मेरी बनाई झालर से झिलमिलाता था घर, कहां गए वे दिन?

मनीष माथुर, सामाजिक कार्यकर्ता

होशंगाबाद (अब नर्मदापुरम): 1977-1981

कोठी बाजार या कहें होशंगाबाद के पहलवानों और शोहदों का एक महत्वपूर्ण ठिया था बिजय क्लब। उसके कर्ता-धर्ता क्यूंकि एक एक बंगाली परिवार के आठ भाई थे, इसलिए उसे विजय नहीं बिजय क्लब के नाम से जाना जाता था। कोठी बाजार में उसका दबदबा था। वहां एक देशी अखाड़ा और सेहत बनाने के लिए, मुगदर, डम्‍बल्‍स आदि भी थे।

उस परिवार के निरंजन भैया एक प्रतिष्ठित तैराक थे। कैलाश भैया एक बहुत अच्छे मूर्तिकार थे। बिजय क्लब में स्‍थापित होने वाली गणपति और मां दुर्गा की सार्वजनिक मूर्तियां उनके हाथों की ही जादूगिरी होती थीं। साथ ही होता था, गणपति की स्थापना के दस और मां दुर्गा की स्थापना के नौ दिनों के उत्‍सव का आनंद।

दिन-भर गणपति अथवा मां के भजन लाउड स्पीकर्स पर बजते और शाम होते ही मेरा दोस्त अशफ़ाक, मेरा हमउम्र जो इतनी छोटी उम्र में अपने अब्बू के लाइट एवं साउंड का जिम्मा सम्भालता, की मधुर आवाज गूंजती, “आरती का समय हो गया है। सभी बहनों, भाइयों, माताओं, बच्चों से से निवेदन है कि वो गणपति/मां दुर्गा के पास आएं और आरती में शामिल हो कर, गणपति बप्‍प या दुर्गा मैया का आशीर्वाद पाएं।”

सच कहूं, तो मुझे उसका नाम क्या था, याद नहीं। वह गणेश चतुर्थी तथा शारदीय नवरात्रि पर अल्लादीन के चिराग से प्रकट होता और इसी तरह तरह क्रमशः अनंत-चतुर्दशी, और दशहरा के दिन गायब हो जाता। ये अशफ़ाक नाम मैंने इसलिए दिया, क्योंकि वह मुस्लिम था। उन दिनों पूरा कोठी-बाजार उसकी आवाज से चहकता।

ये वह समय था, जब हम दीपावली पर घर पर लटकाने के छोटे-छोटे बल्बों की झालर बनाते थे। जिसे बोलचाल की भाषा में सीरीज कहते थे। उसने मुझे उसके बेसिक फंडे सरलता से समझाए। बताया कि हमारे यहां 240 वाल्ट की बिजली आती है जितने बल्ब जोड़ो, उनके वाल्ट का योग 240 वोल्ट के आसपास आना चाहिए। घर की बिजलियां parallel कनेक्शन में होती हैं और हर बल्ब/पंखा 240 वोल्ट होता है। अशफ़ाक स्वयं पांचवीं के आगे शायद ना पढ़ा था पर 14-15 साल का वह बालक एक अनुभवी electrician, communicator और manager था। उसके नीचे दो electricians काम करते थे। आठवीं अथवा नवीं में जब हमें serial and parallel resistance पढ़ाया गया, तब तक मैं घर को सजाने के लिए, ढेरों सीरीज बना चुका था। उस समय चीनी सजावटी लाइट्स के आगमन की कल्पना भी नहीं की जाती थी। अत: अमीर परिवार दीपाली की सजावट के लिए अशफ़ाक जैसे कलाकारों की सेवा लेते।

हम ठहरे मिडिल क्लास। तब शायद 10 पैसे में एक 5 वोल्ट का बल्ब आता। यानी, 50 बल्ब, 5 रूपए। अगर आपको अपनी झालर को झिलमिल भी करवाना है तो जरूरत होती, एक मास्टर बल्ब की। पूरे 50 पैसे का। बल्ब सारे पीला प्रकाश ही देते। उन्हें रंगीन बनाने के लिए, उसके रंग-बिरंगे कवर आते। काम बहुत पेचीदा होता क्योंकि मेरे पास एक टेस्टर के अलावा और कोई उपकरण नहीं होता। पर जब हमारा घर जगमगाता तो मेरी दीदियां, मां, पापा बहुत खुश होते। कहां गए वो दिन?

