राजीव वर्मा: नौकरी छोड़ी, मुंबई छोड़ा मगर शौक न छोड़ा, आज पहुंच गए यहां

– टॉक थ्रू टीम

राजीव वर्मा का नाम लेते ही पर्दे और मंच पर निभाए अनेक किरदारों की छवियां दिमाग में कौंधती हैं। आप उन्‍हें किस तरह पहचानते हैं? ‘चुनौती’ धारावाहिक के प्राचार्य के रूप में, ‘मैंने प्‍यार किया’ के सख्‍त पिता के रूप में या भोपाल में मंचित होने वाले नाटकों के अदाकार-निर्देशक के रूप में। हर उस रोल की पहचान उन पर चस्‍पा है जिसे उन्‍होंने पर्दे या मंच पर निभाया है। इस पहचान से अलग वे रंगकर्म के उस शौक के लिए जाने जाते हैं जिस शौकिया रंगकर्म ने उन्‍हें इंजीनियर से नाट्यकर्मी बना दिया। जिसे पूरा करने के लिए नौकरी में बदनामी झेली, अड़ंगे झेले और फिर उस नौकरी को ही छोड़ दिया। फिर उस मायानगरी को भी छोड़ दिया जहां मिली शोहरत उन्‍हें और आगे ले जाने को तत्‍पर थी। लेकिन वे तमाम अवसरों को पीछे छोड़ अपना शौक पूरा करने भोपाल लौट आए। बचपन में रामलीला देखते-देखते लगा शौक उम्र के हर दौर में ज्‍यादा गहरा और हरा हुआ है। वे भोपाल के शौकिया रंगकर्म की पहचान हैं और आज उसी शौक के कारण उन्‍हें कला जगत के शीर्ष राष्‍ट्रीय सम्‍मान संगीत नाटक अकादमी पुरस्‍कार से नवाजा गया है। यह सम्‍मान पर्दे पर निभाई गई भूमिकाओं से अधिक शौकिया रंगकर्म की अपनी संस्‍था ‘भोपाल थिएटर’ को इतने बरसों तक निरंतर सक्रिय रखने के लिए दिया गया है।

राजीव वर्मा जितने आला दर्जे के कलाकार हैं, उतने ही बेहतरीन इंसान हैं। कुछ सालों पहले उनसे लंबा साक्षात्‍कार करने का अवसर मिला था। कला पत्रिका ‘रंग संवाद’ के लिए किए गए इस साक्षात्‍कार के दौरान उनके जीवन के कई अनजाने पहलुओं को जानने का मौका मिला। बचपन से लेकर एक सुघड़ अभिनेता बनने की कहानी के कई पड़ाव है। अभिनय के तार बचपन में ही झंकृत हो उठे थे जब अबोध उम्र में रामलीला देखा करते थे। उस समय से लगा शौक जीवन के हर सोपान पर ज्‍यादा मजबूत हुआ है।

इस साक्षात्‍कार में राजीव वर्मा ने बताया था कि बचपन में जो देखा, मन पर उसका असर हुआ। उसी को करने की इच्छा जागृत होती रही। ऐसा नहीं कह सकते कि हम बचपन से बड़े कलाकार थे या समझ रखते थे। हां, ऑबजर्वेशन और इंटरेस्ट क्रिएट होने वाली बात है तो उसके पीछे बहुत से कारण पाता हूं। पहले ध्यान नहीं दिया लेकिन अब सोचता हूं तो पाता हूं कि ये कारण रहे होंगे। जैसे बचपन में हम मंडीदीप गांव जाते थे। वहां सालाना रामलीला देखने का बड़ा रोच‍क अनुभव था। अचंभा भी होता था कि गांव के लोग दिन में रिहर्सल करते थे और शाम 4, 5 बजे से मेकअप होता था। सब कुछ फेसिनेटिंग था। पुराने अंदाज़ का मेकअप गेटअप, रेशमी कपड़े, मूंछें, सिर पर मुकुट। शाम को रामलीला होती। बाँस पर लपेट कर पर्दा लगाया जाता। उस पर दृश्य होते थे। कौतूहल होता था कैसे कर लेते हैं। 8-10 साल की उम्र रही होगी। हमारे पिता भोपाल में एडवोकेट थे लेकिन शनिवार-इतवार मंडीदीप में ही बिताते थे। उन दिनों दशहरे दीपावली की लंबी छुट्टियां होती थी। ये छुट्टियां वहीं बिताते थे। रामलीला को देख रुचि जागृत हुई। वहां के कलाकार जैसे सूर्पणखा गांव का ही एक पुरुष बनता था। वहां के पहलवान परशुराम बनते थे। गांव के काका, बाबा अलग-अलग भूमिका निभाते। रामलीला करने वालों को लोग अलग नज़र से देखते थे। अलग श्रद्धा आदर मिलता था। यह बड़ा फेसिनेटिंग था कि जो मंच पर काम करते थे उन्हें अलग सम्मान मिलता है।

