इस तरह मैं जिया-32: दादाओं के नाम भी बम्बइया होते, यथा वीरेंद्र खग्गी, वीरेंद्र लूला, पिंकी, कुक्की आदि
हर जीवन की ऐसी ही कथा होती है जिसे सुनना उसे जीने जितना ही दिलचस्प होता है। जीवन की लंबी अवधि सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में गुजारने वाले इस शृंखला के लेखक मनीष माथुर के जीवन की कथा को सुनना-पढ़ना साहित्य कृति को पढ़ने जितना ही दिलचस्प और उतना ही सरस अनुभव है। यह वर्णन इतना आत्मीय है कि इसमें पाठक को अपने जीवन के रंग और अक्स दिखाई देना तय है।
मनीष माथुर, सामाजिक कार्यकर्ता
फोटो: गिरीश शर्मा
ग्वालियर (1980-1984) :
गणना की त्रुटिवश (मैं गणित मै बचपन से ही कमजोर हूं जी) मैंने अपने होशंगाबाद में निवास का समय 1981 तक बताया था परंतु हम 1980 तक ही वहां रुके थे। माफ करें!
ग्वालियर हम लोग दशहरा–दीवाली की छुट्टियों में आते थे। इस बार भी हमारा आगमन लगभग उसी समय हुआ। थोड़े दिनों तक सामान खुलता रहा। अपने होशंगाबाद के मित्र से मैंने सीरिज बनाना सीखा तो बिजली के अन्य उपकरणों को भी हाथ लगाने, छोटी-मोटी रिपेयरिंग की हिम्मत आ गई थी। नए घर में सीलिंग-फेन नहीं थे। पहले एक लाया गया जिसे लगाने वाले बिजली मिस्त्री ने 10 रूपए मेहनताने के रूप में लिए। मैंने प्रतिशोध किया कि ये काम तो मैं कर सकता हूं। बाहर वाले को रुपए क्यों देना?
छुट्टियों का समय देखते ही देखते गुजर गया। जहां दीदीयों ने इस पुनर्वास के संक्रमण काल में अपनी पढ़ाई जारी रखी। मैंने दादी और चचेरे भाई-बहनों के साथ समय गुजारा और घर के दीगर कामों में अपने आप को व्यस्त दिखा कर पढ़ना स्थगित रखा। पापा जब शाम को ऑफिस से आते तब मैं किसी किताब को खोल कर बैठ जाता ताकि उन्हें सब बच्चे पढ़ते हुए मिलें और विश्वास कायम रहे कि, “all is well.” मां तो अपने कामों में व्यस्त रहतीं अतः उन्हें भी भनक नहीं लगी कि मैं पढ़ाई में माचिस दिए बैठा हूं।
छुट्टियां खत्म होते ही हम सबका नई शालाओं/महाविद्यालयों में प्रवेश का दौर चला। सरकारी कर्मचारियों के बच्चों को बीच सत्र में भी सरकारी शालाओं और महाविद्यालयों में प्रवेश आसानी से मिल जाता था। दीदीयां जो अब कॉलेज में पढ़ रही थीं, उन्हें सागर विश्वविद्यालय से माइग्रेशन सर्टिफिकेट्स मंगाने में जरूर वक्त लगा। परंतु यह काम भी संपन्न हुआ।
मेरी समस्या अब प्रारंभ हुई। जहां SNG होशंगाबाद में नियमित पढ़ाई होती थी, उसके उलट ग्वालियर के जयेंद्रगंज स्थित जीवाजीराव विद्यालय में यह रिवाज़ खत्म हो गया था। इक्का–दुक्का कालखंडों में शिक्षक आते, विद्यार्थिओं को बोर्ड एग्जाम का भय दिखाते और सलाह देते कि उनकी tuition class में दाखिला लो ताकि नैया पार लगे। ग्वालियर, मुरैना, भिंड जिले के तमाम स्कूल तब तक सामूहिक नकल करवाने के लिए प्रसिद्धि पाने लगे थे। कृष्णा-कोचिंग तब वहां एक लोकप्रिय ब्रांड के तौर पर उभर रहा था। “मेडिकल–इंजीनियरिंग कॉलेज में प्रवेश की गारंटी” के विज्ञापन जगह-जगह नजर आते थे। मेरे नए बने दोस्त भी नियमित तौर पर tuitions अथवा कोचिंग ले रहे थे।
हमारे घर में तब तक किसी तरह की ट्यूशन अथवा कोचिंग लेने का प्रचलन नहीं था। पापा, मां, दीदियां अपने से बच्चों अथवा छोटे भाई-बहनों को पढ़ाते थे।
जीवाजीराव स्कूल हमारे घर से लगभग 8 किलोमीटर था और सुबह 7:30 बजे पहला पीरियड शुरू होता था। मेरी खोपड़ी के बाल मेरे कहे में नहीं थे, अतः सुबह-सुबह उठ कर मैं स्नान करके अपनी एटलस साइकिल पर आरूढ़ हो कर 6:45 पर ही निकल जाता। परंतु स्कूल में ना ही पर्याप्त बच्चे आते (वो उन्हीं टीचर्स के ट्यूशन क्लास में गए होते) और ना ही टीचर्स (जो उस समय ट्यूशन लेने में व्यस्त रहते)। मेरे लिए बड़ी अजब परिस्थिति बन गई। पता नहीं क्यों मैं इस बात को छुपाता कि स्कूल में कुछ पढ़ाई नहीं होती है। लगभग दोपहर 1 बजे वापस 9 किलोमीटर साइकिल चलाता हुआ मैं घर आता। हमारे घर की परंपरा अनुसार मेरी मां अथवा दीदी पूछती, “आज का दिन कैसा गया?” मैं जवाब देता बहुत अच्छा।
