इस तरह मैं जिया-19 : जैसा रेल से दिखता था, उस से भी सुंदर निकला होशंगाबाद
हर जीवन की ऐसी ही कथा होती है जिसे सुनना उसे जीने जितना ही दिलचस्प होता है। जीवन की लंबी अवधि सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में गुजारने वाले इस शृंखला के लेखक मनीष माथुर के जीवन की कथा को सुनना-पढ़ना साहित्य कृति को पढ़ने जितना ही दिलचस्प और उतना ही सरस अनुभव है। यह वर्णन इतना आत्मीय है कि इसमें पाठक को अपने जीवन के रंग और अक्स दिखाई देना तय है।
मनीष माथुर, सामाजिक कार्यकर्ता
होशंगाबाद (अब नर्मदापुरम): 1977-1981
होशंगाबाद की छवि मेरे दिल में बहुत खूबसूरत जगह की थी। और होती भी क्यों ना, सतपुडा की वादियों में बसा नर्मदा जी के आंचल में जड़ा ये स्टेशन हमने कईयों बार अपनी रायपुर-ग्वालियर की रेल यात्राओं में पार किया था। हरा-भरा ये इलाका सागौन और बांस के जंगलों से भरा पडा था। रेल और सड़क के आवागमन के लिए सिर्फ एक–एक ही पुल था। अत: सुपरफास्ट रेल गाड़ियां भी यहां टेक्निकल हाल्ट लेतीं। रेलों के यहां रुकने का एक और कारण था। नर्मदा जी पार करते ही घाट प्रारंभ होते और सीधी चढ़ाई बरखेडा स्थित मिड-घाट पर समाप्त होतीं। इस सीधी चढ़ाई को चढ़ने में कोयले के इंजन हांफ जाते, अत: होशंगाबाद से एक अतिरिक्त इंजन जोड़ा जाता जो मिडघाट तक गाड़ियों को चढ़ने में मदद करता और वहाँ से वापस होशंगाबाद लौटता।
उस समय होशंगाबाद का फैलाव भी, जिलाधीश कार्यालय से गवर्नमेंट स्कूल और नर्मदा तट से आईटीआई तक सीमित था। हां, हरदा रोड की तरफ इसका फैलाव सिक्यूरिटी पेपर मिल तक होना प्रारंभ हो गया था, अन्यथा स्टेशन के उस तरफ छोटी ग्वाल-टोली और बड़ी ग्वाल-टोली के अलावा कुछ नहीं था। जैसा रेल से दिखता था, होशंगाबाद उस से भी सुंदर निकला। यहां मैंने जिंदगी के काफी सबक सीखे खास तौर पर लाइफ स्किल्स।
मां ही मां
यह अद्भुत कस्बा पूरी तरह नर्मदा माई का बच्चा था। सारे तीज-त्यौहार, उत्सव, मेले, माई के बिना अधूरे रहते। निवासियों की दिनचर्या भी पूरी तरह माई पर निर्भर थी। बुजुर्गवार सूर्योदय के पहले की नर्मदा जी में सपड़ के अपना दिन शुरू करते, बालक–बालिकाएं, स्त्री-पुरुष लगभग सुबह 09 से बारह बजे तक इस महत्वपूर्ण कार्य को संपन्न करते, जिसमें बर्तन-भांडे धोना, कपडे-लत्ते फीचना भी शामिल होता। यहां अमीर-गरीब, जात-पात, हिन्दू-मुसलमान, मनुष्य और जानवर में कोई भेद नई होता। किसान अपने घोड़ों, बैलों को भी उसी घाट पे नहलाते जहां मां के अन्य बालक–बालिकाएं नहाते।
पापा यहां भी केंद्रीय सरकार में प्रतिनियुक्ति पर थे, इसलिए कोठी बाजार के नीलू घोष साहेब का 5 कमरों, एक कवर्ड बरामदा और एक आंगनयुक्त घर किराये पर लिया गया। आंगन में दो अमरुद और एक नींबू पेड़ था। नर्मदा जी हमारे घर से लगभग 200 मीटर दूर थीं।
