तब ऐसी बोलचाल को मोहब्बत माना जाता था

मनीष माथुर, सामाजिक कार्यकर्ता

होशंगाबाद (अब नर्मदापुरम): 1977-1981

ये वो समय था, जब एकतरफा भी मानने का चलन था, जैसे फिल्मों में हीरोइन, हीरो को अपना पति मान लेतीं थीं। यथार्थ में तब लड़के, अपनी अड़ोसन/पड़ोसन लड़की को अपनी प्रेमिका मान लेते थे। पिता – माता ये मान लेते थे कि उनका पुत्र इंजीनियर अथवा आईएएस बनने के लिए पूरी तरह योग्य और तैयार है। इसी तरह पुत्री डॉक्टर अथवा टीचर बनने के लिए लालायित है। इस बात का कोई मतलब नहीं था कि एक 14-15 वर्ष का बच्चा क्या पढ़ना चाहता है और क्या बनना चाहता है। जिंदगी बीजगणित (algebra) हुआ करती थी, जहां सब को X माना जा सकता था। अब X की वैल्यू कुछ भी हो सकती है। इसी परंपरा के तहत मुझे नवीं में PCM यानी फिजिक्‍स, केमेस्‍ट्री और मैथ्‍स दिलाया गया।

सारे पढ़े-लिखे परिवारों के बच्चे पीसीएम या पीसीबी (फिजिक्‍स, केमेस्‍ट्री और बायोलॉजी) में घुस पड़े। अत: मेरे गुरुजन इन्हीं विषयों के गुरु थे। भाषा में हमें एक मुख्य और दूसरी दोयम भाषा का चुनाव करना होता। मैंने हायर इंग्लिश और लोअर हिंदी ली थी। तो शुरू करते हैं, गुरुजनों के बारे में आगे की दास्तां।

पाटणकर सर: पाटणकर सर, घोडा सपील के सामने वाली रोड पर सदर बाजार में रहते थे और होशंगाबाद में गणित के सबसे अच्छे अध्यापक माने जाते थे, जिनके घर ट्यूशन पढ़ने दर्जनों बच्चे आते थे। वे गणित में स्नातक थे, अत: वे स्कूल में सिर्फ नवीं एवं दसवीं के बच्चों को पढ़ाते पर ट्युशन पढने वाले अधिकतर ग्यारहवीं के होते। उन्होंने ही हमें नवीं-दसवीं में पढ़ाया। वे बड़ी सहजता से हमें त्रिकोणमिति, बीजगणित और घनज्यामिति पढ़ाते। उनके स्नेहिल चेहरे पर सदा मुस्कराहट खिली रहती। बच्चों से उनका संबंध अत्यंत सहज होता था। गणित में डिब्बा छात्रों को भी वे सहजता से स्वीकारते और उनमें विश्‍वास जगाते कि गणित कठिन विषय नहीं है।

जोशी सर: रसायन विज्ञान के अध्यापक थे। रसायन विज्ञान की प्रयोगशाला भी उनकी जिम्मेदारी थी। वहां हमें titration करना होता। उस प्रयोगशाला के तमाम उपकरण बड़े आकर्षित करते। एक दिन मैंने वहां से एक pipette उठाई और अपने पेंट में खोंस ली। उद्देश्य शायद दीदियों को इम्प्रेस करना था कि मेरे पास एक pipette है। उसका मेरे घर पर क्या उपयोग होगा, इस से क्या लेना-देना? खैर, मेरे एक सहपाठी उम्मन मथाई, जो जोशी सर से ट्यूशन लेता था, ने सर को ये गुप्त जानकारी दे दी। सर ने मुझे बुलाया और नर्म स्‍वर में कहा कि चुराया गया उपकरण लैब को वापस लौटा दिया जाए। मेरी किस्मत, लौटाने के लिए मैं उसे अपने साइकिल के हैंडल पर रख कर आ रहा था। कांच की नली सड़क के दो दचके भी ना झेल पाई और दो टुकड़ों में विभाजित हो गई। मुझे उसका मुआवजा भरना पड़ा।

