ये कैसा समाज: Paris Olympics 2024 में पदक की उम्मीदें मगर बच्चों के लिए खेल मैदान तक नहीं
आलेख एवं फोटो: पूजा सिंह
स्वतंत्र पत्रकार
छोटे-छोटे बंद कृत्रिम मैदानों यानी टर्फ में खेल रहे बच्चे न खेल का आनंद ले पाते हैं और न ही जिंदगी के जरूरी सबक सीख पाते हैं। बच्चों का बचपन बचाने और उन्हें सामाजिक नागरिक बनाने के लिए खेल के मैदान बहुत अहम हैं।
खुला हरी घास का मैदान
उसमें खेलते बच्चे
हल्की बारिश में भीगते, फिसलते बच्चे
एक दूसरे का हाथ थामकर उठते बच्चे
एक दूसरे की पीठ पर धप्पा मारकर भागते बच्चे
हंसते बच्चे-खिलखिलाते बच्चे।
कुछ वर्ष पहले तक हमारे आसपास ये नजारे इतने आम थे कि इन पर नजर भी नहीं ठहरती थी। अब इनकी याद आती है। क्यों आती है? क्योंकि ये दृश्य अब अनुपस्थित हैं। जीवन के इस सबसे असली रंग की जगह भी नकलीपन ने ले ली है।
कृत्रिम घास के मध्यम आकार के मैदान जिन पर एक काफी ऊंची छत है। बारिश का मौसम होने के बावजूद बच्चे उनमें भीग नहीं रहे हैं और आराम से फुटबॉल खेल रहे हैं। मैदान के चारों ओर मेटल की एक जाली है जिसके बंद घेरे में बच्चे खेल रहे हैं। घेरे के बाहर लगी बेंच पर उनकी मांएं बैठी हैं और उन्हें खेलते हुए देख रही हैं। बच्चे मस्ती में हैं और मांओं की आंखों में स्नेह, ममता और पुलक का भाव है।
देश के छोटे-बड़े शहरों में अब यह एक आम सा दृश्य है जो किसी को परेशान नहीं करता। बच्चों के खेलने की जगह कम जो हो गई है। क्या हमें इस दृश्य से परेशान नहीं होना चाहिए? बॉब मार्ले का एक मशहूर कथन है-
“कुछ लोग बारिश को महसूस करते हैं। बाकी लोग बस भीगते हैं।”
टर्फ में खेल रहे ये बच्चे न सिर्फ भीगने से बच रहे हैं बल्कि वे बारिश को महसूस करने से भी बच रहे हैं। बारिश तो केवल एक रूपक है। बारिश को महसूस करने का असली अर्थ है जीवन के छोटे-छोटे सुखों से आनंदित होना, विपरीत परिस्थितियों से जूझने का हौसला पैदा करना। जिंदगी के हर पल को खुलकर जीना। अपने अनुभवों के आधार पर अपना जीवन आगे बढ़ाना।
ये बच्चे ड्राइवर या मां के साथ एक बंद गाड़ी में आते हैं। छोटे से टर्फ के भीतर रोबोट की तरह एक घंटे खेलते हैं और समय पूरा होने की व्हिसल बंद होते ही यंत्रवत वापस लौट जाते हैं। खुले मैदान में खेलते हुए वे सीख पाते कि बारिश की बूंदों का चेहरे पर स्पर्श कैसा लगता है? तेज बारिश के थपेड़ों से जूझते हुए छायादार जगह की तलाश में कैसे भागा जाता है? कैसे पीछे छूट गए या फिसलकर गिर गए एक साथी का हाथ पकड़कर उसे अपने साथ बारिश से बचाया जाता है।
ये बच्चे जिंदगी के इन तमाम सबक से दूर हैं। वे दोस्ती के सुख से दूर हैं, प्रकृति की करीबी से दूर हैं, सीखने के अवसरों से दूर हैं। बच्चों को ऐसा बचपन नहीं देना चाहिए लेकिन ऐसा शौक से तो नहीं किया जा रहा है? यह एक ऐसी समस्या है जो दिनोंदिन बढ़ती ही जा रही है।
