संगीत की तरह सुनाई देती साइकिल के टायरों की आवाज

मनीष माथुर, सामाजिक कार्यकर्ता

माना कैंप (रायपुर): 1975–1977

वो महानदी से निकली हुई एक मुख्य नहर थी, जो माना कैंप को दो भांगों में बांटती थी। जहां तक मुझे याद है उस में लगभग साल भर पानी बहता था। बच्चे उस पर बने पुल से छलांग लगाकर उस तेज बहते मटमैले पानी में कूदते और तैरते। कुछ महिलाएं उसके किनारे बैठ धोने-धाने का भी काम करतीं। पूरब की तरफ बढ़ते ही रिहाइशी मकान खत्म हो जाते और बड़े पुराने दरख्तों की कतार की छाया पानी में चमकती। उसके किनारे ऊंचे थे और उस पर लाल मुरम बिछी थी। उस पर साइकिल के टायरों की आवाज एक संगीत की तरह सुनाई देती। लगभग 1 किलोमीटर आगे, एक किसान रहता था, जिसके पास 15-20 गायें थीं। पापा (जब हमारी गाय दूध नहीं देती) और पड़ोस के गुप्ता अंकल सुबह-सुबह उसके यहां दूध लेने जाते। कभी-कभी मैं भी साथ हो लेता।

एक बात मुझे बड़ा अचंभित करती। गायों को एक बड़े से शेड में बांधा जाता और उनके बछड़े–बछड़ी दूसरे शेड मैं उछलते-कूदते। किसान की मदद के लिए एक नौजवान तथा एक किशोर तैनात रहता। एक-एक कर गायें बाहर लाई जातीं। किशोर जा कर बच्चों के शेड के दरवाजे से हांक लगाता और उस गाय का बछडा ही कूदता-फांदता बाहर निकलता और मां के थनों में, भेंटियां मारने लगता और मां उसे चाटने लगती। हर बच्चे का एक नाम था और अपनी हाजरी लगने पर ही वो बाहर आता।

छठी में मेरा दाखिला संत पॉल स्कूल में हुआ जो रायपुर की पुलिस लाइन के सामने था। स्कूल के चुनाव का एक बड़ा कारण उसका हिंदी माध्यम का होना था। जहां हमने छठी में ABCD सीखी और पहली बार जॉनी–जॉनी, यस पापा गाया। तमाम हिंदी माध्यम के बच्चों को अंग्रेजी ने छठी का दूध याद दिलाया। सेम्बुअल सर (जिन्हें हम सांवेल सर के नाम से जानते थे) बहुत अच्छे इंसान और शिक्षक थे। उनके पढ़ाने के तरीके और प्रोत्साहन से मुझे अंग्रेजी से कभी डर नहीं लगा। उनका घर स्कूल प्रांगण में ही था। अगर किसी कारणवश हमारी छुट्टी जल्दी हो जाती तो वे बड़े प्यार से वो मुझे अपने घर ले जाते ताकि बस का इंतजार मुझे धूप में न करना पड़े। उनका बेटा जो मुझसे एक साल छोटा था, मेरा दोस्त बन गया। साथ ही उनके जर्मन शेफर्ड्स का जोड़ा भी मेरे साथ खेलने लगा।

माना से रायपुर पढ़ने जाने वाले बच्चों की संख्या लगभग 40-45 होगी। अधिकतर बच्चे होली क्रॉस स्कूल के थे जो अंग्रेजी माध्यम था। बाकी दानी स्कूल, सालेम और अन्य स्कूल के थे। सभी को लाने-ले जाने के लिए एक स्कूल बस थी, जो दरअसल एक ट्रक था, जिसे बस बना दिया गया था। बस में चढ़ने-उतरने के लिए उसका डाला खोला जाता, लकड़ी की एक छोटी नसैनी लगाईं जाती और बस की छत से लटकती रस्सियों को पकड़ कर उसमें चढ़ा–उतारा जाता। यह प्रक्रिया हर स्टॉप पर दुहराई जातीं। बस की छत स्टील फ्रेम पर कस कर बांधी गई एक तार्पुलिन से बनी थी, और बारिश के मौसम में, जालीदार खिड़कियों पर भी तार्पुलिन गिरा दी जाती थी।

बस कंडक्‍टर साहब एक खुशमिजाज और गोलाकार देह के स्वामी थे। पर बस के सबसे प्रभावी अधिकारी थे हमारे ड्राइवर साहेब, दादू। दादू एक छह फुटे भारी भरकम शरीर वाले, सेवानिवृत्‍त फौजी थे। जो कभी-कभी कानून और व्यवस्था कायम करने के लिए पीछे आते। उनकी उपस्थिति ही शांति स्थापित करने के लिए काफी होती। दादू के माथे पर एक स्थाई गुमड़ा था, जो उन्हें और रूआबदार बनाता। दादू की बिटिया भी रायपुर में ही पढ़ती थी और रास्ते में पड़ने वाले गांव डूमरतरई से चढ़ती और उतरती। वो अपने पिता के साथ ड्राइवर कैबिन में ही यात्रा करती। दादू के जलवे ने मेरे ड्राइवर बनने के सपने को और मजबूत किया।

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