घोष सर: अत्यंत मितभाषी एवं गंभीर मुद्रा धारण करते थे। हमें भौतिक-शास्त्र पढ़ाते थे। मैंने आठवीं में कुछ छुट-पुट सफलताएं पाईं थीं अत; मुझे ‘अच्छे विद्यार्थी’ का तगमा मिल गया था। उन तीन छात्राओं की ठीक पीछे वाली डेस्क मुझे, और मुझ जैसे ‘अच्छे बच्चों’ को आवंटित हुई। शाला का नवीं का सत्र शुरू होने के एक सप्ताह बाद हमारा आगमन गर्मियों की छुट्टियों के बाद हुआ था। मैं जैसे ही कक्षा में घुसा तमाम साथियों ने मुझे उनके पास बैठने का आमंत्रण दिया। कन्याएं प्रभावित हुईं। घोष सर ने मुझे मेरी सीट बतायी। मुझे प्रसन्नता हुई।

मुझे लड़कियों से छेड़छाड़ और फब्तियां कसने में कोई रूचि नहीं थी। इसका एक मुख्य कारण शायद मेरी चार दीदीयां थीं। एक दिन मैं अपने नए डॉट पेन से खेल रहा था। उस समय का वह एक नया आविष्कार था। पेन का ढ़क्कन तेजी से उछला और नीचे की डेस्क पर एक छात्रा पर गिरा। उससे मैंने आंखों ही आंखों से माफी मांगी, और वो मिल भी गई। परंतु घोष सर की नजरों से वो नहीं छुपी। उन्होंने कहा, “मनीष, आगे आओ और घुटना टेक हो जाओ।” स्थिति गंभीर थी पर तब गुरुजनों का आदेश सर्वोपरी होता था। मैं उस पूरे काल खंड में घुटना टेक रहा और मेरे दुश्मनों को इससे बड़ी राहत मिली।

भोयर सर: रसायन विज्ञान के लेक्‍चरर थे। उन्होंने हमें नॉन-आर्गेनिक कैमेस्ट्री सिखाई। जो सिलिबस के हिसाब से हमें छह माही के पहले पढ़ाई जानी थी। छह माही के दौरान ही पापा का ट्रांसफर ग्वालियर हो गया। भोयर सर की तीन कन्याएं थीं। उसमें दो तो मेरी दीदीयों की सहपाठी थीं और सबसे छोटी मेरी सहपाठी थी जिससे मेरी बोलचाल थी। तब इसी बोलचाल को मोहब्बत माना जाता था।

रोमा मैम: जीव-विज्ञान की अध्यापिका थीं। कोठी बाजार में ही उनका निवास था। क्रिकेट में उनकी रूचि, बच्चों के प्रति प्यार, और उनका व्यवहार तथा उनका पहनावा मुझे बहुत आकर्षक लगता। उन्होंने मुझे कभी नहीं पढ़ाया पर उनसे मिलने और उनका ध्यान आकर्षित करना मुझे बहुत भाता।

लव–गुरु: आपका गुरु कोई अध्यापक ही हो, यह जरूरी नहीं। मुझे तैरना, घुड़सवारी करना, बड़े पेड़ों पा चढ़ना आदि किसी अध्यापक ने नहीं सिखाया। ऐसे ही मेरे लव–गुरु धर्मेंद्र भाई थे। आठवीं में वो मेरे सहपाठी थे। नवीं में उन्होंने कॉमर्स अथवा आर्ट्स में प्रवेश लिया परंतु मेरे साथ उनका रिश्ता अटूट रहा। आठवीं में ही उन्हें किसी लडकी से एकतरफा मोहब्‍बत हो गई, जो उस जमाने में ज्यादातर हुआ करती थी। वह लड़की इटारसी के किसी अंग्रेजी माध्यम स्कूल में पढ़ती थी।

