इस तरह मैं जिया-34: ‘गुप्ताजी के लड़के जैसे’ नंबर लाने का दबाव और दीदीयों की अखंड पढ़ाई
हर जीवन की ऐसी ही कथा होती है जिसे सुनना उसे जीने जितना ही दिलचस्प होता है। जीवन की लंबी अवधि सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में गुजारने वाले इस शृंखला के लेखक मनीष माथुर के जीवन की कथा को सुनना-पढ़ना साहित्य कृति को पढ़ने जितना ही दिलचस्प और उतना ही सरस अनुभव है। यह वर्णन इतना आत्मीय है कि इसमें पाठक को अपने जीवन के रंग और अक्स दिखाई देना तय है।
मनीष माथुर, सामाजिक कार्यकर्ता
ग्वालियर (1980-1984) :
हमारा परिवार पीढियों से नौकरीपेशा रहा। हम नगरीय प्राणी हैं। हम छुट्टियों में गांव नहीं जाते थे क्योंकि हमारा कोई गांव था ही नहीं। हम ग्वालियर जाते थे। सब बच्चों का भविष्य सिर्फ इस बात पर टिका था कि हम बोर्ड एग्जाम में और अपने स्नातक/स्नातकोत्तर में कितने प्रतिशत लाते हैं ताकि किसी अच्छी सरकारी नौकरी में जा सकें। UPSC अथवा SPSC में चयनित हो सकें। पर उस से भी बेहतर कि मेडिकल अथवा इंजीनियारिंग में सेलेक्ट हो जाएं ताकि ग्यारहवीं के बाद ही चिंता हटे और परिवार का सुकून और मान बढे।
गैर-सरकारी नौकरी वालों को हेय माना जाता। कस्बों और छोटे शहरों में वैसे भी इसका मतलब किसी सेठ की चाकरी करना ही कहते थे। हर मध्यम वर्ग और खासतौर पर नौकरीपेशा परिवार की अपने बच्चों से यही अपेक्षा रहती। पापा की मेरे प्रति चिंता स्वभाविक थी। तब पिता/मां की चिंता ही स्वाभाविक रूप से पूरे परिवार तथा नाते-रिश्तेदारों की साझी चिंता हो जाती थी।
किशोरावस्था में होने वाली तमाम कुंठाएं मेरी साथी थीं, जैसे; ‘काश मेरा कद भल्ला भाई या विकास जितना होता!’, ‘काश मेरे खोपड़ी पर घुंघराले बाल होते और मेरे कहे में होते!’, ‘काश मेरे अंदर इतनी डेयरिंग होती कि मैं लोकल दादाओं की धमकियों को चुनौती दे कर अक्खा थाटीपुर पे अपना दबदबा बनाता!’ ऊपर से बोर्ड एग्जाम में ‘गुप्ताजी के लड़के जैसे’ प्राप्तांक लाने का दबाव और मेरी दीदीयों की अखंड पढ़ाई से मेरी छुपा-छुप्पी वाली पढाई की तुलना।
दूसरी तरफ, मेरे स्थानीय दोस्तों को ये अंध-विश्वास था कि मैं एक पढ़ाकू छात्र हूं। जॉइंट स्टडी करना लड़कों में नया फैशन था, जिसमें ग्रुप के सबसे अमीर दोस्त का घर (जिसमें उसका अपना खुद का कमरा हो और सहायक सेवाएं जैसे पानी, चाय आदि की आपूर्ति निर्बाध रूप से चलती रहे) को जॉइंट-स्टडी के लिए चुना जाता। जय भाई इसके लिए उपयुक्त पाए गए थे। अतः चार-पांच मित्र, शाम को उनके घर धमक जाते (जय भाई के पिता PWD में कार्यपालन यंत्री /एग्जीक्यूटिव इंजीनियर थे)। बड़ा सा सरकारी बंगला था जिसमें जय का अपना बड़ा कमरा था।। बच्चों की पढ़ाई निर्विघ्न हो इसके लिए नौकर-चाकर तैनात रहते।
