रेल यात्रा की व्यथा को दिखाते हुए टॉक थ्रू की शृंखला जारी है। हमारे सहभागी लेखक और पाठक भी अपने अनुभव साझा कर रहे हैं। यह आपबीती रेलयात्रा में मिले अच्छे-बुरे अनुभवों पर है।
आइए, बतौर नागरिक हम एक पहल करें। एक चर्चा की शुरुआत करें। रेलयात्रा की अपनी कथा-व्यथा को साझा करें। शायद हमारी बात कुछ कानों तक पहुंचे और जिस बदलाव की हम बात कर रहे हैं वह संभव हो सके। इस विमर्श की शुरुआत ऐसी ही एक व्यथा कथा से। आप अपने अनुभव, प्रतिक्रिया और राय हमसे साझा कर सकते हैं। हमारा ठिकाना: editor.talkthrough@gmail.com
वे धड़धड़ाते हुए आए और उड़ा दी सबकी नींद
– आरबी त्रिपाठी
लेखक स्तंभकार हैं।
बहुत ज्यादा वक्त नहीं बीता। हम सोमनाथ- जबलपुर ट्रेन से अहमदाबाद जंक्शन से भोपाल के लिए बैठे थे। सेकंड एसी कोच में माना जाता है कि ज्यादा भीड़भाड़ नहीं होगी और सह यात्री भी ठीक-ठाक ही होंगे। थर्ड एसी की हालत भी अब स्लीपर कोच की तरह हो गई है और स्लीपर से सफर और भी गया-गुजरा हो गया है। अपन को एसी का मोह नहीं बल्कि सुकून से सफर कटे यह उद्देश्य रहता है।
हमारे सामने की बर्थ पर एक बुज़ुर्ग दम्पती बैठे हुए थे जो सोमनाथ के दर्शन कर रीवा लौट रहे थे। ट्रेन आगे बढ़ी और धीरे-धीरे सोने के समय तक अधिकांश यात्री अपनी बर्थ पर पहुंच चुके थे। आधी रात के बाद गुजरात के ही किसी स्टेशन से उज्जैन के एक परिवार के कोई आधा दर्जन लोग इसी कोच में चढ़े। इनमें एक नव दम्पती भी थे। वे किसी रिश्तेदार के यहां आये हुए थे। इनमें से एक युवक ने उन जगहों की सारी लाइट ऑन कर दी। इसके चलते सोये हुए यात्रियों की नींद में खलल पड़ा। कई लोग युवक के ऐसा करने पर बड़बड़ाते रहे जिसका कोई असर उस युवक और उसके साथियों पर नहीं पड़ रहा था।
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तभी उन बुज़ुर्ग ने उस युवक को लगभग ललकारते हुए डांटा कि वो लाइटें जलाकर अपनी धमाचौकड़ी से अन्य सोये यात्रियों को परेशान क्यों कर रहा है। शांति से अपनी बर्थ लेकर सो क्यों नहीं जाता? इतना सुनकर उस युवक ने तमतमाते चेहरे से उन बुज़ुर्ग दम्पती को डराया धमकाया। सह यात्रियों द्वारा समझाने बुझाने पर भी उसने किसी की एक ना सुनी। अंतत: टीसी के आने पर और समझाने पर वह शांत हुआ।
आश्चर्य की बात थी कि सेकंड एसी कोच में जीआरपी का कोई जवान नहीं था और पास के अन्य कोच में भी नहीं। जिन पर यात्रियों की जानमाल की हिफाज़त की जिम्मेदारी रहती है। उज्जैन में तड़के चार-पांच बजे के बीच उतरने पर भी उनके रवैये में कोई फर्क नहीं आया था।
