इस तरह मैं जिया-16 : उसने 3-4 गोलियां मुंह में ठूंसी, हलक में उतारीं और घटना स्थल से फरार हो ली
हर जीवन की ऐसी ही कथा होती है जिसे सुनना उसे जीने जितना ही दिलचस्प होता है। जीवन की लंबी अवधि सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में गुजारने वाले इस शृंखला के लेखक मनीष माथुर के जीवन की कथा को सुनना-पढ़ना साहित्य कृति को पढ़ने जितना ही दिलचस्प और उतना ही सरस अनुभव है। यह वर्णन इतना आत्मीय है कि इसमें पाठक को अपने जीवन के रंग और अक्स दिखाई देना तय है।
मनीष माथुर, सामाजिक कार्यकर्ता
माना कैंप (रायपुर): 1975–1977
होली बचपन से ही मेरा और पापा का सर्वाधिक प्रिय त्यौहार रहा। एक ऐसा त्यौहार जो एक दिन के लिए ही सही, गरीबी-अमीरी, छोटे-बड़े, बच्चे-बूढ़ों और कुछ हद तक देवियों-सज्जनों की दूरी कम कर देता है। दीपावली की तरह, होली मनाने के लिए धन या तैयारियों की जरूरत नहीं पड़ती। किसी तरह का दिखावा या औपचारिकताओं से परे होती है होली। घर में मां और दीदीयों को दिन रात, सफाई, रंगोली, पकवान आदि के लिए खटना नहीं पड़ता। उस पर बासंती हवा, आम आदमी के मिजाज को भी खुशनुमा बना देती है।
अपने परिवार की परंपरानुसार, हमारे आंगन में भी होलिका दहन होता। मैं और मेरा दोस्त पंकज आस-पास से लकडियां जमा करते। घरों से लगा हुआ ही सरकारी (संभवतः वन विभाग) का गोदाम का खुला प्रांगण था। वहां बल्लियों, पेड़ के तनों–सूखी डालों के ढ़ेर लगे रहते। प्रांगण कटीले तारों से घिरा था पर हम 10-12 साल के बालकों के लिए उसके बीच से जगह बनाना कोई दुरूह कार्य नहीं था।
धुलेंडी के लिए पापा के कुछ उत्तर भारतीय मित्रों ने भांग की ठंडाई का इंतजाम किया। कागज के एक ठोंगे में लिपटी भांग की गोलियां पापा ने घर की सबसे समझदार बड़ी दीदी को यह कहते थमाई कि इसे ऐसे का ऐसा और चुपचाप लकड़ी की अलमारी के सबसे ऊंचे खाने में रख दे। तब हमारे यहां फ्रिज का आविष्कार नहीं हुआ था। उसने ऐसा ही किया।
छह भाई-बहनों का तीन कमरों का घर आखिर सब की नजरों से कैसे बचें? बहरहाल, दीदी नंबर तीन ने देखा कि बड़ी दीदी कुछ छुपा कर रख रही है।
जिज्ञासा जान ले सकती है…
बड़ी दीदी के हटते ही मझली ने आनन–फानन में अलमारी खोली। पैकेट खोला। उसे लगा ये चूरन की गोलियां (हम उसे गटागट के नाम से जानते थे) हैं। बंदर की तरह उसने 3-4 गोलियां मुंह में ठूंसी, हलक में उतारीं और घटना स्थल से फरार हो ली। गोलियां उसे बेस्वाद लगीं। उस अजीब स्वाद को जुबान से हटाने के लिए, उसने तीन-चार चम्मच शकर फांक ली।
अब क्या था, आधे घंटे बाद उसने हमारे सामने लगे झंडे के डंडे को (हम सर्किट हाउस में रहते थे) पकड़कर, गोल-गोल घूमना शुरू किया। जब ये सिलसिला कुछ ज्यादा ही लंबा खिंचा तो ध्यान गया। उसकी आंखें लाल थीं। अंदर आने पर उसने रोना भी शुरू कर दिया। डॉक साब बुलाए गए। उन्होंने कुछ इंजेक्शन आदि दे कर उसे सुलाया। रहस्य अगले दिन खुला जब ठंडाई बनवाने के लिए पापा ने अपने पार्सल की मांग की।
होलिका दहन और जिंदा कारतूस
‘तवा कैंप’ के दंगे के बाद, माना कैंप क्लस्टर में भी प्रदर्शन शुरू हुए थे और उनको नियंत्रित करने के लिए वहां भी लाठी-चार्ज, आंसू-गैस के गोलों का इस्तेमाल हुआ। उन दागे गए गोलों और हवाई फायर में इस्तेमाल कारतूसों के खोल इन्वेंटरी के लिए कच्चे आँगन में एक ढ़ेर बना कर रखे थे। दोनों मित्रों ने उस खजाने का भी निरिक्षण किया और पाया कि गोले गोल न होकर, छोटे राकेट जैसे दिखते हैं। इस प्रक्रिया में दोनों की आंखें लाल हो गईं और झर-झर आंसू बह निकले। पर मेरे हाथ एक छोटा सा बिना चला कारतूस लगा जिसे मैंने तुरंत अपनी जेब के हवाले किया। घर पर हमारी लाल आंखों को ले कर सवाल हुए। गंभीर चेतावनी मिली कि उस ढ़ेर के पास नहीं जाना। सिक्यूरिटी गार्ड को भी बुला कर हिंदी में समझाया गया कि किसी को भी उस गोलों के ढ़ेर के पास नहीं जाने दिया जाए।
हमारी होली ईव तो काफी हद तक दीदी की रहस्मय बीमारी से फीकी रह गई थी पर मुझे अपनी शान्दार होली, मिट्टी के प्रहलाद और गोबर की होलिका पर पूरा भरोसा था। अब मैं मूरख, क्या जानू कि एक बिना चला कारतूस कितना खतरनाक हो सकता है, सो उस साल के होलिका दहन में, उस छुपा कर रखे कारतूस (जो बड़े दिनों बाद NCC Junior – wing में शामिल होने के बाद मुझे मालूम हुआ, की वो संभवत: एक .22 राइफल का कारतूस था) को मैंने जलती हुई होलिका में फेंक दिया। वो आवाज के साथ चला और हमारी लकड़ी के बाउंड्री के एक फट्टे में जा धंसा। जाहिर है, रात में कुछ नजर नहीं आया। पापा ने पूछा, ये आवाज किस की थी? मैंने सफाई दी, एक फटाका डाला था। चेतावनी जारी हुई कि होलिका दहन में कोई भी फटाका ना डाला जाए।
जान बची और लाखों पाए। आज सोचता हूं, अगर वो गोली, हमारी दिशा में आती तो क्या खतरा हो सकता था?
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