इस तरह मैं जिया-27: परम सौभाग्यशाली हूं कि नर्मदा तट पर चार साल जीवन बीता
हर जीवन की ऐसी ही कथा होती है जिसे सुनना उसे जीने जितना ही दिलचस्प होता है। जीवन की लंबी अवधि सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में गुजारने वाले इस शृंखला के लेखक मनीष माथुर के जीवन की कथा को सुनना-पढ़ना साहित्य कृति को पढ़ने जितना ही दिलचस्प और उतना ही सरस अनुभव है। यह वर्णन इतना आत्मीय है कि इसमें पाठक को अपने जीवन के रंग और अक्स दिखाई देना तय है।
मनीष माथुर, सामाजिक कार्यकर्ता
होशंगाबाद (अब नर्मदापुरम): 1977-1981
कितना वक्त गुजरा गया, नर्मदा जी में कितना पानी बह गया लेकिन जरा सोचने बैठता हूं तो अब भी ताजा हो उठता है होशंगाबाद का वह अलबेला रंग और जीवन का ढंग…
रंग-पंचमी: अब तक हम मध्य प्रदेश के जिन प्रांतों में रहे थे, जैसे, छत्तीसगढ़, बुंदेलखंड वहां सिर्फ होलिका दहन के अगले दिन (धुलेंडी अथवा होली) ही रंग से खेला जाता था। मां हम सब बच्चों पर नारियल का तेल चुपड़ कर और हमारे पुराने कपड़े पहनाकर ही बाहर भेजती थी। बच्चों का रंग खेलना अल-सुबह ही शुरू हो जाता जो दोपहर तक चलता रहता था। युवाओं और बुजुर्गों की होली 10-11 बजे शुरू होती और दोपहर 4-5 बजे तक चलती। शाम 6 बजे के बाद लोगों का एक दूसरे के घर जाना और होली की शुभकामनाएं देने में बीतता। इस दौरान सब उजले कपड़ों में जाते, गुलाल-अबीर का टीका लगाते और गले मिलते।
पापा कानून-व्यवस्था के अधिकारी और जिम्मेदार पद पर थे इसलिए वे अगले दिन पुलिस की होली में भी शामिल होते। तमाम पुलिस अधिकारी और सिपाही उनके साथ होली खेलने आते पर उसमें परिवार की हिस्सेदारी नहीं होती थी। होशंगाबाद में हमारी पहली होली थी। धूम-धाम से मनाई। पर रंग-पंचमी पर हम कतई तैयार नहीं थे। वहां तब उस दिन local-holiday था जो जिलाधीश द्वारा घोषित होता है। मैं सुबह-सुबह धुले कपड़े पहनकर बाहर निकला ही था कि छुट्टी है, क्रिकेट खेलेंगे, या जंगली फल खाने के लिए दोस्तों के साथ भटकेंगे। लेकिन बाहर का दृश्य मेरे लिए बिलकुल नया था। मेरे सारे मित्र होली से ज्यादा रंगों में लिपे-पुते मेरे इंतजार में थे। कुछ ही देर में महिलाओं और दीदीयों की सहेलियों का भी आगमन भी हुआ। सारा आंगन, कमरे, रंगीन हो गए।
जिला न्यायालय का चौराहा: ये कोठी-बाज़ार का happening-place होता था। एक विशाल पेड़ के नीचे चबूतरा था। वकील, गवाह, जमीन/मकान के पंजीयन एवं जिलाधीश कार्यालय में जिनके काम होते, सब उस पेड़ की छांह में ही शरण लेते। उस पेड़ की छाया में ही तरह-तरह के तमाशे होते। एक कव्वाल अपने हार्मोर्नियम, ढ़ोलक और दो सहायक बच्चों के साथ आता और अजीज नाजा की मशहूर कव्वालियां सुनाता। ‘चढ़ता सूरज’ और ‘झूम बराबर झूम’ मैंने पहली बार वहीं सुनी। वो बंदा सुर और ताल की पकड़ रखता था। श्रोता अपनी-अपनी जेब के अनुसार उसे बख्शीस देते जिससे उसके परिवार का पेट भरता। वहां भालू/बंउर का नाच, सांप और नेवले की लड़ाई दिखाने वाले भी आते रहते।
एक बार वहां एक वैद्य जी अथवा हकीम भी आए। उन्होंने च्यवनप्राश बनाया। उसे कैसे बनाया जाता है, कौन सी चीजें किस मात्रा में लगती हैं, और ये आपकी ताकत और जवानी बनाए रखने में कितना महत्त्व रखता है, आदि दीगर सूचनाएं भी धारा-प्रवाह चलीं। मैं प्रभावित हुआ। भाग के घर गया, मां से पैसे मांगे और उस नव-निर्मित च्यवनप्राश का सबसे छोटा डिब्बा खरीदा। उसका मैं एक चौथाई भी नहीं खा पाया, जो एक अलग कहानी है। आम जनता से संवाद स्थापित करना मैंने इन लोगों से ही सीखा।
होशंगाबाद रेलवे स्टेशन: होशंगाबाद तब सिक्यूरिटी पेपर मिल और ट्रैक्टर ट्रेनिंग सेंटर होने के साथ एक तीर्थ स्थान भी था। परंतु कुछ चुनिंदा रेल-गाड़ियों का ही स्थानक था। प्लेटफार्म पर तब एक ही चाय की दुकान थी जिसके संचालक एक स्थूलकाय शरीर के स्वामी थे। पर वे थे गजब के फुर्तीले। चलती हुई गाड़ियों में (तब स्टीम इंजन ज्यादा होते थे) चाय के कुल्ल्ड पहुंचाना, ग्राहकों से पैसे लेना/देना वे बिजली की फुर्ती से संपन्न करते। उनकी दौड़ देख कर लोग आश्चर्य करते।