अखबार उन इश्तहारों से भरे होते हैं जिनमें तमाम कंपनियां और बिल्डर्स लोगों को ये सब्जबाग दिखा रहे होते हैं कि आप इतने पैसों में अपना आशियाना बना सकते हैं। शहर में अपना एक घर हो, यह चाहत तो हर परिवार की होती है और इस चाहत का भावनात्मक दोहन करने वालों की भी कमी नहीं है। कभी सोचकर देखिए इन धड़ाधड़ बन रहे फ्लैट्स और डुप्लेक्स की आर्थिक कीमत तो हम मां-बाप चुका रहे हैं लेकिन इनकी सामाजिक और मानसिक कीमत हमारे छोटे बच्चों को चुकानी पड़ रही है।
ऐसे दृश्य आम हैं कि आज जहां हरे-भरे खेत और बगीचे लहलहा रहे हैं वहां आपको चंद रोज बाद कंस्ट्रक्शन होता दिखाई देता है और देखते ही देखते एक ऊंची रिहाइशी इमारत खड़ी हो जाती है। ऐसी तमाम इमारतों में अन्य सुरक्षा मानकों या बिल्डर के अधूरे वादों की बात तो छोड़ ही दी जाए, एक बात जो सबसे कॉमन है वह होती है ग्रीन स्पेस की कमी। यानी बच्चों के लिए खेलने की जगह और पार्क की कमी।
आपदा में अवसर को नया मंत्र मान चुकी इस व्यवस्था ने इसका तोड़ ‘टर्फ’ के रूप में निकाला। ये वे नकली घास के मैदान हैं जहां आप कंट्रोल्ड वातावरण में कुछ हजार रुपये चुकाकर खेल सकते हैं। इन नकली छोटे मैदानों में न खेल असली हो पाता है और न ही भावनाएं। बच्चे यहां खेलकर खुश नहीं दिखते।
यह उस विकास का साइड इफेक्ट है जो हमने अपने लिए चुन लिया है। अब इसमें किंतु-परंतु की भी गुंजाइश नहीं दिखती। प्लास्टिक की घास और केमिकल पेंट की महक वाले इन टर्फ में बच्चों को कितनी खुली और साफ हवा मिल पाती होगी यह तो सोच का विषय है। पेरिस में ओलिंपिक खेल शुरू हो चुके हैं, हमारे खिलाड़ियों ने भी पदक की होड़ में अपना सर्वस्व दांव पर लगाना शुरू कर दिया है लेकिन इन खिलाड़ियों की विरासत कौन संभालेगा? क्या टर्फ के मैदानों से स्तरीय फुटबॉल, हॉकी या अन्य मैदानी खेलों के खिलाड़ी निकल पाएंगे?
हरे-भरे मैदान केवल खेल के लिए जरूरी नहीं हैं बल्कि वे प्रकृति के साथ एक सहज रिश्ता बनाने के लिए भी आवश्यक हैं। यह बहुत निराश करने वाली बात है कि शहरों में लोगों की गाड़ियां लंबी होती जा रही हैं, अपार्टमेंट्स की मंजिलें और फ्लैट्स के बेडरूम्स की संख्या बढ़ती जा रही है लेकिन बच्चों के खेलने के लिए मैदान कम होते जा रहे हैं।
नगरीय निकायों को इस विषय में तत्काल कदम उठाने चाहिए। हर कॉलोनी में खेल मैदान हो और उसका उपयोग किसी दूसरे काम के लिए नहीं केवल बच्चों के खेलने के लिए हो। इस तरह के पहले से बने हुए नियमों को सख्ती से लागू करने की आवश्यकता है। उद्योग और विकास के नाम पर बच्चों का बचपन नहीं छीना जाना चाहिए। यह उनके लिए कोई लक्जरी नहीं बल्कि शारीरिक और मानसिक विकास की आवश्यकता है। खेल के मैदानों को बनाने और पुराने मैदानों को बचाने के लिए आवाज उठाने का वक्त आ चुका है।
कड़वा है पर सच है. जितने भी मैदान थे , बिल्डर्स ने बाँट लिए हैं.
जिंदगी की सच्चाई से रूबरू कराती कहानी