मैं इस दल का सदस्य नहीं था। मैंने अपने घर के एक नियम को जरूर अपनाया कि पेपर के पहले दिन-रात एक कर दो, पर उस की पूर्व निशा पर भरपूर नींद लो, ताकि जब एग्जाम में बैठो तो दिमाग और शरीर तारोताजा रहे। पहला पर्चा रसायन शास्त्र (अकार्बनिक) का था। उसकी पूर्व संध्या को लगभग 6.30 बजे विकास और जय मेरे द्वारे आए। जय के पास एक वेस्पा स्कूटर भी उपलब्ध था। विकास ने जयघोष किया, पेपर आ गया है, तुमसे कोई पैसे नहीं लेंगे। बस, हमें पर्चे में पूछे गए प्रश्नों के उत्तर कहां मिलेंगे, ये बताने के लिए एक घंटे में जय के घर पहुंचो। जॉइंट-स्टडी करेंगे और रात 2–3 बजे तक सब फ्री हो जाएंगे। योजनानुसार उस रात मुझे सोना था। मैं पिछली दो रातों जाग चुका था। ये विषय मेरा थोड़ा पढ़ा हुआ था। बड़ी दीदी से सलाह ली।
उन्होंने पूछा, “तुम्हारा रिवीजन हो गया?”
मैंने कहा, “जी हो गया।”
दीदी, “मुझे तो नहीं लगता कि बोर्ड के पर्चे बाजार में बिकते होंगे। किसी कोचिंग वाले ने गैस पेपर दिया होगा। देख लेने में कोई बुराई नहीं। पर ज्यादा देर मत लगाना।”
ठीक एक घंटे बाद, जय फिर अपने स्कूटर पा सवार द्वार पर खड़े नजर आए। उनकी आंखों में कुछ पाने की खुशी तैर रही थी। मैं जय के स्कूटर पर सवार हुआ और उनके घर पहुंचा, जो मेरे घर से लगभग एक किलोमीटर की दूरी पर था। जय के कमरे को देख मैं दंग रह गया। बड़ा सा हालनुमां वातानुकूलित कमरा। दूधिया प्रकाश बिखेरते हुए 4-5 बल्ब्स अथवा ट्यूब-लाइट्स और तमाम कुर्सियों पर मेरा इंतजार करते 5 विद्यार्थी। सब कोचिंग क्लास के मित्र थे। उनकी स्कूल और कोचिंग भी उन्हें यह विश्वास दिलाने में कामयाब नहीं हो पाई कि किसी सवाल का जवाब कहां मिलेगा। मैं (जो कि उनकी नजर में पढ़ाकू था) उनके लिए एकमात्र आशा की किरण था। परंतु उस कमरे का माहौल किसी रेस्तरां जैसा था जहां दोस्त मौज-मजा करने के लिए जमा हुए थे।
मेरे सामने पर्चा रखा गया, चाय और नाश्ता पेश किया गया और पांच जोड़ी आंखें मुझ पर केंद्रित हो गईं। मैंने किसी वकील की तरह, दस्तावेज पढ़ा, जो किसी एग्जाम के पर्चे की तरह नजर आता था और साइक्लोस्टाइलड था। उन प्रश्नों के जवाब खोजने में मुझे भी 3-4 घंटे लगे। उस दरमियान मेरी सेवा-सत्कार में कुछ कमी नहीं छोड़ी गई। चाय, नाश्ता, खाना आदि प्रस्तुत किए गए। ये सेवाएं सभी मेहनती छात्रों को उपलब्ध थीं।
बहरहाल रात लगभग 2 बजे मैं वापस आया। एग्जाम सुबह 7 बजे से थी। अतः अब सोने की गुंजाइश कम थी।
हर नर्मदे! अपना ख्याल रखिए और मस्त रहिए। जारी…
इस तरह मैं जिया-1: आखिर मैं साबित कर पाया कि ‘मर्द को दर्द नहीं होता’
इस तरह मैं जिया-2: लगता था ड्राइवर से अच्छी जिंदगी किसी की नहीं…
इस तरह मैं जिया-3: हम लखपति होते-होते बाल-बाल बचे…
इस तरह मैं जिया-4: एक बैरियर बनाओ और आने-जाने वालों से टैक्स वसूलो
इस तरह मैं जिया-5: वाह भइया, पुरौनी का तो डाला ही नहीं!