वे बताते हैं कि बचपन से ही दिलोदिमाग़ में था कि ऐसा करने से लोग पहचानते हैं। लोकप्रिय हो जाते हैं। इसके बाद गणेशोत्सव स्कूल के कार्यक्रमों में छोटी-छोटी चीजें करने लगे। स्कूल में नाटक करने या वाद-विवाद में भाग लेने से प्रभाव बढ़ता गया। पिता एडवोकेट थे तो उनकी किताबें पढ़ता रहता था। मुझ पर मेरी मां का भी प्रभाव पड़ा है। वो पढ़ने को बड़ी शौकीन थीं। जैसा मुझे बताया गया, उनके पिता ने उन्हें दहेज में सिर्फ किताबें और एक हारमोनियम दिया था। उनको लाइब्रेरी में बंकिम बाबू, रवीन्द्र नाथ, शरतचन्द्र आदि की किताबें थीं।

कॉलेज में आया तो वहां भी कार्यक्रम में भाग लेता। उन दिनों रेडियो नाटक का बढ़ा चलन था। कुछ अलग पहचान बनाने की कोशिश की तो आकाशवाणी में ड्रामा वॉइस बन गए। युववाणी में कम्पेरिंग का मौका मिला। कुछ कह नहीं सकता कि उन दिनों थिएटर को पहचानता था। शाम को यह हमारा टाइम पास था। भाग्य की बात है कि हमें यह टाइम पास मिला। फिर तो जैसे यह शौक़ हो गया कि सब मिल कर इकट्ठा हों और नाटक करें। हालांकि इसमें कोई पैसा नहीं मिलता था, बल्कि अपना खर्च ही होता था। ये मेरी थिएटर की समझ होने तक की यात्रा है।

राजीव बताते हैं कि मुझे ज्ञात नहीं है कि वो शौक्रिया रंगमंच था या कुछ और। हम कभी-कभी सुनते जरूर थे कि महाराष्ट्र समाज में कुछ नाटक होते हैं या जनसम्पर्क विभाग में भाऊ खिरवड़कर जी का नाट्य दल हुआ करता था। उसे देखने का मौका मिलता था। एक बार की बात है भोपाल में बड़ा चर्चा हुआ कि मुंबई से नाटक आया हुआ है। मुझे साफ़-साफ़ याद है ओम शिवपुरी का नाटक था ‘कंजूस’ उसके टिकट घर-घर जा कर बेचे गए थे। मेरे पिता पुराने भोपाल के जाने-माने लोगों में से थे। माननीय शरदजी स्वयं टिकट बेचने आए थे। तब से लगातार नाटक देखा करते थे। 1965 में एमएसीटी में आर्किटेक्ट विभाग में दाखिला लिया था। कॉलेज के सेकण्ड ईयर से नाटक करने का सिलसिला शुरू हो गया था। 1971-72 में मैंने आर्किटेक्चर से ग्रेजुएशन किया और इंदौर में नगर तथा ग्राम निवेश विभाग में असिस्टेंट डायरेक्टर के पद पर ज्वाइन किया। इंदौर में एक थिएटर ग्रुप था जिसके साथ मैंने नाटक करना शुरू किया। शाम को 5-5.30 बजे फ्री हो जाते तो इकट्ठा होकर नाटक करते थे। फिर ‘संवाद’ नाम से अपना थिएटर ग्रुप बनाया।  

1986 में मैं पहली बार बम्बई (अब मुंबई) गया। बम्बई भोपाल आना-जाना चलता रहा। इस बीच 1973-78 के बीच दफ्तर में सीनियर अफसरों ने मेरी कॉन्फिडेंशियल रिपोर्ट काफ़ी खराब की।

