इस तरह मैं जिया-18 : माना-कैंप में बिताए जीवन की गाथा की आखिरी कड़ी में माना के मोती की याद
हर जीवन की ऐसी ही कथा होती है जिसे सुनना उसे जीने जितना ही दिलचस्प होता है। जीवन की लंबी अवधि सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में गुजारने वाले इस शृंखला के लेखक मनीष माथुर के जीवन की कथा को सुनना-पढ़ना साहित्य कृति को पढ़ने जितना ही दिलचस्प और उतना ही सरस अनुभव है। यह वर्णन इतना आत्मीय है कि इसमें पाठक को अपने जीवन के रंग और अक्स दिखाई देना तय है।
मनीष माथुर, सामाजिक कार्यकर्ता
फोटो: मणि मोहन
माना कैंप (रायपुर): 1975–1977
यह माना-कैंप की आखिरी कड़ी है, जिसका समापन माना के मोती, अथवा ‘दुर्गा-पूजो’ से करना प्राक्रतिक है। हमारा रहवास तब तक पश्चिम मध्य प्रदेश था जहां होली, राखी, भुजरिया, दशहरा और दीवाली तब मुख्यत: मनाए जाते थे। हां, गणपति उत्सव इक्का-दुक्का स्थानों पर सार्वजनिक होता, परंतु सार्वजनिक दुर्गा पूजा तब गुजरात और पूर्वी भारत (बंगाल, आसाम, ओड़ीशा, बिहार) में मनाई जाती। इसके कुछ अपवाद तब भी रहे होंगे। यह बात अलग है कि आजकल गरबे और डांडिया के उत्सव हर जगह होते हैं।
शारदीय दुर्गा पूजा के नौ दिन की शुरुआत सुबह से ही माना कैंप खिल उठता और शामें जगमगातीं। सारा दृश्य ही अद्भुत होता था। कलकत्ता से जात्रा (नाटक) के अच्छे ग्रुप्स आते और रोज शाम को एक मेले की तरह पंडाल सजता। बंगला भाषा में जात्राएं होतीं और कलाकारों की भाव-भंगिमाओं तथा शानदार अभिनय के कारण, हमें उन संवादों को समझने में कोई दिक्कत नहीं आती। षष्टि से नवमी तक तरह-तरह के आयोजन होते।
मां के प्रति श्रद्धा, जूनून, और समर्पण सुबह-शाम की आरती में आता। प्रत्येक साधक (महिला या पुरुष, बच्चा या वृद्ध) उतने ही जोश से शामिल होते। मेरे पापा जो उन आरतियों में एक जज के रूप में शामिल होते, उनके लिए सर्वश्रेष्ठ का चुनाव बहुत मुश्किल होता। एक बार जब पापा और गुप्ता अंकल ऐसे ही आयोजन में गए तो पॉवर सप्लाई ठप हो गई तब जीपों की हेडलाइट्स जला कर कार्यक्रम संपन्न हुआ।
यही वह जगह थी जहां मैंने बंगाली संस्कृति, उनके महान लेखकों और फिल्मकारों को जानना शुरू किया। गुरुदेव की लिखी ‘The Home coming’ पढके मैं रोया। इसे पढ़ कर एक बच्चे के मानसिक संघर्ष को मैंने जाना। फटिक चक्रवर्ती की कहानी मुझे अभी तक याद है और रुलाती भी है।
माना में गेहूं पीसने की सिर्फ एक चक्की थी। बाकी सब धान से उसना चावल निकालने की चक्कियां थीं। मां ने मुझे एक बार गेहूं पिसाने के लिए उस एकमात्र चक्की पे भेजा, जो धान और गेहूं भी पीसती थी। मैं जब गेहूं का कनस्तर लेके पहुंचा, तो बहुत प्यास लगी थी। चक्की मालिक ने मुझे, नीबू-पानी पेश किया जो बहुत मीठा था। मैंने निवेदन किया कि मुझे सिर्फ पानी चाहिए पर परंपरा अनुसार उसने मुझे मजबूर किया, कि एक मेहमान होने के नाते, वो मुझे सादा पानी पेश नहीं कर सकते। इतनी मुहब्बत! मुझे ऐसा प्रेम कहीं ना मिला। दासेस रोसोगुल्ला। मुंह में डालते ही घुल जाए।
कर्नल अय्यर पर हुए प्राणघातक हमले के बाद पापा का ट्रांसफर होशंगाबाद कर दिया गया।
होशंगाबाद मेरे जीवन का एक महत्वपूर्ण दौर रहा, जहां मैंने नर्मदा मैय्या की गोद में तैरना भी सीखा और सीखा पर्यावरण से लगाव। होशंगाबाद (अब नर्मदापुरम) मेरे जीवन का एक मुख्य पड़ाव रहा।
इस तरह मैं जिया-1: आखिर मैं साबित कर पाया कि ‘मर्द को दर्द नहीं होता’
इस तरह मैं जिया-2: लगता था ड्राइवर से अच्छी जिंदगी किसी की नहीं…
इस तरह मैं जिया-3: हम लखपति होते-होते बाल-बाल बचे…
इस तरह मैं जिया-4: एक बैरियर बनाओ और आने-जाने वालों से टैक्स वसूलो
इस तरह मैं जिया-5: वाह भइया, पुरौनी का तो डाला ही नहीं!
इस तरह मैं जिया-6: पानी भर कर छागल को खिड़की के बाहर लटकाया…
इस तरह मैं जिया-7: पानी भरे खेत, घास के गुच्छे, झुके लोग… मैं मंत्रमुग्ध देखता रहा
इस तरह मैं जिया-8 : मेरे प्रेम करने के सपने उस घटना के साथ चूर-चूर हो गए
इस तरह मैं जिया-9 : हमने मान लिया, वो आंखें बंद कर सपने देख रहे हैं
इस तरह मैं जिया-10 : हमारे लिए ये एक बड़ा सदमा था …
इस तरह मैं जिया-11: संगीत की तरह सुनाई देती साइकिल के टायरों की आवाज
इस तरह मैं जिया-12: मैसेज साफ था, जान-पैचान होने का मतलब यह नहीं कि तू घुस्ताई चला आएगा
इस तरह मैं जिया-13 : एक चाय की प्याली और ‘दीमाग खोराब से ठोंडा’ हो जाता
इस तरह मैं जिया-14 : तस्वीर संग जिसका जन्मदिन मनाया था वह 40 साल बाद यूं मिला …
इस तरह मैं जिया-15 : अगर कोई पवित्र आत्मा यहां से गुजर रही है तो …
इस तरह मैं जिया-16 : हम उसे गटागट के नाम से जानते थे …
इस तरह मैं जिया-17 : कर्नल साहब ने खिड़कियां पीटना शुरू की तो चीख-पुकार मच गई