इस तरह मैं जिया-21: पड़ोसियों के नाम भी बहुत सरल होते, जैसे छोटे गुड्डा-बड़े गुड्डा, छोटी मुन्नी-बड़ी मुन्नी
हर जीवन की ऐसी ही कथा होती है जिसे सुनना उसे जीने जितना ही दिलचस्प होता है। जीवन की लंबी अवधि सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में गुजारने वाले इस शृंखला के लेखक मनीष माथुर के जीवन की कथा को सुनना-पढ़ना साहित्य कृति को पढ़ने जितना ही दिलचस्प और उतना ही सरस अनुभव है। यह वर्णन इतना आत्मीय है कि इसमें पाठक को अपने जीवन के रंग और अक्स दिखाई देना तय है।
मनीष माथुर, सामाजिक कार्यकर्ता
होशंगाबाद (अब नर्मदापुरम): 1977-1981
दुर्गा पूजा पर बिजय क्लब के भाई और उनके मित्र, एक नाटक (एकांकी) भी तैयार करते और सारे भाइयों का कुछ रोल होता। इसका प्रचार लाउड-स्पीकर्स पर जोर-शोर से किया जाता, और पूजा का यह एक खास आइटम होता। बाकी की शामें फिल्म प्रदर्शन, एक ऑर्केस्ट्रा शो, बच्चों के डांस, और कॉमेडी शो से गुलजार रहतीं।
उन दिनों स्टैंड-अप कॉमेडियन, केके नायकर (जबलपुर वाले) इस क्षेत्र में बहुत लोकप्रिय थे। उनके शो के लिए पूरा होशंगाबाद और इटारसी भी उमड़ आता। उनकी कहानियां, ‘स्काई-लैब; एक पंसारी की दूकान का चित्रण, अंग्रेजी फिल्मों के ट्रेलर” बहुत हंसाती। हम खूब मजे लेते। उनका वही जलवा 90 के दशक तक बरकरार था। (सम्भवतः 1991 की गणपति पूजा का समय था, मैं भोपाल में नौकरी कर रहा था, मेरे मित्र वीरेंद्र राजगुरु और आपका आज्ञाकारी नायकर साहब को सुनने भोपाल के एमपी नगर के ग्राउंड पर गए थे। उन्हें सुनने वहां भी हजारों लोग जमा थे। बाद में जब कॉमेडी शो टेलीविजन पर शुरू हुए और नायकार साहब पहले ही राउंड में बाहर हुए तो मुझे बुरा लगा।)
अड़ोस-पड़ोस
मेरा सौभाग्य ही था, कि पन्ना के बाद हमें दूसरी बार, मोहल्ले में रहने का मौका मिला। सिविल-लाइंस या ऑफिसर्स कॉलोनी या तो बेजान होती हैं अथवा यांत्रिक। एक रंगे मकान, एक ही डिजाइन के बंगले और सभी का दैनिक जीवन भी लगभग एक साथ ही आरंभ और अंत होता है।
कस्बाई मोहल्ले सजीव होते हैं। वहां के रहवासी एक रंगे नहीं होते। उनमें एक पहाड़ी नदी की तरह का बहाव होता है। उस बहाव को कोई नियंत्रित नहीं करता। कभी भी पूर आ सकती है। सब जाती, व्यवसाय , अमीर, गरीब परिवार एक साथ ही रहते हैं। कोई भेदभाव या अलग दिनचर्या जैसा माहौल नहीं होता।
हमारे पड़ोसियों के नाम भी बहुत सरल होते, यथा, छोटे गुड्डा-बड़े गुड्डा, छोटी मुन्नी-बड़ी मुन्नी। हग्गा-पग्गा, कचरा–पेंडा, पोचा आदि। कुछ नाम अजीब लगते, पर रहवासियों के अनुसार, जिनके बच्चे अपने शैशव में ही गुजर जाते, वे अपने बच्चों के नाम ऐसे रखते जिसे नज़र ना लगे। एक मेरा हमउम्र राजू बहुत अच्छा गाता था। जब हमारी गली से गुजरता, किशोर का कोई गाना उसके होठों पे होता।
जीवन बहुत सरल था। सुबह उठो और नर्मदा जी में नहा के आओ, तैरो और पल्ले पार तक तैर के आओ। नर्मदा जी में हर तरह की मछलियां और पानी के जीव जैसे पातळ, कछुए, केकड़े, झींगे आदि शरण पाते, और लोगों का भोजन बनते।