इसी दौरान म.प्र. कला परिषद ने विज्ञापन दिया कि कोई थिएटर पर्सन बव कारंत हैं, उनके मार्गदर्शन में एक थिएटर वर्कशॉप का आयोजन किया जा रहा है। यह दो-तीन माह की थी। हमने भी दो-चार दोस्तों के साथ फार्म भर दिया। इत्तिफ़ाक़ की बात है कि हमारा चयन भी हो गया। इसे मेरे थिएटर के जीवन की गंभीर शुरूआत मान लीजिए। वहाँ से समझ में आया कि थिएटर असल में होता क्या है। केवल दो-चार लोग इकट्ठे हो कर लाइन रट कर नाटक कर लेना ही थिएटर नहीं है। इसका नशा, शौक़ और ललक अलग ही चीज है। सही अर्थों में मेरी रंगयात्रा यहां से शुरू हुई। कारंत ने दो माह में हमें निर्देशन, मेकअप, स्टेज, क्राफ्ट, कास्ट्यूम, एक्शन की जानकारी दी।

कार्यशाला में दो नाटक तैयार किए गए। एक तो शंकर शेष का ‘एक और द्रोणाचार्य’ और राजस्थान के एक लेखक ‘मणि मधुकर का’। तीन शॉर्ट प्ले किए गए जिनमें मोहन राकेश का ‘छतरिया’ तथा उपेन्द्र कुमार अगधवाल का ‘कुड़े का पीपा’ शामिल है। शॉर्ट प्ले का मंचन कला परिषद की छत पर किया गया। वर्कशॉप और नाटक करने का वह अलग ही अनुभव था। क्राउड को कैसे ह्यूमन कर्टन की तरह इस्तेमाल करना, आवाज का इस्तेमाल किस तरह म्यूजिक की जगह करना, कॉस्टयूम, सेट डिजायनिंग सौखाई गई। कार्यशाला में कपिला वात्सायन, राममूर्ति, प्रेमा कारंत आदि भी आए थे। यहाँ से हमें शौकिया रंगकर्म का चस्का लगा और हमने संस्था बनाई रंग शिविर। इसी कार्यशाला में रीता भादुड़ी (अब पत्नी) से मुलाकात हुई

बाद में हमने तीन शार्ट प्ले और एक नाटक किया ‘पंछी ऐसे आते हैं।’ इसमें कारंतजी का अद्भुत प्रेजेंटेशन स्टाइल था। हम समझते थे कि मेकअप, सेट डिजाइन, सेट में बदलाव जैसी सारी चीजें पर्दे के पीछे होना चाहिए और दर्शकों को इनका आभास नहीं होना चाहिए। लेकिन कारंत ने अजीब प्रयोग किया। नाटक में मेरा मेकअप चेंज होता है, हीरोईन रीता का मेकअप बदलता है, सेट बदलता है लेकिन सबकुछ दर्शकों के सामने। काला गाऊन पहने एक मेकअप मेन आता है और दर्शकों के सामने मेरा मेकअप बदल देता है। यह बड़ा फेसीनेटिंग था कि ऐसा भी संभव है। दर्शकों के लिए भी यह अचंभा था।

साथ ही इक़बाल मजीद की अध्यक्षता वाली संस्था ‘दर्पण’ के साथ जुड़ कर नाटक किए। थिएटर में अक्सर बौद्धिक झगड़े बहुत होते हैं तो ग्रुप बनते रहे, बिगड़ते रहे। 1982 में रंगमंडल की स्थापना हुई। कारंत यहाँ निदेशक बन कर आए। उस समय हमें रंगमंडल से जोड़ा गया। हमें रंगमंडल से बड़ी आशाएं थी लेकिन हम इसके स्वरूप से सहमत नहीं थे। मुझसे जब राय ली गई तब मैंने सुझाव दिया था कि इसके बदले राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय की तर्ज पर कोई स्कूल प्रारम्भ करना चाहिए ताकि थिएटर को अपना कॅरियर बनाने का इच्छुक प्रदेश का टेलेंट यहाँ प्रशिक्षण ले और वही रंगमंडल में काम करे। हमारे यहाँ यही सबसे बड़ी खराबी है कि व्यक्ति विशेष की पसंद-नापसंद से जो भी शासकीय या अशासकीय संस्था बनती है, वह व्यक्ति विशेष के जाने के बाद बिखर जाती है। उसके क्रायदे-कानून तो होते नहीं है, व्यक्ति को पसंद-नापसंद से सब कुछ चलता है। हालाँकि इतना बजट था कि आराम से नाट्य विद्यालय खोला जा सकता था। तब तो बात सुनी नहीं गई और अब नाट्य विद्यालय की स्थापना की गई।

