इस तरह मैं जिया-22: स्कूल के बस्ते के साथ एक अतिरिक्त बस्ता में फिलिप्स का बड़ा ट्रांजिस्टर लाया जाता
हर जीवन की ऐसी ही कथा होती है जिसे सुनना उसे जीने जितना ही दिलचस्प होता है। जीवन की लंबी अवधि सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में गुजारने वाले इस शृंखला के लेखक मनीष माथुर के जीवन की कथा को सुनना-पढ़ना साहित्य कृति को पढ़ने जितना ही दिलचस्प और उतना ही सरस अनुभव है। यह वर्णन इतना आत्मीय है कि इसमें पाठक को अपने जीवन के रंग और अक्स दिखाई देना तय है।
मनीष माथुर, सामाजिक कार्यकर्ता
होशंगाबाद (अब नर्मदापुरम): 1977-1981 में मेरे दोस्त:
कोठी बाजार में प्रवेश करते ही हमें गौरी सेठ पर निर्भर होना पड़ा। एक तो उनके प्रोडक्ट्स की क्वालिटी और उस पर उनका व्यवहार मेरे पापा को भा गया। उन दिनों, जो पापा को भाए वही परिवार को भाए का प्रचलन था। अतः मेरा पहला दोस्त बना उनका सुपुत्र संदीप विजयवर्गीय जो मेरी क्लास में ही था। वह एक अच्छा क्रिकेटर भी था और कॉर्क बॉल और लकड़ी के फट्टे से बने बल्ले से खेलने वाली हमारी टीम का कप्तान भी था। मैं जब पहली बार उससे मिला और पूछा कि वो कौन से स्कूल में पढता है तो जवाब मिला; ‘SNG’। मुझे लगा अंग्रेजी माध्यम का स्कूल होगा थोड़ा सहमा। पूछा और भी स्कूल हैं क्या? “हां, दूसरा गवर्नमेंट स्कूल है पर कोठी बाजार से दूर है।” मोहल्ले के अधिकतर लड़के SNG में पढ़ते थे। उनसे मैंने अंग्रेजी का एक शब्द भी नहीं सुना था। भ्रम दूर हुआ जब पता चला कि SNG सेठ नन्हेलाल घासीराम स्कूल का शोर्ट फॉर्म था।
राजेश,नीलेश, चेतन: ये तीन भाई हमारे पड़ोस में ही रहते थे। उस परिवार का वातावरण बहुत धार्मिक था। लगभग हर पंद्रह दिनों में उनके घर पर भजन और हवन आदि चलते रहते। अड़ोस-पड़ोस की महिलाएं उनमें बढ-चढ़ के शामिल होतीं, और सभा की समाप्ति पर अपने दौनों में पंजीरी, हलुआ आदि का प्रसाद ले कर जातीं। चेतन यद्यपि मुझ से छोटा था पर उसने मुझे तैराकी सिखाने में काफी मदद की।
संजय ठाकुर: एक और पडोसी और हमारी क्रिकेट टीम का कपिल देव। बड़े पेड़ों पर चढ़ना और फल तोड़ कर सारी टीम को खिलाना भी उसकी महत्वपूर्ण भूमिकाओं में शामिल था। बांद्राभान में उनकी पुश्तैनी जमीन है। कई बार उसके गांव से घोड़ा गाड़ी आती। घोड़ों को पानी पिलाने हम नर्मदा जी तक घुडसवारी करते। मुझे छोटे बिही के पेड़ों पर चढ़ने में कोई दिक्कत नहीं होती थी पर बड़े पेड़ जैसे, कबीट, बिलायिची (विलायती) इमली, आम पर चढ़ने में मैं डरता था। ठाकुर साहब ने मेरा वो डर दूर किया और टूटी-फूटी घुड़सवारी भी सिखाई। हम आज भी संपर्क में हैं।
SNG में दाखिले के बाद, दोस्तों का दायरा बढ़ गया। प्रभात, प्रफुल्ल, अजय, राजीव, महेंद्र, गणेश, शरद जैसे नए दोस्त बने। हमारी क्लास में एक छात्र था संतोष। निर्भीक और बिंदास। पर वह ढीट नहीं था। उस समय ट्रांजिस्टर पर जसदेव सिंह, सुशील दोषी और मुरली मनोहर मंजुल की खनकती हुई आवाज में क्रिकेट मैच के आंखों देखा हाल सुनने का भूत लड़कों के सिर चढ़ कर बोलता था। संतोष भाई मैच के दिनों में अपने स्कूल के बस्ते के साथ एक अतिरिक्त बस्ता लाते जिसमें फिलिप्स का बड़ा सा ट्रांजिस्टर होता। हर काल-खंड के बाद जब मास्साब की अदला-बदली होती, संतोष के ट्रांजिस्टर की आवाज बढ़ जाती।