एक बार मेरे किसी दोस्त ने एक बहुत ही सुंदर और नन्हा सा कछुआ दिया। हमारे पास एक छोटा सा मछली-घर (aquarium) भी था, जिसमें कुछ छोटी रंग-बिरंगी मछलियां तैरतीं। मैंने वो कछुआ भी उसी में छोड़ दिया। कुछ दिनों में ही पता चला कि वो एक पातळ है (जो मांसहारी होती है)। लिहाजा कुछ मछलियां सुबह आधी कटी हुई दीखतीं। उसकी सुंदरता के बावजूद मैं उसे नर्मदा जी में छोड़ आया।
आठवीं में ही मुझे पता चला कि होशंगाबाद जिले की तैराकी टीम का चयन हो रहा है। जोशी सर जो जिले के कोच थे, पटे घाट (या सेठानी घाट) पर जिला टीम का चयन कर रहे थे। मैं भी ट्रायल देने पहुंचा। जोशी सर बोले, ठीक है। पर तुम्हें स्विमिंग कॉस्ट्यूम और इंदौर जाने-आने का ट्रेन का किराया देना होगा। मैं राजी हुआ। अपने मां-बाप को भी राजी किया (उस समय पैसेंजर ट्रेन का किराया बहुत कम हुआ करता था)। आज की तरह, स्लीपर कोच, AC कोच, तत्काल टिकट का जमाना नहीं था। सरकार द्वारा दमड़ी वसूलने की प्रथा तब शुरू नहीं हुई थी। रात में ट्रेन में लद के सुबह हम इंदौर पहुंचे।
मैंने जिंदगी में पहली बार तरन-ताल (स्विमिंग पूल) देखा, जो तीस मीटर ही लंबा था। जहां दस मीटर ऊंचा डाइविंग प्लेटफार्म भी था। क्यूंकि हमारी ट्रेन लेट पहुंची थी, मेरे एज-ग्रुप के शुरूआती हीट्स खत्म हो चुके थे। जोशी सर बोले अब तुम बड़े एज ग्रुप में खेलोगे। ना तो मुझे सही तरीके से डाइविंग आती थी, और ना ही समर साल्ट। तीन बच्चों की रेस में, मैं तीसरा था।
होशंगाबाद लौटते हुए मैंने अपने छोटे भाई के लिए एक कॉमिक्स और एक पाव लिया। परंतु होशंगाबाद पहुंचने के पहले ही मेरे टीम के साथी, उसे हजम कर चुके थे।
इस तरह मैं जिया-1: आखिर मैं साबित कर पाया कि ‘मर्द को दर्द नहीं होता’
इस तरह मैं जिया-2: लगता था ड्राइवर से अच्छी जिंदगी किसी की नहीं…
इस तरह मैं जिया-3: हम लखपति होते-होते बाल-बाल बचे…
इस तरह मैं जिया-4: एक बैरियर बनाओ और आने-जाने वालों से टैक्स वसूलो
इस तरह मैं जिया-5: वाह भइया, पुरौनी का तो डाला ही नहीं!
इस तरह मैं जिया-6: पानी भर कर छागल को खिड़की के बाहर लटकाया…
इस तरह मैं जिया-7: पानी भरे खेत, घास के गुच्छे, झुके लोग… मैं मंत्रमुग्ध देखता रहा
इस तरह मैं जिया-8 : मेरे प्रेम करने के सपने उस घटना के साथ चूर-चूर हो गए
इस तरह मैं जिया-9 : हमने मान लिया, वो आंखें बंद कर सपने देख रहे हैं
इस तरह मैं जिया-10 : हमारे लिए ये एक बड़ा सदमा था …
इस तरह मैं जिया-11: संगीत की तरह सुनाई देती साइकिल के टायरों की आवाज
इस तरह मैं जिया-12: मैसेज साफ था, जान-पैचान होने का मतलब यह नहीं कि तू घुस्ताई चला आएगा
इस तरह मैं जिया-13 : एक चाय की प्याली और ‘दीमाग खोराब से ठोंडा’ हो जाता
इस तरह मैं जिया-14 : तस्वीर संग जिसका जन्मदिन मनाया था वह 40 साल बाद यूं मिला …
इस तरह मैं जिया-15 : अगर कोई पवित्र आत्मा यहां से गुजर रही है तो …
इस तरह मैं जिया-16 : हम उसे गटागट के नाम से जानते थे …
इस तरह मैं जिया-17 : कर्नल साहब ने खिड़कियां पीटना शुरू की तो चीख-पुकार मच गई
इस तरह मैं जिया-18 : इतनी मुहब्बत! मुझे ऐसा प्रेम कहीं ना मिला
इस तरह मैं जिया-19 : एक दुकान जहां सुई से लेकर जहाज तक सब मिलता था
इस तरह मैं जिया-20 : मेरी बनाई झालर से झिलमिलाता था घर, कहां गए वे दिन?