इस बीच कारंतजी को कुछ सूझा या मेरे ख्याल से किसी न किसी प्रेशर में थे जो उन्होंने कहा कि शौकिया रंगकर्मियों को लेकर कुछ काम करते हैं। उन्होंने प्रेमचंद का नाटक ‘कर्मभूमि’ किया जिसमें कलाकार सारे शौक्रिया रंगकर्मी थे और तकनीशियन उनके रंगमंडल के कर्मचारी। लेकिन इसके बाद ख़ासतौर से मेरी तो रंगमंडल से दूरी हो गई।

यूं तो राजीव वर्मा गजेटेड ऑफिसर थे लेकिन नौकरी में मन नहीं रमा। नाटक के शौक के लिए नौकरी छोड़ दी।  मुंबई में भी शूटिंग में व्‍यस्‍तता शौकिया रंगकर्म में बाधा बनने लगी तो मुंबई भी छोड़ कर भोपाल आ गए। लोगों के लिए ये फैसले चौंकाने वाले थे। मायानगरी में सफलता वैसे ही मुश्किल है। हाथ में आई सफलता को यूं कोई छोड़ा है भला लेकिन शौकिया रंगकर्म के लिए राजीव वर्मा भोपाल आ गए।

उनकी नाट्य संस्था ‘भोपाल थिएटर’ उनके रंगकर्म के शौक को पूरा करती रही है। हाल ही में वे ‘भोपाल थिएटर’ के नाटक ‘केक्‍टर्स फ्लावर’ के जरिए दर्शकों से रूबरू हुए। उनकी इस यात्रा में संगीत नाटक अकादमी अवार्ड एक सितारा भर है। इस यात्रा का वास्‍तविक ईधन तो दर्शकों के प्रेम और तालियों में छिपा है।

2 thoughts on “राजीव वर्मा: नौकरी छोड़ी, मुंबई छोड़ा मगर शौक न छोड़ा, आज पहुंच गए यहां

  1. आज इन्दौर स्मृति शेष रंगकर्मी प्रो सतीश मेहता की जीवन सखी ज्योत्सना मेहता से बतिया रहे थे। वहां सर्वश्री नरहरि पटेल, सारोजकुमार, संतोष जोशी, सुशील जौहरी और श्रीमती अंजुश्री मुखर्जी मौजूद थीं। श्री तपन मुखर्जी में आपका जिक्र करते हुए इंदौर में नाट्य संस्था संवाद का नाम लिया। ये भी बताया कि आपने और उन्होंने मिलकर इस रंगदल संवाद की स्थापना की थी। एक नाटक भी किया था (शायद सखाराम बाइंडर, ऐसा मुझे याद है)

    बहरहाल ! आपकी कला यात्रा में इंदौर भी एक
    महत्वपूर्ण पड़ाव है। प्रो डी एन मिश्राराज, नरहरि पटेल, एम एम कपूर, स्वतंत्र कुमार ओझा, भारत रत्न भार्गव, रणजीत सतीश, इंदु आनंद, लेखा मेहरोत्रा के साथ आपके कई रेडियो नाटकों की धूम थी। लीला रूपायन का लिखा नाटक एक मूरत एक संगमरमर आज कोई चालीस बरसों से विविध भारती से प्रसारित होता हैं जिसमें युवा राजीव वर्मा के खरज भरे स्वर कौशल का ठाठ सुनाई देता है।

    आपके रंगकर्म को मिला संगीत नाटक सम्मान नाट्य जगत के लिए अत्यंत सुखद है। ये पुरस्कार आपके रंगप्रेम और प्रतिबद्धता का अभिषेक है। इंदौर भी उसमें भी अपने आपको सम्मिलित महसूस करता है।

  2. बहुत पुरानी यादें मन को आनंदित कर गई।

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