हमारी आठवीं की छमाही की परीक्षा चल रही थी। आठवीं चूंकि बोर्ड एग्जाम होते थे इसलिए उसकी छमाही परीक्षा में भी काफी सख्ती बरती जाती। याद नहीं किस विषय का पर्चा था। नकल न हो यह सुनिश्चित करने को एक वरीय शिक्षक तैनात थे। संतोष खिड़की के पास वाली बेंच पर बैठता ताकि अपने खर्रे उसकी संदों में छुपा सकें। हुआ यूं कि शिक्षा विभाग के एक सज्जन कोई संदेश देने आए। मास्साब उनसे बात करने गलियारे में चले गए। संतोष ने देखा कि बातें करते हुए वे दोनों थोड़ी दूर चले गए। उसने अपनी बुलंद आवाज में जयघोष किया, “लो अब सूतो”। बिजली की गति से उसने जहां-तहां छुपी पर्चियां निकालीं और भिड़ गया। कई अन्य भी लग पड़े। उनके चेहरों की दमक मुझे आज भी नहीं भूलती।
नवीं कक्षा में कुछ नए साथी जुड़े। उनमें एक था नीरज मेंदिरत्ता। उसके पिता प्रतिभूति कागज कारखाने (Security Paper Mill) के वरीय अधिकारी थे और दिल्ली से तबादले पर आए थे। नीरज दिल्ली के केंद्रीय विद्यालय से था। तेज दिमाग, बहुत सुरुचिपूर्ण और शानदार हस्तलिपि का मालिक। उससे मैंने जाना कि नोट्स कैसे बनाए जाते हैं। वह अपने साथ जिल्द करवाई हुई मोटी रफ कॉपी रखता और lectures के जरूरी बिंदु नोट करता था।
इसी साल सन्मुख दास भी मित्र बना, जिसके पिता की बड़ी सी मिठाई की दुकान सेठानी घाट के नजदीक थी। परंतु सबसे बड़ी घटना ये घटी कि नवीं में तीन लड़कियों ने भी हमारे बालक विद्यालय में प्रवेश लिया। होशंगाबाद में उस समय कन्या विद्यालय में PCM का विकल्प नहीं था। अतः गणित की छात्राओं के लिए यह व्यवस्था की गई थी।
इस तरह मैं जिया-1: आखिर मैं साबित कर पाया कि ‘मर्द को दर्द नहीं होता’
इस तरह मैं जिया-2: लगता था ड्राइवर से अच्छी जिंदगी किसी की नहीं…
इस तरह मैं जिया-3: हम लखपति होते-होते बाल-बाल बचे…
इस तरह मैं जिया-4: एक बैरियर बनाओ और आने-जाने वालों से टैक्स वसूलो
इस तरह मैं जिया-5: वाह भइया, पुरौनी का तो डाला ही नहीं!
इस तरह मैं जिया-6: पानी भर कर छागल को खिड़की के बाहर लटकाया…
इस तरह मैं जिया-7: पानी भरे खेत, घास के गुच्छे, झुके लोग… मैं मंत्रमुग्ध देखता रहा
इस तरह मैं जिया-8 : मेरे प्रेम करने के सपने उस घटना के साथ चूर-चूर हो गए
इस तरह मैं जिया-9 : हमने मान लिया, वो आंखें बंद कर सपने देख रहे हैं
इस तरह मैं जिया-10 : हमारे लिए ये एक बड़ा सदमा था …
इस तरह मैं जिया-11: संगीत की तरह सुनाई देती साइकिल के टायरों की आवाज
इस तरह मैं जिया-12: मैसेज साफ था, जान-पैचान होने का मतलब यह नहीं कि तू घुस्ताई चला आएगा
इस तरह मैं जिया-13 : एक चाय की प्याली और ‘दीमाग खोराब से ठोंडा’ हो जाता
इस तरह मैं जिया-14 : तस्वीर संग जिसका जन्मदिन मनाया था वह 40 साल बाद यूं मिला …
इस तरह मैं जिया-15 : अगर कोई पवित्र आत्मा यहां से गुजर रही है तो …
इस तरह मैं जिया-16 : हम उसे गटागट के नाम से जानते थे …
इस तरह मैं जिया-17 : कर्नल साहब ने खिड़कियां पीटना शुरू की तो चीख-पुकार मच गई
इस तरह मैं जिया-18 : इतनी मुहब्बत! मुझे ऐसा प्रेम कहीं ना मिला
इस तरह मैं जिया-19 : एक दुकान जहां सुई से लेकर जहाज तक सब मिलता था
इस तरह मैं जिया-20 : मेरी बनाई झालर से झिलमिलाता था घर, कहां गए वे दिन?
इस तरह मैं जिया-21 : नायकर साहब पहले ही राउंड में बाहर हुए तो बुरा लगा