हमारे लिए ये एक बड़ा सदमा था …

मनीष माथुर, सामाजिक कार्यकर्ता

फोटो: मणि मोहन

माना कैंप (रायपुर): 1975–1977

गिलहरियों को आए अभी चौथा दिन था। बच्चों की आंखें अभी भी बंद थीं। हमने उनका नाम कट्टो और बत्त्तो रखा। रोज की तरह, सुबह मैं उन्हें कटोरी चम्मच से दूध पिलाने आया और बच्चों की उछलकूद में दूध उनके ऊपर छलक गया। अब गीले कपड़ों के बिस्तर में, भीगे बदन बच्चों को छोड़ना ठीक नहीं था, अतः उन्हें मुलायम कपडे से पोछा गया। जब मैंने गीला रूमाल कट्टो की आंख पर फेरा तो अचानक हमारी आंखे तीन हुईं और दूसरी पर फेरते ही, चार हुईं। ऐसा ही उसकी सहोदर के साथ हुआ।

कुछ ज्ञान मिला कि संभवतः मां गिलहरी, बच्चों को चाट कर ही उन्हें दुलारती होगी और इसी प्रकिया में उनकी आंखें खोलती होगी। बच्चों की उछलकूद अब बढ़ गई थी। शाम को, अब हम उनकी टोकरी बाहर लाते ताकि समय आने पर वे स्वतंत्र होकर अपना जीवन जियें। कच्चे आंगन में एक-दो खाट डाल दी जातीं और हम भाई-बहनें शाम की ठंडी हवा का आनंद लेते। बच्चे हमारे ऊपर खेलते।

कट्टो ज्यादा नटखट थी। उसने आसपास का जायजा भी लेना शुरू कर दिया था। एक शाम वह हमारी गोद से उछल कर आंगन में कूद गई। अंधेरा गहरा गया था। मेरी दीदी ने जैसे ही नीचे कदम रखा, वह उसके कदम के नीचे आ गई। नन्ही सी जान उस 40 किलो के वजन में दब गई और स्वर्ग सिधार गई। हमारे लिए ये एक बड़ा सदमा था।

बत्त्तो को संभवतः यह बड़ा सदमा था। वह घर-आंगन में अपने सहोदर को ढूंढती और परेशान दिखती। एक दिन वो गायब हो गई। उसकी आवाज हमें सुनाई दे रही थी परंतु वह दिखी नहीं। हमने सोचा, कि वह अब पेड़ों पर जा बसी होगी पर इन जीवों को, जीने का कौशल मां ही सिखा सकती है। दीपावली की सफाई में उसकी देह, मुझे गोदरेज की अलमारी के ऊपर मिली। हम दोनों बच्चों को संभाल नहीं सके।

माना में ही मुझे साइकिल चलाने का भूत चढ़ा। हमारे पास तब साइकिल भी नहीं होती थी। मैं किराये की साइकिल ले के पूरा माना घूमता। शुरुआत पहले कैंची साइकिल, हॉफ पेडल से हुई। किराया उस समय 25 पैसे प्रति घंटा होता था। मेरे पापा के एक लिपिक थे, जिनके पास Hercules cycle थी। मैं उनके पास जाता और उनकी साइकिल लेकर, नहर के किनारे चलाता।

होली आई और सार्वजनिक होलिका दहन नहर के पास ही हुआ। दहन के होलिका की राख दो-तीन दिन तक गरम रहती थी। उस दिन जब मैं नहर से उतरता हुआ, नीचे आया तो सीधा उस होलिका के आंचल में समा गया। होलिका की गरम राख में घुसने के कारण मेरा घुटना फूट गया। घर पहुंचने पर अरुण भैया बोले, “तेरा क्या होगा रे गोरिया?” काफी दिनों तक मैंने उस घाव को छुपा कर रखा। फिर उस घाव से बदबू आने लगी और मुझे तेज बुखार चढ़ गया। तेज बुखार के कारण डॉक्टर साहब को तलब किया गया और उन्होंने इस तेज बुखार का कारण जाना। आखिर उनके उपचार से मैं ठीक हुआ।

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