एक और वाकया याद आ रहा है। कुछ समय पूर्व भोपाल से जयपुर जाने के लिए जयपुर-चेन्नई ट्रेन में रिजर्वेशन नहीं मिलने पर भोपाल-जोधपुर ट्रेन में बमुश्किल स्लीपर में कंफर्म टिकट मिला। भोपाल जंक्शन से लड़कों का एक ग्रुप सवार हुआ था। आपसी बातचीत और साजोसामान ने पता चला कि वे खिलाड़ी है। थोड़ी देर बाद ही वे लोग अपनी अजीबोगरीब हरकतों से यात्रियों को परेशान करने लगे थे। टीसी द्वारा टिकट चेकिंग के बाद उन्होंने बर्थ के ऊपर लगे पंखों पर अपने गंदे जूतों और मौजों को टांग दिया जिनसे हवा के साथ बदबू फैलने लगी थी। कोच में अन्य बर्थ पर बैठे लड़कों ने भी ऐसी ही करतूत दिखाई। उनके इस असह्य व्यवहार से तंग आ चुके हम यात्रियों ने इसका मुखर होकर विरोध और पहले उनके साथ चल रहे स्पोर्ट्स कोच और बाद में टीसी को बुलाकर उनकी हरकतों को रुकवाया लेकिन अगली सुबह तक ट्रेन में उनकी मटरगश्ती चलती रही।
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इस रुट पर शायद ही कोई स्टेशन रहा होगा जहां यह रेलगाड़ी (बैलगाड़ी जैसी चाल) रुकी ना हो। इस अनुभव से हमने तय कर लिया था कि कितना भी जरूरी हो ऐसी ट्रेन से सफर से तौबा कर ली जाये। उसके बाद की यात्राएं जयपुर चेन्नई और भोपाल जयपुर ट्रेन (अजमेर होकर) ही की गई।
सबसे अच्छी सुखद यात्रा का अनुभव भोपाल से मुंबई, भोपाल से मैंगलोर (कर्नाटक) और भोपाल से जगन्नाथपुरी का रहा। इन यात्राओं में सेकंड एसी में संभ्रांत और मिलनसार सह यात्रियों का व्यवहार यादगार रहा। यहां तक कि मुंबई के एक सह यात्री परिवार से मित्रता हुई जो आगे भी निरंतर रही। साफ-सफाई की दृष्टि से भोपाल से रीवा जाने वाली रीवांचल ट्रेन को पूरे नंबर देना चाहूंगा।
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हालांकि, रेल यात्राओं के दौरान कुछ लोग ऐसे भी मिलते हैं जो सह यात्रियों का ख्याल रखते हैं और अंजान होते हुए भी बातचीत से बहुत सारी बातें शेयर भी कर लेते हैं लेकिन वे अपवाद स्वरूप ही होते हैं। इसके विपरीत ज्यादातर लोग ऐसे मिलते हैं जो ख्याल रखना तो दूर परेशानी ही खड़ी करते हैं। सामान रखने की जगह पर भी पहले से कब्जा जमाये रहते हैं। दिन के समय बैठने वाली सीट उन्हें शेयर करना नागवार लगता है वे अपने पैर फैलाकर सीट घेरे रहते हैं।
पठानकोट एक्सप्रेस से बंबई (उस वक्त यही नाम था) की पहली यात्रा का सुखद अनुभव सदैव स्मरणीय रहेगा। इस सफर में एक फिल्म अभिनेता (चरित्र भूमिका वाले) का परिवार भी हमारे साथ की बर्थों पर बंबई जा रहा था। वे लोग बातचीत में इतना खुले कि नाम पता ही नहीं बंबई जाने की वज़ह भी पूछ ली। मेरी यात्रा एक इंटरव्यू के लिए थी जिसमें एक्सप्रेस ग्रुप की पहली हिंदी पत्रिका ‘हिन्दी एक्सप्रेस’ के लिए भोपाल से मुझे बुलाया गया था। सुप्रसिद्ध व्यंग्य लेखक शरद जोशी ने नरीमन पाइंट स्थित एक्सप्रेस भवन में साक्षात्कार लिया। मेरे लेखन के नमूने देखे और जोर इस बात पर रहा कि हम बुलाते हैं तो रहोगे कहां। बंबई में उस दौर में भी रहना बहुत महंगा था। शायद यही वजह रही कि अपने जीवन की धारा ही बदल गई और प्रायवेट, सेमी गवर्नमेंट सेक्टर के बाद गवर्नमेंट जॉब में आना पड़ा। बंबई में ठौर ठिकाना होता तो शायद कुछ और ही आजीविका का क्षेत्र बनता। खैर…भाग्य में क्या बंधा होता है किसी को पता नहीं होता।
