फेंके हुए सिक्कों में से उनके हाथ 22 पैसे लगे…

मनीष माथुर, सामाजिक कार्यकर्ता

होशंगाबाद (अब नर्मदापुरम): 1977-1981

होशंगाबाद में अपने दूसरे वर्ष के विस्तार में जाने के पहले, पहले साल की कुछ और यादों को उकेरना चाहूंगा। हमारा देश वैसे भी त्यौहार, मेले, उत्सवों को मनाने वाला देश है, और अगर आप नर्मदा जी के तीरे बसे हो, तो लगभग हर दिन जीवन को मनाया जाता है।

मेले: राम जी बाबा का मेला:

होशंगाबाद कस्बे का एक बड़ा मेला ‘रामजी बाबा’ का मेला होता है। मेला माघ पूर्णिमा से एक दिन पूर्व भराता है। मेरी समझ बनी कि, मेले भराते हैं, उत्सव-त्यौहार मनाते हैं। स्वामी रामदास (जिन्हें प्यार और श्रद्धा से रामजी बाबा पुकारते हैं) का अवतरण ग्‍वालियर रियासत में सम्वत 1601 के आसपास हुआ था। आपने आज से लगभग 400 वर्ष पूर्व मां नर्मदा और तवा के संगम बांद्राभान के पास घानाबढ़ को अपनी तपस्या स्थली चुना, जो होशंगाबाद से लगभग 7 किलोमीटर की दूरी पर है।

मेले में तमाम तमाशों, सरकारी पंडालों, तरह-तरह की दुकानों, झूले, मौत का कुंआ, के अलावा, दिन में मुख्य मंच पर शालेय छात्र–छात्राओं के लिए सांस्कृतिक कार्यक्रम, वाद-विवाद प्रतियोगिताएं होतीं। शाम ढ़लने पर यही मंच कभी मेलोडी–मेकर्स जबलपुर के ऑर्केस्ट्रा से शोभित होता तो कभी केके नायकर अथवा कवि सम्मलेन से, जिनका आनंद लेने लोग परिवार सहित आते। सबके बैठने के लिए कुर्सियां और गद्दे होते। माघ और फाल्गुन माह के मिलन का समय अद्भुत होता है। रातों में हलकी ठंडक और फागुनी हवा ऊपर से मैया का तट, असीम आनंद का कारण बनते। शाम के कार्यक्रम लगभग रात 11 बजे छूटते और लोग-बाग सपरिवार पैदल ही निकल पड़ते। वापसी यात्राओं में, देखे गए कार्यक्रम की समालोचना की जाती, मूंगफलियां तोड़-तोड़ कर खाई जातीं और परिवार-मित्र अपने-अपने ठिए लगते। आप क्या करते हो, कितना कमाते हो इसका कोई भेद नजर नहीं आता। लोग मेले में प्रवेश जब भी करें उनका निकास मोहल्ले के झुंड अनुसार होता। महिलाएं, पुरुष, लडकियां, लड़के सब उस समूह का हिस्सा होते जो शनै: शनै: कृपण होता हुआ, मैया के तट पर समाप्त होता।

सरकारी गाड़ीधारी अधिकारी अपनी जीप में बिराजते, जिन्हें चलने में तकलीफ हो, उनके लिए तांगे तैयार रहते। मंच की झिझक मुझे कभी नहीं रही। हमारे SNG स्कूल की तरफ से जिलास्तरीय, वाद-विवाद प्रतियोगिता जो रामजी बाबा मेला स्थल पर आयोजित होती थी मेरा चयन हुआ। मेरे जोड़ीदार संजीव रिछारिया थे जो ग्यारहवीं में पढ़ते थे। उनका अनुज राजीव मेरा सहपाठी था। राजीव स्कूल के सबसे अच्छे debater थे। मेरा सौभाग्य कि मुझ आठवीं के छात्र को उनका जोड़ीदार बनाया गया। हम वो प्रतियोगिता जीत गए। पुरस्कार वितरण की शाम हमें एक बड़ी सी शील्ड और प्रमाण–पत्र दिए गए। मुझे दो बार मंच से पुकारा गया। दूसरी बार, एकल-गायन प्रतियोगिता जीतने के लिए।

अगले दिन असेंबली में हमें प्राचार्य महोदय द्वारा सराहा गया और शील्ड की मुंह दिखाई के पश्चात उसे प्राचार्य के कार्यालय में स्थापित किया गया। नवीं में प्रवेश के समय मुझे इसका लाभ मिला। गुरुजन मुझे पहचानने लगे। मेले एक ऐसा आयोजन होते थे, जहां से सब अपनी इक्छा भर आनंद उठा लेते थे।

बांद्राभान का मेला:

