इस तरह मैं जिया-26: एक दिन वह लड़की मेरे घर आई और मेरी खुशी तभी गम में बदल गई
हर जीवन की ऐसी ही कथा होती है जिसे सुनना उसे जीने जितना ही दिलचस्प होता है। जीवन की लंबी अवधि सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में गुजारने वाले इस शृंखला के लेखक मनीष माथुर के जीवन की कथा को सुनना-पढ़ना साहित्य कृति को पढ़ने जितना ही दिलचस्प और उतना ही सरस अनुभव है। यह वर्णन इतना आत्मीय है कि इसमें पाठक को अपने जीवन के रंग और अक्स दिखाई देना तय है।
मनीष माथुर, सामाजिक कार्यकर्ता
होशंगाबाद (अब नर्मदापुरम): 1977-1981
शुरू करते हैं, गुरुजनों के बारे में आगे की दास्तां।
चौधरी साहब SNG के प्राचार्य थे। मेरा उनसे पहला आमना-सामना उस जिला स्तरीय वाद-विवाद प्रतियोगिता जीतने के अगले दिन हुआ था। कोठी बाजार में ही उनकी शानदार कोठी थी और होशंगाबाद में पुश्तैनी जमीनें। मेरे पिता और चौधरी साहब आपस में परिचित थे और शायद दोस्त भी। मेरी सबसे बड़ी दीदी और उनकी बेटी सहपाठी थे और उनका पुत्र मेरी सबसे छोटी दीदी का। अतः मेरा उनके घर आना–जाना होता रहता था। कभी दीदी को कोई पुस्तक मंगानी होती, कभी हर्बेरियम भेजना होता। ये आवागमन दोतरफा था और मैं इसमें हरकारे या डाकिये की भूमिका निभाता। वह परिवार अब हमारे पारिवारिक मित्र की श्रेणी में आ चुका था।
दसवीं तक आते-आते मेरा नाम पढ़ाकू बच्चों की लिस्ट से हटने लगा था। मेरे कुल अंकों का प्रतिशत नवीं में 64-65 तक गिर चुका था। मेरी सबसे बड़ी दुश्मन मेरी दीदीयां थीं जो लगातार कक्षा की प्रावीण्य सूची में स्थान पातीं। और तो और मेरा छोटा भाई भी अच्छे अंक लाकर मेरा प्रतिस्पर्धी हो गया था। मुझे इसको लेके कभी चिंता नहीं थी क्योंकि मैं गाड़ी चलाना अच्छे से सीख चुका था। पापा की सरकारी जीप के चालक ‘शिकालू’ जो लगभग हर चालकों की तरह खुशमिजाज थे, द्वारा मुझे “भैया आप अच्छे ड्राइवर हो” का प्रमाण पत्र भी दे दिया गया था। और मैं जानता था कि मैं हूं। सपना भी ASHOK LEYLAND के मालिक बनने का था जो उस वक्त मुझे बड़ा प्रैक्टिकल और रोमांचक लगता।
अमिताभ बच्चन तब तक राजेश खन्ना के स्टारडम को भेदते हुए एक एंग्री यंग-मैन के तौर पर अपना परचम लहरा चुके थे। होशंगाबाद के लगभग साठ प्रतिशत किशोर एवं युवा अपने आप को अमिताभ बनाने/बताने पर तुल गए थे। मेरे घर से कोई बीस मीटर दूर जो नाई की दुकान थी उसने भी अपने बोर्ड पर लिखवा दिया था, ‘सेविंग, कटिंग के साथ-साथ यहां बाल भी सेट किए जाते हैं।’ बाल सेट करने का हिंदी रूपांतरण तब ‘अमिताभ कट’ हुआ करता था। मैं क्यों पीछे रहता?