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सबसे ज्यादा डरावनी रेल यात्रा कोरोना काल के ठीक बाद की सतना और चित्रकूट की रही जिसमें एसी में भी ओढ़ने-बिछाने का साथ ले जाना आवश्यक था। फिर भी सर्दी-जुकाम खासी वाले यात्रियों से भय ही लग रहा था। लोग एक दूसरे को भयभीत होकर घूर रहे थे। मास्क और सेनिटाइजर का उपयोग करने पर भी पास से गुजरने वाले हर शख्स से अज्ञात भय लगता था।
फिर भी रोजाना रेल के जरिए लाखो लोग यात्रा कर एक छोटे भारत का दृश्य दिखाते हैं। भले ही रेलवे प्रायवेटाइजेशन के रास्ते पर बढ़ता जा रहा है लेकिन अर्थ व्यवस्था में इसका अहम रोल है इससे इंकार नहीं किया जा सकता है।
सार-गर्भित वर्णन. सहमत.
श्री त्रिपाठी जी,
गौर से देखा जाए तो आपके, मेरे या सब के अनुभव एक ही प्रजाति के हैं. “व्यवहार सम्बन्धी”.
एक मेहमान (या बोलचाल की भाषा मैं सवारी) के तौर पर हमारा व्यवहार कैसा होता है? विशेष तौर पर समूह में??
शराब पी कर गाड़ी में चढ़ना, on train सेवन करना चौंकाता नहीं है.
लोग बिला-शिकन, अपने पानी की आधी बोतल, चिप्स के रैपर सीट, टेबल पर छोड़ कर उतर जाते हैं. वाश-बेसिन गुटके के मलबे से चोक करना, टॉयलेट सीट के आस-पास गंदे टिशु फेकना भी सामान्य है.
जब तक हमें व्यक्तिगत परेशानी न हो, हम भी चद्दर ओढ़ सो जाते हैं, या स्मार्ट फोन पर लग जाते हैं.
हम एक मेहमान अथवा जिम्मेदार उपभोक्ता की तरह व्यवहार नहीं करते.
IRCTC का चलित – दल (coach – attendant, pantry – vendors, सफाईकर्मी आदि): जहाँ vendors आपको चौबीस घंटे चाय पिलाने को तत्पर रहेंगे, वहीं बाकी दो को, जरूरत पड़ने पे खोजना पड़ेगा.
रात के एक बजे भी वे गलियारे से, तेज आवाज में टेर लगाते, आपस में बातें करते, हिसाब-किताब के ऊपर लड़ते हुए गुजरेंगे. डब्बे के दोनों छोर उनके विश्राम स्थल अथवा meeting point होते हैं, जहां सभी यात्री शौचालय, कचरे का डब्बा अथवा वाश-बेसिन का उपयोग करने आते हैं.
वे एक जिम्मेदार सेवा-प्रदाता के रूप में व्यवहार नहीं करते.
कंडक्टर साहेब एक बार टिकट जांच कर अपने साथी सह-कर्मिओं के साथ किसी AC – 1 के कूपे अथवा २ टियर में, अपने स्मार्ट फ़ोन पर व्यस्त हो जाते हैं. अगर आपको उनसे कोई सहायता चाहिए भी, तो संकट के वक्त उन्हें ढूढेंगे कहाँ?
वे भी एक जिम्मेदार सेवा-प्रदाता के रूप में व्यवहार नहीं करते.
मेरी एक मित्र कहना है, कि एसा व्यवहार हमारे स्वार्थी होने को दर्शाता है.
चर्चा शुरू करवाने का talkthrough को साधुवाद.
मनीष