रेलयात्रा आपबीती: कसम खाई, ऐसी ट्रेन में सफर नहीं करेंगे
आश्चर्य की बात थी कि सेकंड एसी कोच में जीआरपी का कोई जवान नहीं था और पास के अन्य कोच में भी नहीं। जिन पर यात्रियों की जानमाल की हिफाज़त की जिम्मेदारी रहती है।
आश्चर्य की बात थी कि सेकंड एसी कोच में जीआरपी का कोई जवान नहीं था और पास के अन्य कोच में भी नहीं। जिन पर यात्रियों की जानमाल की हिफाज़त की जिम्मेदारी रहती है।
सुविधाओं के मामले में हम वर्ल्ड क्लास स्टेशनों के उपयोगकर्ता कहलाने लगे हैं लेकिन सुविधाएं दोयम दर्जे की ही हैं। कितना कष्टदायक है कि एक यात्री अपनी गाड़ी के इंतजार में घंटों प्लेटफार्म पर बैठा रहता है और उसे सटीक जानकारी भी नहीं मिल पाती है कि उसकी गाड़ी आखिर कब पहुंचेगी।
सरकार को जनरल कोच में यात्रा करने वाले गरीब यात्रियों का भी सोचना चाहिए, क्योंकि सबसे ज्यादा असुरक्षित वहीं होते हैं।
भारतीय रेलवे यूं तो सुविधाओं को बढ़ाने के लिए कई कदम उठा रही है लेकिन यात्रियों की बुनियादी समस्याएं जस की तस है। बरसों से वैसी हीं।
आइए, बतौर नागरिक हम एक पहल करें। एक चर्चा की शुरुआत करें। रेलयात्रा की अपनी कथा-व्यथा को साझा करें। शायद हमारी बात कुछ कानों तक पहुंचे।
नेरुदा और उनके जैसे ही अन्य लोगों से हम सीख सकते हैं कि खुद को अभिव्यक्त करने का तरीका और सुनना किसी भी प्रतिरोध के मुख्य घटक हैं।
कीर्ति चक्र विजेता शहीद अंशुमान सिंह के परिजन इस वक्त सुर्खियों में है। उनके माता-पिता ने अपनी बहू स्मृति पर गंभीर आरोप लगाए हैं। गहराई से पड़ताल करें तो महसूस होता है कि समस्या केवल आर्थिक नहीं है बल्कि इसकी जड़ें सामाजिक ताने-बाने में उलझी हैं।
हे संसार के पिताओं! अपने असर से बच्चों को जितना दूर रख सकें उतना अच्छा होगा। उन्हें अपने आप ही खिलने दें, अपने संस्कारों का अनावश्यक बोझ उनपर न डालें।
यह देखना-दिखना आखिर है क्या? कभी सोचा है? देखना या दिखाई देना एक तरह से एक आदिम भूख या कह लें प्यास का नाम है, यह आग जैसी तासीर की है।
हम कबीर चाहे न बन पाएं, लेकिन हमें यह एहसास जरूर हो जाता है कि पूरी तरह डूब जाने से ही हम सुंदरता, संगीत, प्रेम और परम को समझ सकते हैं।