स्कूल में सुबह की प्रार्थना और राष्ट्र-गान के बाद सब अपनी–अपनी कक्षा में जाते, सिवाय उन के जो बोलचाल की भाषा में ‘without – dress’ (स्कूल गणवेश) में नहीं आते। उन्हीं चुनिंदा छात्रों में से एक को उसकी सूची प्राचार्य महोदय को देनी पड़ती थी। प्राचार्य महोदय उस सूची को अपने बाबू को थमाते, और सबको नसीहत देते कि शाला एक मंदिर है, जहां सभी को नहा कर और गणवेश धारण कर के ही आना चाहिए। बड़ी साधारण सी प्रक्रिया थी। परंतु चौधरी साहब, उनके शांत और अनुशासन पसंदगी के स्वभाव से सभी परिचित थे। मेरे जैसे सहपाठियों ने यह शुभ कार्य मुझे सौंपा।
मैं भी इस गुमान में था कि प्राचार्य महोदय मुझे जानते हैं इसलिए निर्भीक होकर मंच पर सूची लेके चढ़ गया। कायदे से मुझे अपने चहरे पर शर्म और खेद का भाव लाना था पर अमिताभ की तरह मैं अतिरिक्त आत्मविश्वास और सर तो मुझे जानते हैं के भाव के साथ उनके समीप गया और मुस्कुराते हुए वो सूची उन्हें सौंपी। चौधरी साहब ने पहले तो मेरे बढ़े हुए बाल झिंझोड़े फिर दोनों गालों पर एक-एक तमाचा रसीद किया। मुझे बड़ा अचरज हुआ कि मेरे परिचित भरी सभा में ऐसा क्यों कर रहे हैं? मैं अपने अपमान हुए भाव के साथ नीचे उतरा। मुझे अहसास हुआ कि किसी को एक पारिवारिक मित्र के तौर पर जानना और एक प्राचार्य के रूप में पहचानने में अंतर होता है।
स्कूल के अंतिम दिन:
अब तक मेरा पारंपरिक शिक्षा से लगाव खत्म हो गया था। मुझे लगता था कि मैं भौतिकी, रसायन शास्त्र और गणित पढ़ कर अपना जीवन बर्बाद कर रहा हूं। पर उस समय ऐसे विचारों को व्यक्त करने का समय नहीं आया था। दसवीं की छमाही परीक्षा में मैं संभवतः रसायन शास्त्र में फेल हुआ। उन दिनों अपनी मार्कशीट अपने अभिभावक से साइन करवानी होती थी। मैंने अपनी मां के फर्जी हस्ताक्षर किए और राहत पायी।
मुझे अपने लड़के दोस्तों पर तो भरोसा था लेकिन एक दिन वह लड़की मेरे घर आई और मेरी खुशी तभी गम में बदल गई जब उसने मेरी मां को बताया कि छमाही का रिजल्ट तो आ चुका है। मनीष को मार्कशीट भी दी गई है! पता नहीं मैंने इस बला को कैसे टाला,पर मेरे परिवार को समझ आ चुका था कि मैं जीवन की दौड़ में पिछड़ चुका हूं।
इस तरह मैं जिया-1: आखिर मैं साबित कर पाया कि ‘मर्द को दर्द नहीं होता’
इस तरह मैं जिया-2: लगता था ड्राइवर से अच्छी जिंदगी किसी की नहीं…
इस तरह मैं जिया-3: हम लखपति होते-होते बाल-बाल बचे…
इस तरह मैं जिया-4: एक बैरियर बनाओ और आने-जाने वालों से टैक्स वसूलो
इस तरह मैं जिया-5: वाह भइया, पुरौनी का तो डाला ही नहीं!
इस तरह मैं जिया-6: पानी भर कर छागल को खिड़की के बाहर लटकाया…
इस तरह मैं जिया-7: पानी भरे खेत, घास के गुच्छे, झुके लोग… मैं मंत्रमुग्ध देखता रहा
इस तरह मैं जिया-8 : मेरे प्रेम करने के सपने उस घटना के साथ चूर-चूर हो गए
इस तरह मैं जिया-9 : हमने मान लिया, वो आंखें बंद कर सपने देख रहे हैं
इस तरह मैं जिया-10 : हमारे लिए ये एक बड़ा सदमा था …
इस तरह मैं जिया-11: संगीत की तरह सुनाई देती साइकिल के टायरों की आवाज
इस तरह मैं जिया-12: मैसेज साफ था, जान-पैचान होने का मतलब यह नहीं कि तू घुस्ताई चला आएगा
इस तरह मैं जिया-13 : एक चाय की प्याली और ‘दीमाग खोराब से ठोंडा’ हो जाता
इस तरह मैं जिया-14 : तस्वीर संग जिसका जन्मदिन मनाया था वह 40 साल बाद यूं मिला …
इस तरह मैं जिया-15 : अगर कोई पवित्र आत्मा यहां से गुजर रही है तो …
इस तरह मैं जिया-16 : हम उसे गटागट के नाम से जानते थे …
इस तरह मैं जिया-17 : कर्नल साहब ने खिड़कियां पीटना शुरू की तो चीख-पुकार मच गई
इस तरह मैं जिया-18 : इतनी मुहब्बत! मुझे ऐसा प्रेम कहीं ना मिला
इस तरह मैं जिया-19 : एक दुकान जहां सुई से लेकर जहाज तक सब मिलता था
इस तरह मैं जिया-20 : मेरी बनाई झालर से झिलमिलाता था घर, कहां गए वे दिन?
इस तरह मैं जिया-21 : नायकर साहब पहले ही राउंड में बाहर हुए तो बुरा लगा
इस तरह मैं जिया-22 : … उसने जयघोष करते हुए परीक्षा हॉल में खर्रे बिखेर दिए
इस तरह मैं जिया-23 : फेंके हुए सिक्कों में से उनके हाथ 22 पैसे लगे…
इस तरह मैं जिया-24 : आई सा ‘मस्का-डोमेस्टिका’ इन माय रूम
इस तरह मैं जिया-25 : तब ऐसी बोलचाल को मोहब्बत माना जाता था