नदी तट के किनारे, मैय्या की शरण में तमाम, साधू, भिक्षुक और भिक्षुनियां निवास करते, जिनका तांता सुबह से दोपहर तक लगा रहता। “नर्मदे-हर -भिक्षा दे माता” का आलाप दोपहर तक चलता रहता।एक मधुर आवाज भी सुबह ही सुनाई देती, “ले बथुआ की भाजी ले, राई की ले”। वोह एक बूढी मां थी, जिसे देख प्रेमचंद की बूढी काकी की याद ताजा हो जाती।
सुबह-सुबह हमें एक डबलरोटी वाले की टेर नींद से जगाती, जो अपनी साइकिल पे, “या डबलरोटी वाला, बिस्कुट वाला, टोस्ट वाला आ” चिल्लाता हुआ कोठी बाज़ार से गुजरता। वह एक अधेड़ उम्र का सिंधी था, जिसने अपनी मेहनत और जिजीविषा से, बाद में होशंगाबाद के रेलवे स्टेशन के बाहर एक ढाबा खोला, जो अपने स्वादिष्ट खाने के लिए (निरामिष और सामिष) जाना गया। कड़ी मेहनत के अलावा और कोई रास्ता नहीं।
बंसी की दुकान
बंसी भाई भी एक सिंधी थे जिनकी दुकान पे सुई से लेकर हवाई-जहाज तक मिलता था। उनकी दुकान पर आप कुछ भी मांग लो, अवश्य मिलेगा। छोटे कद के बंसी भैय्या सबके खेवन हार थे। अपनी छोटी सी दूकान में क्या नहीं रखते थे यह एक प्रश्न सबके दिमाग में रहता। सेरिडोन की गोली हो, गुड या शक्कर पट्टी, कंडोम या पोस्टमैन तेल, रबर बेंड्स, या रेजर ब्लेड सब सर्वदा उपलब्ध। उनका हँसता हुआ नूरानी चेहरा सबको उनकी दुकान की तरफ खींचता।
गौरी सेठ
गौरी सेठ होशंगाबाद के एक सबसे ज्यादा प्रसिद्ध और अपनी मिठाइयों, और नमकीन के लिए जाने जाते थे। उनके सुपुत्र संदीप मेरे सहपाठी थे। तब होशंगाबाद में किलो के बजाय पाई चलती थी। पाई असल में एक आयतन का पैमाना थी जो एक किलो से कुछ अधिक भार की होती थी। फिर चाहे दूध हो या अनाज, सब की माप पाई से ही होती। उनकी होटल में सबसे पहले, पोहे-जलेबी बनती, फिर आलू बोंडा, भजिया, समोसा और अंत में शानदार कचोरी बनती, जिनका स्वाद आज तक लाजवाब है। दोपहर के समय, जिलाधीश कार्यालय के तमाम बाबू, अपने-अपने क्लाइंट्स को लेकर वहां आते, और इन व्यंजनों और गोल्डन चाय का आनंद उठाते। लगभग एक रूपए में उनकी आत्मा तृप्त हो जाती क्योंकि तब समोसा/कचोरी मात्र 25 पैसे प्रति नग, गोल्डन चाय 35 पैसे प्रति कप, और पान 15 पैसे में आता।
गौरी सेठ की दूकान पे एक मानसिक रूप से परेशान व्यक्ति, “बॉबी” भी शरण लेता था। जिसका सेठ साहब खूब ख्याल रखते। उसके खाने/पीने और साप्ताहिक नहाने (नर्मदा जी पर और कहां) की जिम्मेदारी, सेठ साहब और उनके सुपुत्रों (कमलेश भैय्या, विनोद भैय्या और संदीप तथा उनके स्टाफ ने ही संभाल रखी थी।) सेठ साहब के कहने पर वह भजन गाता और उसे गरमा-गरम चाय- और आलू बोंडा मिलता।
इस तरह मैं जिया-1: आखिर मैं साबित कर पाया कि ‘मर्द को दर्द नहीं होता’
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इस तरह मैं जिया-16 : हम उसे गटागट के नाम से जानते थे …
इस तरह मैं जिया-17 : कर्नल साहब ने खिड़कियां पीटना शुरू की तो चीख-पुकार मच गई
इस तरह मैं जिया-18 : इतनी मुहब्बत! मुझे ऐसा प्रेम कहीं ना मिला