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अपने में से गुजरकर मिलने वाली नई राह!

विचार हमारे अंदर इस कदर जमे हुए हैं कि इनसे अपने आपको खाली करने का विचार कभी हमें आता ही नहीं। इस तरह कुल मिलाकर हम विचारों के ही पूंजीपति होकर रह जाते हैं। जरा सोचिए विचार के अलावा भला हम और आप आखिर हैं ही क्या!

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इश्‍क रूहानी: क्‍यों मैंने ताजमहल नहीं देखा…

मैं अक्‍सर जिद किया करता था, मुझे आगरा जाना है। समझाइश मिलती, छुट्टियों में जाएंगे। कई छुट्टियां आईं और गईं। मैं कई जगह गया। मगर राह में आगरा आया ही नहीं।

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मैं हौले-हौले चलती हुई जिंदगी की शैदाई हूँ!

मैं धीमी रफ्तार से चलती इस जिंदगी में ठहरकर हर शय को इत्मीनान से देखती हूँ। मेरी ये धीमी सी भीतरी दुनिया बहुत शांत है। दुनिया जिस पर बाहरी दुनिया की बेरुखी का कोई फर्क नहीं पड़ता। दुनिया जिसमें कहीं पहुँचने, कुछ होने की कोई होड़ नहीं है।

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ऐसे देखते हैं जैसे देखा ही नहीं…

आपके भीतर ही बना-बैठा एक स्पीड ब्रेकर है एवरेस्ट जितना ऊंचा, जो आपको कहीं भी न पहुंचने देने के लिए सदा से कटिबद्ध है, और वह है मन।

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स्‍मरण कुमार गंधर्व: अजुनी रुसून आहे, खुलतां कळी खुले ना

जिनकी प्रेम की निगाहें होतीं हैं वे बहुत दूर तक देखते हैं तारों को पढ़ते रहते हैं। जैसे प्रेम का सूत संकेतों की भाषा में काता जाता है, फिर प्रेम संबंध की गुंथी हुई डोर बनती है, आप किसी से आबद्ध होते हैं, उसी तरह प्रकृति भी आपकी प्रेयसी है।

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‘कठघरे में साँसें’: क्‍यों पढ़ें यह किताब?

यह किताब इसलिए पढ़ी जानी चाहिए कि यह लेखक की आत्‍मकथा नहीं उस शहर भोपाल की आत्‍मकथा है जिसने अपने बाशिंदों को बदहवास सड़कों पर दौड़ते देखा है, जो आज भी उन्‍हें दम तोड़ते देख रहा है।

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यदि यह उम्मीद है तो काश पूरी हो गई हो

उसकी हालत देखकर लग रहा था कि इस वक्त कोई ऐसा होना चाहिए इसके पास जो प्यार से कुछ पूछ भर दे…नरमाहट से हथेलियों को थाम ले… सर पर हाथ फिरा दे…।

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खामोशी को जान लिया तो अपना सूरज उगा लेंगे आप

जब आप साइलेंस का चुनाव करते हैं तो आप अपना चुनाव करते हैं। साइलेंस अगर आपकी दिनचर्या की प्राथमिकता बन जाए तो एक दिन आप अपने भीतर अपना एक सूरज उगा सकेंगे, अगर आपको अपनी ही रोशनी की तलाश है तो !

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जिनमें आत्मा नहीं वे चेहरा ही बने रहते हैं

आपके भीतर ही बना-बैठा एक स्पीड ब्रेकर है एवरेस्ट जितना ऊंचा, जो आपको कहीं भी न पहुंचने देने के लिए सदा से कटिबद्ध है, और वह है मन।

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सत्य की खोज क्‍या है? चीजों को वैसे देखना जैसी वे हैं

उपयोगितावादी दृष्टिकोण के चलते चीजों की ही तरह, विचारों को भी हम इकट्ठा करते चले जाते हैं। इस तरह पुरानी होती चली जाती चीजों के साथ-साथ आप पुराने होते जाते हैं। फिर इस भार के नीचे हम दबते चले जाते हैं।

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