यह शेर भी ऐसा ही अहसास करवा रहा है। शेर के लफ़्ज़ी मआनी पर ग़ौर करें तो यह शेर सुकून से डूबने की समझाइश दे रहा है। मगर यह शेर यहीं तक सीमित नहीं है। इसके अर्थ बहुत गहरे हैं।
आज के दौर में इसे इस तरह भी समझा जा सकता है कि यह शेर दर्शन और प्रदर्शन की व्याख्या कर रहा है। इसमें एक फलसफा मौजूद है। आज का समय ही क्या, हर समय ऐसे लोगों को सर आंखों पर बिठाया करता है जो उसके हक़दार नहीं होते। ऐसे लोग जो श्रेय लिया करते हैं, करते कुछ नहीं। वे सिर्फ़ दिखावा करते हैं इसलिए उथले ही रह जाते हैं। भीतर तह तक जाने की कूवत उनमें नहीं होती। इसके विपरीत ऐसे लोग भी इसी समाज में मौजूद होते हैं जो बिना किसी दिखावे के ज़िंदगी की हक़ीक़त की तह तक पहुंच जाते हैं। शाइर ऐसे लोगों की ही बात कर रहा है।
इस शहर को तसव्वुफ़ के रंग में समझने की कोशिश की जाए तो यह एक अलग ही ध्वनि पैदा कर रहा है। शाइर यहां कहना चाहता है कि आप अपने महबूब की चाहत के दरिया में अगर डूबना चाहते हैं तो ज़माने को बताने की ज़रूरत नहीं। आपका और आपके महबूब का रिश्ता क्या है, इसे या तो आप जानें या आपका महबूब जाने। दोनों के अलावा अगर किसी को बताते हैं तो यह महबूब से मिलना नहीं हुआ, महबूब से मिलने का दिखावा हुआ। मिलन तो वह होता है जिसमें किसी तीसरे को ख़बर न हो। सीधे-सीधे आशिक और माशूक की बात हो। दोनों के बीच एक रिश्ता कायम हो और इस रिश्ते की भनक उन लहरों को भी न लगे जो वहीं उसके आसपास मौजूद है। यानी शाइर कहना चाहता है कि आपकी भक्ति इस तरह की होनी चाहिए कि उसमें किसी तरह का दिखावटीपन न हो। वह बहुत ख़ामोशी के साथ हो और यह ख़ामोशी के साथ की गई भक्ति ही सही अर्थों में सार्थक होती है।
ज़िंदगी में अपनी पसंद का कोई भी काम करने के दो तरीके हैं। एक तरीका तो यह है कि हर किसी से अपने मन की बात कही जाए।उन बातों से फिर लोग तरह-तरह की बातें बनाएं। कहां की बात कहां तक पहुंचे और जो काम होना है वह न हो पाए। दूसरा तरीका है कि उस पसंद के काम को अपना लक्ष्य बनाएं। उस लक्ष्य को पाने के लिए दिन-रात एक कर दें। ख़ामोशी के साथ उस लक्ष्य तक पहुंच जाएं। जब लक्ष्य पर पहुंच जाएं तब ज़माने को पता चले कि आपने कौन सी उपलब्धि हासिल की है। ख़ामोशी के साथ सफर करना यही होता है।
ज़िंदगी एक दरिया की तरह ही है, इसमें तैरने वाले कई हैं। गोता लगाने वाले भी हैं, मगर ये सब सतही हुआ करते हैं। ज़िंदगी के दरिया में तह तक वहीं पहुंच पाता है जो बिना किसी शोर शराबे के अपने लक्ष्य के प्रति दृढ़ रहते हुए उन क़ीमती पत्थरों को ढूंढने की कोशिश करे, जो कहीं तलहटी में पड़ा हुआ है। वह ऐसे नहीं मिलता है। वह ख़ामोशी के साथ सफ़र करने वालों को मिलता है। शाइर यही कहना चाहता है कि अगर अपनी मंज़िल तक पहुंचना है तो इस संजीदगी के साथ सफ़र तय किया जाए कि किसी को पता न चले और आपकी मंज़िल आपके कदमों में हो।
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बहुत अच्छे और गहरे मायने हैं पढ़ने और समझने हेतु।वह भी सैद्धांतिक दृष्टि से। व्यवहार में सभी लोग दिखलाना चाहते हैं, प्रचार-प्रसार खुद न करें तो दूसरों से भी करवाते हैं। इस पहलू से परे लोगों के बारे में सोचा भी क्यों जाए? बाप-बेटे और गधेकी कहानी से हम सभी वाकिफ हैं। कुछ तो लोग कहेंगे, लोगों का काम है कहना।
अंततः —“अपनी मढी़ आप मैं डोलूं, खेलूं सहज स्व इच्छा।”—कबीर