सृजन

अहसास होता है, सच में हम शुतुरमुर्ग बने रहे हैं

सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार शांतिलाल जैन के हाल ही में प्रकाशित व्यंग्य संग्रह ‘… कि आप शुतुरमुर्ग बने रहें’ का हर व्यंग्य अपने आप में एक सामान्य विषय को बहुत रोचकता के साथ प्रस्तुत करने में सफल दिखाई पड़ता है।

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कबिरा सब जग निर्धना

धन स्वाभाविक रूप से इंसान को दरियादिल नहीं बनाता। यह रिश्ते बनाने का समय और अवसर दे सकता है, पर उन्हें बनाये रखने की स्पेस, इसके लिए आवश्यक समानुभूति और स्नेह नहीं खरीद सकता। अक्सर धन और उससे जुडी भागम-भाग लोगों को क्लांत, पलायनवादी, आत्मकेंद्रित और एकाकी बना डालता है।

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शरतचंद्र की सलाह, अनुभव लिखना, व्‍यर्थ की कल्‍पना के चक्‍कर में न पड़ना

मैदान मैं लड़नेवाले सिपाही को चुस्त-दुरुस्त रखने के लिए जिस प्रकार नित्य की कवायद बहुत आवश्यक होती है, उसी प्रकार लेखक के लिए उपरोक्त अभ्यास भी नितांत आवश्यक है।

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रचता है, वही तो बचता है

सृजनात्मकता अपने आपमें ही बड़ी कोमल वस्तु है। सही अर्थ में एक गहरे सृजनशील व्यक्ति के लिए आज का समय तरह तरह की अनिश्चितताओं और संदेहों से भरा हुआ है। फिर भी बात यही सच है कि जो रचेगा, आखिर में वही बचेगा।

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