मां नर्मदा निरंजनी, सर्व दुःख भंजनी

होशंगाबाद का अस्तित्व नर्मदा मैया के बिना कुछ नहीं था। लगभग सारे बच्चे, महिलाएं नर्मदा जी में ही स्नान करते। मुझे शुरू में, नर्मदा जी में गोचा लगाने में कुछ डर लगा। पर नर्मदा एक ऐसी माई है जो बच्चों को अपने आंचल में दुलारती है, उन्हें तैरना सिखाती है, और डराती नहीं, चाहे वह पूर में क्यूं ना हो। तीन से पांच साल के बालक/बालिकाएं, निर्भय होकर उसमें छलांग लगाते थे। मेरी भी हिम्मत बढ़ी और एक दिन मैं भी कूद पड़ा। कुछ देर की बेचैनी के बाद असीम सुख और गर्माहट का अनुभव हुआ जो एक मां की गोद में ही संभव है।

जिसने नर्मदा के दर्शन नहीं किए, वो जन्म्या ही नहीं। लोगों का विश्‍वास है कि गंगा माई में स्नान करने से इस जन्‍म के पाप धुल जाते हैं। पर नर्मदा जी के तट पर रहने वालों का अखंड विश्‍वास है कि नर्मदा जी के दर्शन मात्र से जन्‍म-जन्‍म के पाप धुल जाते हैं। मैं धन्य भया। होशंगाबाद के लगभग चार वर्ष के निवास में, मैं बिला-नागा उसमें ही नहाया, फिर चाहे वह मई का महीना हो या अगस्त।

इस तरह मैं जिया-1:  आखिर मैं साबित कर पाया कि ‘मर्द को दर्द नहीं होता’

इस तरह मैं जिया-2: लगता था ड्राइवर से अच्छी जिंदगी किसी की नहीं…

इस तरह मैं जिया-3: हम लखपति होते-होते बाल-बाल बचे…

इस तरह मैं जिया-4: एक बैरियर बनाओ और आने-जाने वालों से टैक्स वसूलो

इस तरह मैं जिया-5: वाह भइया, पुरौनी का तो डाला ही नहीं!

इस तरह मैं जिया-6: पानी भर कर छागल को खिड़की के बाहर लटकाया…

इस तरह मैं जिया-7: पानी भरे खेत, घास के गुच्छे, झुके लोग… मैं मंत्रमुग्‍ध देखता रहा

इस तरह मैं जिया-8 : मेरे प्रेम करने के सपने उस घटना के साथ चूर-चूर हो गए

इस तरह मैं जिया-9 : हमने मान लिया, वो आंखें बंद कर सपने देख रहे हैं

इस तरह मैं जिया-10 : हमारे लिए ये एक बड़ा सदमा था …

इस तरह मैं जिया-11: संगीत की तरह सुनाई देती साइकिल के टायरों की आवाज

इस तरह मैं जिया-12: मैसेज साफ था, जान-पैचान होने का मतलब यह नहीं कि तू घुस्ताई चला आएगा

इस तरह मैं जिया-13 : एक चाय की प्याली और ‘दीमाग खोराब से ठोंडा’ हो जाता

इस तरह मैं जिया-14 : तस्‍वीर संग जिसका जन्‍मदिन मनाया था वह 40 साल बाद यूं मिला …

इस तरह मैं जिया-15 : अगर कोई पवित्र आत्मा यहां से गुजर रही है तो …

इस तरह मैं जिया-16 : हम उसे गटागट के नाम से जानते थे …

इस तरह मैं जिया-17 : कर्नल साहब ने खिड़कियां पीटना शुरू की तो चीख-पुकार मच गई

इस तरह मैं जिया-18 : इतनी मुहब्बत! मुझे ऐसा प्रेम कहीं ना मिला

इस तरह मैं जिया-19 : एक दुकान जहां सुई से लेकर जहाज तक सब मिलता था

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