ये रंग ए बनारस है…
बनारस, काशी, वाराणसी। जितने नाम, उतने उससे नाते। लाखों लोग यहां आते हैं और लौटते हैं तो अपना एक अंश यहीं छोड़ जाते हैं। साथ ले जाते हैं मन भर बनारस।
बनारस, काशी, वाराणसी। जितने नाम, उतने उससे नाते। लाखों लोग यहां आते हैं और लौटते हैं तो अपना एक अंश यहीं छोड़ जाते हैं। साथ ले जाते हैं मन भर बनारस।
जयेंद्रगंज, ढोली बुआ का पुल, इंदरगंज, हजीरा और मुरार में जैसे कोचिंग क्लासेस और गुरुजनों की बड़ी-छोटी दुकानें सज गईं। छात्र-छात्राओं का रेला दिन भर शहर की सड़कों पर भेड़ों की तरह भटकता रहता।
मुझे – 1.5 का चश्मा चढ़ेगा। चश्मा बनवाया गया। पता चला जिस बिल्डिंग की छत पर पढ़ने वाली को मैं लड़की समझता था, वो दरअसल एक लड़का था।
मैं भ्रमित था। जो पर्चा मैंने रात को देखा था, हूबहू वही मेरे सामने था। मुझे विश्वास नहीं हुआ, कुछ देर तक मैं इसी भ्रम में रहा कि मैं ठीक से पढ़ नहीं पा रहा हूं।
मेरे सामने पर्चा रखा गया, चाय और नाश्ता पेश किया गया और पांच जोड़ी आंखें मुझ पर केंद्रित हो गईं। मैंने किसी वकील की तरह, दस्तावेज पढ़ा, जो किसी एग्जाम के पर्चे की तरह नजर आता था और साइक्लोस्टाइलड था। उन प्रश्नों के जवाब खोजने में मुझे भी 3-4 घंटे लगे।
मेरी बैचैनी अब अवसाद की ओर बढ़ चली थी। लगता था, कि किसी तरह इस जिंदगी से छुटकारा मिले। मैंने पढ़ रखा था नीला थोथा (कॉपर-सलफेट) एक विष है। एक दिन मैंने एक मुट्ठी भर नीला थोथा चुरा लिया।
पापा जब शाम को ऑफिस से आते तब मैं किसी किताब को खोल कर बैठ जाता ताकि उन्हें सब बच्चे पढ़ते हुए मिलें और विश्वास कायम रहे कि, “all is well.” मां तो अपने कामों में व्यस्त रहतीं अतः उन्हें भी भनक नहीं लगी।
अचानक मां चिल्लाईं, “रोको, रोको…किसी ने मेरे कंधे पर बाहर से कुछ मारा है! या तो ऊपर से कुछ सामान गिरा है।” उस्ताद सहित सभी चौंक गए। ट्रक रोक दिया गया। छान-बीन हुई।
दोपहर के ठीक तीन बजे, 5 महिलाओं, 5 पुरुष, एक गाय, एक कुता, कोई एक दर्जन पौधों, और घरेलू सामान से लदा–फदा हमारा ट्रक-सह-बस रवाना हुआ। लेकिन मेरा उत्साह ठंडा पड़ चुका था।
मैंने पापा को वादा किया कि सामान की शिफ्टिंग के लिए ट्रक की व्यवस्था में करूंगा। अशोक-लेलैंड से भोपाल-ग्वालियर का रात का सफर मुझे बहुत रोमांचक लगा।