इस तरह मैं जिया-6: पानी भर कर छागल को खिड़की के बाहर लटकाया…
इस तरह मैं जिया-7: पानी भरे खेत, घास के गुच्छे, झुके लोग… मैं मंत्रमुग्ध देखता रहा
इस तरह मैं जिया-8 : मेरे प्रेम करने के सपने उस घटना के साथ चूर-चूर हो गए
इस तरह मैं जिया-9 : हमने मान लिया, वो आंखें बंद कर सपने देख रहे हैं
इस तरह मैं जिया-10 : हमारे लिए ये एक बड़ा सदमा था …
इस तरह मैं जिया-11: संगीत की तरह सुनाई देती साइकिल के टायरों की आवाज
इस तरह मैं जिया-12: मैसेज साफ था, जान-पैचान होने का मतलब यह नहीं कि तू घुस्ताई चला आएगा
इस तरह मैं जिया-13 : एक चाय की प्याली और ‘दीमाग खोराब से ठोंडा’ हो जाता
इस तरह मैं जिया-14 : तस्वीर संग जिसका जन्मदिन मनाया था वह 40 साल बाद यूं मिला …
इस तरह मैं जिया-15 : अगर कोई पवित्र आत्मा यहां से गुजर रही है तो …
इस तरह मैं जिया-16 : हम उसे गटागट के नाम से जानते थे …
इस तरह मैं जिया-17 : कर्नल साहब ने खिड़कियां पीटना शुरू की तो चीख-पुकार मच गई
इस तरह मैं जिया-18 : इतनी मुहब्बत! मुझे ऐसा प्रेम कहीं ना मिला
इस तरह मैं जिया-19 : एक दुकान जहां सुई से लेकर जहाज तक सब मिलता था
इस तरह मैं जिया-20 : मेरी बनाई झालर से झिलमिलाता था घर, कहां गए वे दिन?
इस तरह मैं जिया-21 : नायकर साहब पहले ही राउंड में बाहर हुए तो बुरा लगा
इस तरह मैं जिया-22 : … उसने जयघोष करते हुए परीक्षा हॉल में खर्रे बिखेर दिए
इस तरह मैं जिया-23 : फेंके हुए सिक्कों में से उनके हाथ 22 पैसे लगे…
इस तरह मैं जिया-24 : आई सा ‘मस्का-डोमेस्टिका’ इन माय रूम
इस तरह मैं जिया-25 : तब ऐसी बोलचाल को मोहब्बत माना जाता था
इस तरह मैं जिया-26 : बाल सेट करने का मतलब होता था ‘अमिताभ कट’
इस तरह मैं जिया-27 : जहां नर्मदा में नहाना सपड़ना था और शून्य था मिंडी
इस तरह मैं जिया-28 : पसंदीदा ट्रक में सफर का ख्याल ही कितना रोमांचक!
इस तरह मैं जिया-29 : दो बजे भी तिरपाल कस गई तो 6 बजे भोपाल पार
इस तरह मैं जिया-30 : “हे भगवान, इन सबका टिकट कंफर्म करवा दो,प्लीज”
इस तरह मैं जिया-31 : मैंने अशोक लेलैंड को आंखों से ओझल होने तक निहारा!
इस तरह मैं जिया-32 : मां पूछती, दिन कैसा गया?, मैं झूठ कह देता, बहुत अच्छा
इस तरह मैं जिया-33 : बेचैनी बढ़ रही थी, लैब से नीला थोथा उठाया कर रख लिया…
आपके अनुभव पढ़ते हुए जैसे सब कुछ सामने दिखता है।संभ्रांत मां,पढ़ाकू दीदियां, शरारती दोस्त ,और भी कितना कुछ….सारी छवियां एकदम से साकार होती हैं।🙏