धर्मेंद्र जब अपना बस्ता संभालते स्कूल आते तो रास्ते में ही कहीं उसका बस स्टॉप था। धर्मेंद्र को पक्का विश्‍वास था कि वो बस में चढ़ने के पहले उन्हें निहारती है। उन्हीं दिनों जितेंद्र की एक फिल्म आई, ‘दिलदार’! फिल्म में, एक देहाती युवक से एक शहरी अंग्रेजी बोलने वाली लड़की की मुहब्बत की कहानी थी। धर्मेंद्र फौरन जितेंद्र में परिवर्तित हो गए और उस फिल्म का एक गाना, “तेरी-मेरी शादी, सीढ़ी-साधी, पंडित ना शहनाई रे” गुनगुनाने लगे। उसका एक अंतरा उसकी जुबान पर रहता, “मैं अनपढ़, तू पढ़ी-लिखी, कैसे अपनी आंख लड़ी, तू शहरी मैं देहाती, बने कैसे जीवन-साथी”।

वह नवीं में पास न हो सका, और मैंने सीखा कि इश्क नहीं आसान।

इस तरह मैं जिया-1:  आखिर मैं साबित कर पाया कि ‘मर्द को दर्द नहीं होता’

इस तरह मैं जिया-2: लगता था ड्राइवर से अच्छी जिंदगी किसी की नहीं…

इस तरह मैं जिया-3: हम लखपति होते-होते बाल-बाल बचे…

इस तरह मैं जिया-4: एक बैरियर बनाओ और आने-जाने वालों से टैक्स वसूलो

इस तरह मैं जिया-5: वाह भइया, पुरौनी का तो डाला ही नहीं!

इस तरह मैं जिया-6: पानी भर कर छागल को खिड़की के बाहर लटकाया…

इस तरह मैं जिया-7: पानी भरे खेत, घास के गुच्छे, झुके लोग… मैं मंत्रमुग्‍ध देखता रहा

इस तरह मैं जिया-8 : मेरे प्रेम करने के सपने उस घटना के साथ चूर-चूर हो गए

इस तरह मैं जिया-9 : हमने मान लिया, वो आंखें बंद कर सपने देख रहे हैं

इस तरह मैं जिया-10 : हमारे लिए ये एक बड़ा सदमा था …

इस तरह मैं जिया-11: संगीत की तरह सुनाई देती साइकिल के टायरों की आवाज

इस तरह मैं जिया-12: मैसेज साफ था, जान-पैचान होने का मतलब यह नहीं कि तू घुस्ताई चला आएगा

इस तरह मैं जिया-13 : एक चाय की प्याली और ‘दीमाग खोराब से ठोंडा’ हो जाता

इस तरह मैं जिया-14 : तस्‍वीर संग जिसका जन्‍मदिन मनाया था वह 40 साल बाद यूं मिला …

इस तरह मैं जिया-15 : अगर कोई पवित्र आत्मा यहां से गुजर रही है तो …

इस तरह मैं जिया-16 : हम उसे गटागट के नाम से जानते थे …

इस तरह मैं जिया-17 : कर्नल साहब ने खिड़कियां पीटना शुरू की तो चीख-पुकार मच गई

इस तरह मैं जिया-18 : इतनी मुहब्बत! मुझे ऐसा प्रेम कहीं ना मिला

इस तरह मैं जिया-19 : एक दुकान जहां सुई से लेकर जहाज तक सब मिलता था

इस तरह मैं जिया-20 : मेरी बनाई झालर से झिलमिलाता था घर, कहां गए वे दिन?

इस तरह मैं जिया-21 : नायकर साहब पहले ही राउंड में बाहर हुए तो बुरा लगा

इस तरह मैं जिया-22 : … उसने जयघोष करते हुए परीक्षा हॉल में खर्रे बिखेर दिए

इस तरह मैं जिया-23 : फेंके हुए सिक्कों में से उनके हाथ 22 पैसे लगे…

इस तरह मैं जिया-24 : आई सा ‘मस्का-डोमेस्टिका’ इन माय रूम

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