मैया और तवा के संगम-स्थल पर यह मेला भराता है। साल में दो बार मकर-संक्रांति तथा कार्तिक पूर्णिमा के अवसरों पर भराने वाले इस मेले का धार्मिक महत्व है। इसमें हज़ारों की संख्या में श्रद्धालु आते हैं। पूरी तरह ग्रामीण परिवेश और धार्मिक भावनाओं से ओतप्रोत इस समागम की छंटा ही निराली है। संगम का चमचमाता पानी पैरों के नीचे से सरकती रेत ऊर्जा देते हैं। इसमेंलोग दुंगल, झूलों, मिठाइयों का आनंद लेते, माई में गोचा लगाते और भजन गूंजते।

आज उसका स्वरुप क्या है, कह नहीं सकता। तब अधिकतर ग्रामीण अपनी बैल गाड़ियों से आते, बड़े किसान घोड़ा गाड़ियों पर। दिन की समाप्ति पर कच्चे रास्तों पर जब इनका रेला निकलता तो महीन धूल से आसमान आच्छादित हो जाता। तब लोगों की रोग-प्रतिरोधक क्षमता अच्छी होती थी और बाजार के खाने में भी शुद्धता थी। धूल से allergy, निमोनिया आदि प्रचलन में नहीं आए थे।

अपने पड़ोसी चौहान साहब (संजय ठाकुर के पिता) के न्यौते पर हम घोड़ा गाड़ी से मेला देखने गए। मेला समाप्ति पर उनके ही बांद्राभान स्थित निवास पर हमारे रात के रुकने की व्यवस्था थी। दाल-बाटी, और बैगन भर्ता, ऊपर से घर की गायों से प्राप्त शुद्ध घी ने भरपूर आनंद दिया। सभी पुआलों पर बिछाए गए मोटे-मोटे गद्दों पर फिर घोड़े बेच कर सोये। कार्तिक पूर्णिमा की सर्दी की फिर किसे परवाह?

मस्ती, खुशियां, मिलना-जुलना, झगड़ना आदि को निपटाते दिन कब निकल जाता, पता ही नहीं चलता।

बसंत टॉकीज:

होशंगाबादवासियों को फिल्म दिखाने की जिम्मेदारी तब सिर्फ बसंत टॉकीज पर ही थी। इस सिनेमा हाल में मैंने रामसे ब्रदर्स की ‘दरवाजा’, ‘जादू-टोना’ आदि फिल्मों का मजा लूटा। कहलाती ये हॉरर फिल्में थीं पर कॉमेडी इनमें अपने आप पैदा हो जाती थी। फिल्में मुझे ज्यादा आकर्षित नहीं करतीं पर डरावनी फिल्मों को देखने मैं अक्सर अपने मित्र गणेश के साथ जाता।

1976 में प्रदर्शित लैला-मजनू (ऋषि कपूर, रंजीता) उस समय की हिट फिल्मों में थी। सौभाग्य से वह फिल्म बसंत टाकीज में जल्द ही लग गई, शायद 1978-79 में। तब कस्बों में फिल्म के रिलीज और प्रदर्शन के बीच लंबा फासला होता था। मसलन, 1975 की ‘शोले’ होशंगाबाद के ही एक नए ‘महावीर टाकीज’ में मैंने 1981 में देखी थी। जिस दुकान पर हमारे कपडे इस्तरी होते थे उसके मालिक का लड़का संजय मेरा हमउम्र दोस्त था। उसने कहा, आज के 3 से 6 का ‘लैला–मजनू’ का शो निपटाते हैं। मैंने शंका जाहिर की, कि टिकट की बहुत मारामारी है। कैसे जुगाड़ोगे?

बंदे का आत्म-विश्‍वास देखो, वो बोला, अगर मैं फिल्म देखने जाता, तो बिना देखे नहीं आता। बसंत टॉकीज होशंगाबाद के एक छोर पर था तो कोठी बाजार दूसरे। हम 2 बजे दोपहर साइकिल पर रवाना हुए। वहां पहुंचने पर मेरा फिल्म देखने का सपना दरकने लगा।

टिकट खिड़की पे घमासान मचा हुआ था। संजय ने साइकिल स्टैंड पर टिकाई, अपनी इस्तरी की हुई शर्ट उतार कर मुझे थमाई और बोला, “यहीं रहना, मैं अभी आया।”

