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पुतरिया के सहारे बचपन की नगरी का फेरा

बचपन के किस्से मासूमियत की नर्म शॉल में लिपट कर सालों-साल कुनकुने बने रहते हैं। ऐसे ही ढेरों किस्से हम सबकी संदूक में अवश्य तह बने रखे होंगे तो इन तहों को खोलकर बिखेर लीजिए अपने होंठों की मुस्कान बनाकर।

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संगीत सभा के बाद क्यों बजाई जाती हैं तालियां?

श्रोता अपने सुनने वाले मन को संपूर्ण रूप से शुरूआती स्तर पर खाली कर लेते हैं, इसमें कलाकार की आलाप लेने वाली प्रक्रिया एक जरिया बनती है। अंत में अगर आनंद स्वरूप श्रोता के अश्रु निकल पड़े तो समझिए वह अपने में डुबकी लगा चुका है,एकात्म घट चुका है।

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जिसने योग न किया मानो वह नहीं जिया

बरगद का वृक्ष कभी-कभी 5000 साल तक जीता है पर वह सिर्फ बरगद का एक वृक्ष ही होता है, उससे ज्यादा कुछ भी नहीं। इसलिए कोई व्यक्ति दीर्घजीवी तो हो सकता है, पर वह एक स्वस्थ पशु भर बना रहेगा।

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फादर्स डे: बाप रे बाप!

हे संसार के पिताओं! अपने असर से बच्‍चों को जितना दूर रख सकें उतना अच्छा होगा। उन्हें अपने आप ही खिलने दें, अपने संस्कारों का अनावश्यक बोझ उनपर न डालें।

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हर बादल में इंद्रधनुष खोजना चाहिए…

तथाकथित नैतिक, सामाजिक व्यवहार या जीवन-संस्कार, आडंबर-प्रियता व्‍यक्ति की स्वतंत्रता और स्वाधीनता को प्रतिबंधित रखना चाहते हैं। इसलिए एक सहज और सरल प्राकृतिक मुद्दे को अप्राकृतिक बना दिया जाता है।

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बहुत शोर सुनते हैं उनके हक का, मगर संख्‍या महज 74

ये विडंबना ही है कि पार्टियां आधी आबादी को चुनाव में उम्मीदवार बनाने से कतराती हैं। कई जगह दिग्गजों के खिलाफ सिर्फ नाम के लिए उन्हें खड़ा कर दिया जाता है।

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महंगे कलमों के दौर में उसका नेपथ्य में चले जाना…

आज जब दुनिया में लाखों बल्कि करोड़ों रुपये मूल्य के कलम उपलब्ध हैं तब नरकट के कलम की याद वैसी ही है जैसे पीएनजी के दौर में दुनिया की पहली आग की याद या फिर सुपर कारों के इस दौर में दुनिया के पहले पहिए की याद।

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वोट देने का हक नहीं और जेल से पहुंंच गए संसद में

स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनावों को सर्वोच्च संवैधानिक आधार माना गया है, लेकिन सुप्रीम कोर्ट कहता रहा है कि चुनाव करने और चुने जाने के अधिकार को समान दर्जा प्राप्त नहीं है। इसका मतलब यह है कि मतदान मौलिक अधिकार नहीं है और इसे निरस्त किया जा सकता है।

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जो स्मृति में टिक न सके, भरोसा मत करो

जो स्मृति में बस न सके, टिक न सके, फिर वह चाहे व्यक्ति, लोग, चीज, संकल्पना या विचार ही क्यों न हो, भरोसा मत करो। स्पष्ट है कि न वह तुम्हारे लिए और न ही तुम उसके लिए हो। जो टिके नहीं उसकी गति तेज है, वह आवारा है,उच्छृंखल-चंचल है,क्षुद्र है,कोई तय ऑर्बिट नहीं है उसका। इसीलिए वह अनप्रेडिक्टेबल है।

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बात दिखने में छोटी है, कर के देखिए बड़ा काम होगा

चलिए ना! आज विश्व पर्यावरण दिवस पर करिए एक शुरूआत मेरे संग अपनी धरती और प्रकृति की खिलखिलाहट बचाये रखने के लिये। यकीन मानिये… ज्यादा ना तो एफर्ट्स लगते हैं और ना ही समय! बस राई के दाने जितने प्रयत्न और जागरूक हो जाने भर से ‘राई के पहाड़’ वाले पहाड़ नहीं बल्कि प्रयत्नों के सकारात्मक पहाड़ बना लीजिए। जिनके नीचे दब जाएं देशभर और फिर विश्वभर के एकड़ों में फैले टनों कचरे के ढ़ेर।

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