zindagi ki diary

मां पूछती, दिन कैसा गया?, मैं झूठ कह देता, बहुत अच्छा

पापा जब शाम को ऑफिस से आते तब मैं किसी किताब को खोल कर बैठ जाता ताकि उन्हें सब बच्चे पढ़ते हुए मिलें और विश्वास कायम रहे कि, “all is well.”  मां तो अपने कामों में व्यस्त रहतीं अतः उन्हें भी भनक नहीं लगी।

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मैंने अशोक लेलैंड को आंखों से ओझल होने तक निहारा!

अचानक मां चिल्लाईं, “रोको, रोको…किसी ने मेरे कंधे पर बाहर से कुछ मारा है! या तो ऊपर से कुछ सामान गिरा है।” उस्ताद सहित सभी चौंक गए। ट्रक रोक दिया गया। छान-बीन हुई।

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“हे भगवान, इन सबका टिकट कंफर्म करवा दो,प्लीज”

दोपहर के ठीक तीन बजे, 5 महिलाओं, 5 पुरुष, एक गाय, एक कुता, कोई एक दर्जन पौधों, और घरेलू सामान से लदा–फदा हमारा ट्रक-सह-बस रवाना हुआ। लेकिन मेरा उत्साह ठंडा पड़ चुका था।

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दो बजे भी तिरपाल कस गई तो 6 बजे भोपाल पार

मैंने पापा को वादा किया कि सामान की शिफ्टिंग के लिए ट्रक की व्यवस्था में करूंगा। अशोक-लेलैंड से भोपाल-ग्वालियर का रात का सफर मुझे बहुत रोमांचक लगा।

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पसंदीदा ट्रक में सफर का ख्‍याल ही कितना रोमांचक!

मैंने पापा को वादा किया कि सामान की शिफ्टिंग के लिए ट्रक की व्यवस्था में करूंगा। अशोक-लेलैंड से भोपाल-ग्वालियर का रात का सफर मुझे बहुत रोमांचक लगा।

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जहां नर्मदा में नहाना सपड़ना था और शून्य था मिंडी

तब दाल पकती नहीं पर चुरति थी। क्रिकेट मैं रन बनाए नहीं पर हेड़े जाते। नदी तक जाने वाले रास्ते या तो डीह कहलाते या सपील।

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बाल सेट करने का मतलब होता था ‘अमिताभ कट’

मुझे अपने लड़के दोस्तों पर तो भरोसा था लेकिन एक दिन वह लड़की मेरे घर आई। मेरी खुशी तभी गम में बदल गई जब उसने मेरी मां के सामने राज खोल दिया।

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तब ऐसी बोलचाल को मोहब्बत माना जाता था

रसायन प्रयोगशाला के तमाम उपकरण बड़े आकर्षित करते। एक दिन मैंने वहां से एक pipette उठाई और अपने पेंट में खोंस ली। मेरे एक सहपाठी ने सर को ये गुप्त जानकारी दे दी।

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आई सा ‘मस्का-डोमेस्टिका’ इन माय रूम

तिवारी सर हमें हिंदी में अंग्रेजी पढ़ाते, स्थानीय भाषा और मुहावरों का प्रयोग करते। उनका पीरियड शांति और उल्लास के साथ गुजरता।

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फेंके हुए सिक्कों में से उनके हाथ 22 पैसे लगे…

मेरे लिए प्रथम पंक्ति में बैठ कर फिल्म देखने का यह पहला मौका था। जब ‘कोई पत्थर से ना मारे मेरे दीवाने को’ गाना चालू हुआ तब सिक्कों की बरसात शुरू हुई।

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