इस तरह मैं जिया-6: अरे दीदी, छोटे बच्चों के लिए, क्या हम इतना भी नहीं कर सकते?
हर जीवन की ऐसी ही कथा होती है जिसे सुनना उसे जीने जितना ही दिलचस्प होता है। जीवन की लंबी अवधि सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में गुजारने वाले इस शृंखला के लेखक मनीष माथुर के जीवन की कथा को सुनना-पढ़ना साहित्य कृति को पढ़ने जितना ही दिलचस्प और उतना ही सरस अनुभव है। यह वर्णन इतना आत्मीय है कि इसमें पाठक को अपने जीवन के रंग और अक्स दिखाई देना तय है।
मनीष माथुर, सामाजिक कार्यकर्ता
माना कैंप (रायपुर): 1975–1977
उन दिनों मेल/एक्सप्रेस गाड़ियों तथा कुछ चुनिंदा पैसेंजर में, एक प्रथम श्रेणी का डब्बा लगता था। मेरी उसमें यह पहली यात्रा थी। दो खिड़की। एक पापा के लिए आरक्षित। दूसरी के छह दावेदार। यात्रा की शुरुआत ही युद्ध से होना तय था। फिर विजेता का अट्टहास, घायलों के क्रंदन, शिकायतकर्ताओं के धरने-प्रदर्शन का अंत, पापा की गुर्राहट से होता। मां की शिकायत रहती, “दो मिनट चैन से बैठने नहीं देते।” कुछ देर कानून-व्यवस्था बनी रहती।
अपने छह खाते-पीते बच्चों को ध्यान रख उनके steel के एक पांच मंजिला टिफिन कैरियर, एक गोल डब्बा तथा अन्य संगतकार डब्बों में पर्याप्त आपूर्ति उपलब्ध होती। साथ ही होती एक सुराही। इस बार एक अतिरिक्त व्यवस्था थी, छागल की जिसे कुछ दिन पहले तैयार किया गया था। उसमें पानी भर कर एक खिड़की से बाहर लटकाया गया, ताकि छत्तीसगढ़ की गर्मी में, हमें ठंडा पानी मिले। छोटे भाई हेतु जो उस समय कोई साढ़े तीन साल का रहा होगा, थर्मस में दूध भी था।
गाड़ी किसी स्टेशन पर रुकी। मां ने सामने प्लेटफार्म, पर चाय बनाते सज्जन को आवाज दी, “भैया, जरा बच्चे के लिए दूध गरम कर देना।” वो महाशय तुरंत अपनी चाय का बर्तन उतार कर लपकते हुए आए। दूसरे बर्तन में दूध गरम कर, थर्मस में वापस भर कर पुनः उपस्थित हो गए। मां ने उन्हें कुछ पैसे देने चाहे, उन्होंने हाथ जोड़ लिए। बोले, “अरे दीदी, छोटे बच्चों के लिए, क्या हम इतना भी नहीं कर सकते?”
अब जब मैं, बच्चों के साथ यात्रा पर जाता हूं तो हमारा सामना गला फाड़ चिल्लाते vendors से होता है और उनके पास दम भरने की फुर्सत नहीं होती। यात्रियों की सहायता के लिए अपितु एक “यात्री सहायता केंद्र” प्लेटफार्म नंबर 1 पर अवश्य होता है जो मोटे तौर पर निर्जन पाया जाता है। यदि वहां GRP के जवान या वालंटियर्स मौजूद मिल भी जाएं तो भी आपके बच्चे के लिए दूध गरम नहीं कर सकते। रहा सवाल भाप के इंजनों का, वो रहे नहीं जो आधा-आधा घंटा, पानी और कोयला लोड करने के लिए खड़े रहते थे ताकि बच्चे के लिए दूध गरम हो सके।
इसी यात्रा में, पापा गरम-गरम मंगौड़े लेने नीचे उतरे। भुगतान कर वो मुड़े ही होंगे कि ट्रेन चल पड़ी। जिस दरवाजे से वे उतरे थे, आगे बढ़ चुका था। दूसरे दरवाजे पर लटके, पता पड़ा अंदर से लैच बंद है। दो दीदीयां पापा चिल्लाते हुए रो पड़ीं। मैं दरवाजे पर पहुंचा, हैंडल घुमाऊं पर वो खुले ना। दूसरे कूपे में बैठे एक सहयात्री ने मदद की। उन्होंने ऊपर का लैच खोला, पापा उन्हें धन्यवाद देते हुए अंदर आए। सबने राहत की सांस ली। मैंने देखा, मंगौड़े का ठोंगा उनके हाथ में सुरक्षित था। मैंने शांति की दूसरी सांस ली। पापा ने आते ही, अरे गरम-गरम हैं, फटाफट आ जाओ कह कर उस घटना से ध्यान हटाने की कोशिश की। परंतु सबने समझ अनुसार उन्हें कुछ न कुछ कहा।
“पहली बात आप उतरे क्यों? और जब ट्रेन चल पड़ी तो आपने पैकेट छोड़ा क्यों नहीं?” मां ने कहा।
हर यात्रा हमें बहुत कुछ सिखाती भी है। उन दिनों भाप के इंजन होते थे, जो धीरे गति पकड़ते थे। पर साथ ही संभवतः दरवाजों की रैलिंग्स और सीढियां भी इतनी उपयोगकर्ता मित्र न होती होंगी!
अगले दिन सुबह-सुबह हमारी गाड़ी रायपुर पहुंची। स्टेशन पर एक जीप, जिस पर सामने ‘भारत–सरकार’ तथा पीछे ‘दाहिने चालक’ लिखा हुआ था ड्राइवर साहब समेत मौजूद थी। स्टेशन से निकल एक बड़े से तालाब के किनारे से होती हुई जगदलपुर रोड पर चल बड़ी। चालक महोदय ने बताया, माना कैंप यहां से 18 किलोमीटर है। सफर की थकान और सुबह की शीतल हवा ने अपना काम किया। जीप पर सवार समस्त लड़ाके सो गए…।
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आज के समय मे दुर्लभ हो गया जो कल तक सहज था । दूध गर्म करके बहन जी को देने का दृश्य आ गया और कोई आश्चर्यजनक बात भी नहीं लगी ।