खेल: क्रिकेट तब तक किशोरों में बहुत लोकप्रिय हो चला था पर हॉकी उस समय भी होशंगाबाद का प्रिय खेल थी। SNG के स्टेडियम में हर वर्ष हॉकी की ‘national-level’ की प्रतियोगिता होती। इसमें मंदसौर, जालंधर, सागर आदि की तगड़ी टीम्स मुकाबला करतीं। सैंकड़ों दर्शक खिलाडि़यों का उत्साहवर्धन करने तथा खेल का आनंद उठाने स्टेडियम पर पहुंचते पर बच्चों के लिए तब गिल्ली-डंडा, कंचें, गपनी (जो सिर्फ बारिशों में खेली जाती) का प्रचलन ज्यादा था। हां, वहां बंबई के मटके का सट्टा नौजवानों और अधेड़ों का प्रिय शगल था। लगभग हर पानवाला सट्टे की पर्चियां लिखता। रात के लगभग 8 बजे नंबर खुलता और नंबर लगाने वाले या तो खुश होते अथवा दु:खी।
शब्द: मध्यप्रदेश में लगभग हर क्षेत्र में हिंदी (खड़ी बोली) का ही इस्तेमाल होता पर हर क्षेत्र के कुछ ऐसे शब्द होते, जो नवांतकों को चकरा देते। होशंगाबाद में तब दाल पकती नहीं पर चुरति थी। नर्मदा जी में लोग नहाने नहीं पर सपड़ने जाते, क्रिकेट मैं रन बनाए नहीं पर हेड़े जाते। नदी तक जाने वाले रास्ते या तो डीह कहलाते या सपील। गेहूं पिसी बन जाता और खेत में उगी फसल, जंगल कहलाती। शून्य को मिंडी कहा जाता और दोस्तों को बाबा।
चम्पतिया: हमारे होशंगाबाद में अवतरण के ठीक पहले, देहात में चम्पतिया का आतंक और खौफ था। जनमानस की राय थी कि चम्पतिया कभी बिल्ली, कुत्ता, भेड़िया अथवा जरख (HYNA) का रूप धर के आता है और बच्चों को उठा ले जाता है। इस चक्कर में बहुत सारे कुत्ते मारे गए। चम्पतिया की खोज खत्म न हुई। मैं अपने आप को परम सौभाग्यशाली मानता हूं कि मुझे नर्मदा तट पर लगभग चार साल बिताने का मौका मिला।
हर नर्मदे! अपना ख्याल रखिए और मस्त रहिए! जारी…
इस तरह मैं जिया-1: आखिर मैं साबित कर पाया कि ‘मर्द को दर्द नहीं होता’
इस तरह मैं जिया-2: लगता था ड्राइवर से अच्छी जिंदगी किसी की नहीं…
इस तरह मैं जिया-3: हम लखपति होते-होते बाल-बाल बचे…
इस तरह मैं जिया-4: एक बैरियर बनाओ और आने-जाने वालों से टैक्स वसूलो
इस तरह मैं जिया-5: वाह भइया, पुरौनी का तो डाला ही नहीं!
इस तरह मैं जिया-6: पानी भर कर छागल को खिड़की के बाहर लटकाया…
इस तरह मैं जिया-7: पानी भरे खेत, घास के गुच्छे, झुके लोग… मैं मंत्रमुग्ध देखता रहा
इस तरह मैं जिया-8 : मेरे प्रेम करने के सपने उस घटना के साथ चूर-चूर हो गए
इस तरह मैं जिया-9 : हमने मान लिया, वो आंखें बंद कर सपने देख रहे हैं
इस तरह मैं जिया-10 : हमारे लिए ये एक बड़ा सदमा था …
इस तरह मैं जिया-11: संगीत की तरह सुनाई देती साइकिल के टायरों की आवाज
इस तरह मैं जिया-12: मैसेज साफ था, जान-पैचान होने का मतलब यह नहीं कि तू घुस्ताई चला आएगा
इस तरह मैं जिया-13 : एक चाय की प्याली और ‘दीमाग खोराब से ठोंडा’ हो जाता
इस तरह मैं जिया-14 : तस्वीर संग जिसका जन्मदिन मनाया था वह 40 साल बाद यूं मिला …
इस तरह मैं जिया-15 : अगर कोई पवित्र आत्मा यहां से गुजर रही है तो …
इस तरह मैं जिया-16 : हम उसे गटागट के नाम से जानते थे …
इस तरह मैं जिया-17 : कर्नल साहब ने खिड़कियां पीटना शुरू की तो चीख-पुकार मच गई
इस तरह मैं जिया-18 : इतनी मुहब्बत! मुझे ऐसा प्रेम कहीं ना मिला
इस तरह मैं जिया-19 : एक दुकान जहां सुई से लेकर जहाज तक सब मिलता था
इस तरह मैं जिया-20 : मेरी बनाई झालर से झिलमिलाता था घर, कहां गए वे दिन?
इस तरह मैं जिया-21 : नायकर साहब पहले ही राउंड में बाहर हुए तो बुरा लगा
इस तरह मैं जिया-22 : … उसने जयघोष करते हुए परीक्षा हॉल में खर्रे बिखेर दिए
इस तरह मैं जिया-23 : फेंके हुए सिक्कों में से उनके हाथ 22 पैसे लगे…
इस तरह मैं जिया-24 : आई सा ‘मस्का-डोमेस्टिका’ इन माय रूम
इस तरह मैं जिया-25 : तब ऐसी बोलचाल को मोहब्बत माना जाता था
इस तरह मैं जिया-26 : बाल सेट करने का मतलब होता था ‘अमिताभ कट’