तब टिकट खिड़की (बॉक्स ऑफिस) तक पहुचने के लिए एक सिंगल लाइन बनाने हेतु लोहे के जंगलों का एक गलियारा बनाया जाता था। संजय उस जंगले के ऊपर चढ़ गया और बिना किसी झिझक के उस लाइन में कूदा। जाहिर है कि उसकी आमद लाइन में लगे लोगों के कंधों पर हुई। गाली–गलौज भी हुई परंतु संजय की लैंडिंग खिड़की के बिलकुल पास हुई। लगभग 15 मिनट बाद संजय एक विजेता की तरह 2 टिकट ले कर आया। पता पड़ा वो पहले लाइन की टिकट थी। यानी आपको फिल्म ऊपर मुंह और आंखें करके देखनी है।

फिल्म चालू हुई। मेरे लिए प्रथम पंक्ति में बैठ कर फिल्म देखने का यह पहला मौका था। पर्दा मानो आपके सिर के ऊपर था।
बसंत टॉकीज एक ऐसा सिनेमा घर था, जहां टीन की छत, बिल्डिंग की दीवार से लगे पंखे और और एक प्रोजेक्टर था। उस जमाने में reel कट गई के साथ सिनेमा हाल्स में जनरेटर्स का अभाव भी एक नियमित प्रक्रिया थी। जब बिजली के ना आने पर दर्शक तुरंत अपनी बीड़ियां जला लेते और उसे वॉश ब्रेक के तौर पर लेते। अब वॉशरूम्स भी अंधेरे में होते और जनता मूत्र विसर्जन और पान थूकने के लिए इस तरह के ब्रेक का इस्तेमाल करती। लोग अंधेरे में ही अंदाज से अपने–अपने काम को अंजाम देते।

‘लैला-मजनू’ में लगभग 10-12 गाने थे। जब ‘कोई पत्थर से ना मारे मेरे दीवाने को’ गाना चालू हुआ तब सिक्कों की बरसात शुरू हुई। मैंने देखा कि संजय भाई नदारद हैं। गाने के समाप्त होने पर वो सीट के नीचे से प्रकट हुए। उन्होंने गर्व से घोषणा की, फेंके हुए सिक्कों में से उनके हाथ 22 पैसे लगे। तब तक 1, 2, 3, 5 और 10 पैसे के सिक्के भी प्रचलन में थे।

इस तरह मैं जिया-1:  आखिर मैं साबित कर पाया कि ‘मर्द को दर्द नहीं होता’

इस तरह मैं जिया-2: लगता था ड्राइवर से अच्छी जिंदगी किसी की नहीं…

इस तरह मैं जिया-3: हम लखपति होते-होते बाल-बाल बचे…

इस तरह मैं जिया-4: एक बैरियर बनाओ और आने-जाने वालों से टैक्स वसूलो

इस तरह मैं जिया-5: वाह भइया, पुरौनी का तो डाला ही नहीं!

इस तरह मैं जिया-6: पानी भर कर छागल को खिड़की के बाहर लटकाया…

इस तरह मैं जिया-7: पानी भरे खेत, घास के गुच्छे, झुके लोग… मैं मंत्रमुग्‍ध देखता रहा

इस तरह मैं जिया-8 : मेरे प्रेम करने के सपने उस घटना के साथ चूर-चूर हो गए

इस तरह मैं जिया-9 : हमने मान लिया, वो आंखें बंद कर सपने देख रहे हैं

इस तरह मैं जिया-10 : हमारे लिए ये एक बड़ा सदमा था …

इस तरह मैं जिया-11: संगीत की तरह सुनाई देती साइकिल के टायरों की आवाज

इस तरह मैं जिया-12: मैसेज साफ था, जान-पैचान होने का मतलब यह नहीं कि तू घुस्ताई चला आएगा

इस तरह मैं जिया-13 : एक चाय की प्याली और ‘दीमाग खोराब से ठोंडा’ हो जाता

इस तरह मैं जिया-14 : तस्‍वीर संग जिसका जन्‍मदिन मनाया था वह 40 साल बाद यूं मिला …

इस तरह मैं जिया-15 : अगर कोई पवित्र आत्मा यहां से गुजर रही है तो …

इस तरह मैं जिया-16 : हम उसे गटागट के नाम से जानते थे …

इस तरह मैं जिया-17 : कर्नल साहब ने खिड़कियां पीटना शुरू की तो चीख-पुकार मच गई

इस तरह मैं जिया-18 : इतनी मुहब्बत! मुझे ऐसा प्रेम कहीं ना मिला

इस तरह मैं जिया-19 : एक दुकान जहां सुई से लेकर जहाज तक सब मिलता था

इस तरह मैं जिया-20 : मेरी बनाई झालर से झिलमिलाता था घर, कहां गए वे दिन?

इस तरह मैं जिया-21 : नायकर साहब पहले ही राउंड में बाहर हुए तो बुरा लगा

इस तरह मैं जिया-22 : … उसने जयघोष करते हुए परीक्षा हॉल में खर्रे बिखेर दिए

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