बहरहाल, मेरी ग्यारहवीं बोर्ड की तैयारी की वाट लग चुकी थी। जहां SNG में छह माही परीक्षा के पहले अकार्बनिक रसायन पढ़ाया गया था उसके उलट मेरे वर्तमान स्कूल में कार्बनिक। इसतरह मेरा कार्बनिक रसायन का ज्ञान शुरू ही नहीं हुआ। मुझे आज तक इथेन/मीथेन के फॉर्मूले समझ नहीं आए, जबकि रसायन शास्त्र के पर्चे में उसका आधा हिस्सा होता था। मेरी हालत खराब थी। परंतु एक पढ़ने-लिखने वाले परिवार में इसे प्रकट करना मेरे लिए एक टेढ़ी खीर थी।
1981 के आगमन तक दर्पण कॉलोनी ग्वालियर में मेरे हमउम्र काफी दोस्त बन गए। लगभग सभी कृष्णा कोचिंग अथवा प्राइवेट tuition लेते और अपने-अपने स्कूल के प्रति निरपेक्ष रहते। विकास दुबे, जय वाधवानी, योगेंद्र बम्ब, राजीव जुनेजा आदि मेरे दोस्तों की श्रेणी में आए। हालांकि, उस उम्र की दोस्ती अल्प-समय में ही होती, परवान चढ़ती और समाप्त भी हो जाती। जो आपका दुश्मन नहीं वो दोस्त कहलाता। ऊपर से ग्वालियर में दादाओं का प्रचलन था। वे ऐसे प्राणी होते थे, जो अपनी उम्र से आधी उम्र के बच्चों को डरा-धमका के उनसे पैसे वसूलते अथवा अपना काम करवाते। उनके नाम भी बम्बइया होते, यथा वीरेंद्र खग्गी, वीरेंद्र लूला, प्रताप चौहान, पिंकी, कुक्की आदि। दादाओं से भी हमें जूझना पड़ता। दर्पण कॉलोनी नई थी। थाटीपुर छेत्र के पुराने दादाओं को एक नए शिकारगाह मिल गई थी और मैं उनका नया शिकार।
हर नर्मदे! अपना ख्याल रखिए और मस्त रहिए। जारी…
इस तरह मैं जिया-1: आखिर मैं साबित कर पाया कि ‘मर्द को दर्द नहीं होता’
इस तरह मैं जिया-2: लगता था ड्राइवर से अच्छी जिंदगी किसी की नहीं…
इस तरह मैं जिया-3: हम लखपति होते-होते बाल-बाल बचे…
इस तरह मैं जिया-4: एक बैरियर बनाओ और आने-जाने वालों से टैक्स वसूलो
इस तरह मैं जिया-5: वाह भइया, पुरौनी का तो डाला ही नहीं!
इस तरह मैं जिया-6: पानी भर कर छागल को खिड़की के बाहर लटकाया…
इस तरह मैं जिया-7: पानी भरे खेत, घास के गुच्छे, झुके लोग… मैं मंत्रमुग्ध देखता रहा
इस तरह मैं जिया-8 : मेरे प्रेम करने के सपने उस घटना के साथ चूर-चूर हो गए
इस तरह मैं जिया-9 : हमने मान लिया, वो आंखें बंद कर सपने देख रहे हैं
इस तरह मैं जिया-10 : हमारे लिए ये एक बड़ा सदमा था …
इस तरह मैं जिया-11: संगीत की तरह सुनाई देती साइकिल के टायरों की आवाज
इस तरह मैं जिया-12: मैसेज साफ था, जान-पैचान होने का मतलब यह नहीं कि तू घुस्ताई चला आएगा
इस तरह मैं जिया-13 : एक चाय की प्याली और ‘दीमाग खोराब से ठोंडा’ हो जाता
इस तरह मैं जिया-14 : तस्वीर संग जिसका जन्मदिन मनाया था वह 40 साल बाद यूं मिला …
इस तरह मैं जिया-15 : अगर कोई पवित्र आत्मा यहां से गुजर रही है तो …
इस तरह मैं जिया-16 : हम उसे गटागट के नाम से जानते थे …
इस तरह मैं जिया-17 : कर्नल साहब ने खिड़कियां पीटना शुरू की तो चीख-पुकार मच गई
इस तरह मैं जिया-18 : इतनी मुहब्बत! मुझे ऐसा प्रेम कहीं ना मिला
इस तरह मैं जिया-19 : एक दुकान जहां सुई से लेकर जहाज तक सब मिलता था
इस तरह मैं जिया-20 : मेरी बनाई झालर से झिलमिलाता था घर, कहां गए वे दिन?
इस तरह मैं जिया-21 : नायकर साहब पहले ही राउंड में बाहर हुए तो बुरा लगा
इस तरह मैं जिया-22 : … उसने जयघोष करते हुए परीक्षा हॉल में खर्रे बिखेर दिए
इस तरह मैं जिया-23 : फेंके हुए सिक्कों में से उनके हाथ 22 पैसे लगे…
इस तरह मैं जिया-24 : आई सा ‘मस्का-डोमेस्टिका’ इन माय रूम
इस तरह मैं जिया-25 : तब ऐसी बोलचाल को मोहब्बत माना जाता था
इस तरह मैं जिया-26 : बाल सेट करने का मतलब होता था ‘अमिताभ कट’
इस तरह मैं जिया-27 : जहां नर्मदा में नहाना सपड़ना था और शून्य था मिंडी
इस तरह मैं जिया-28 : पसंदीदा ट्रक में सफर का ख्याल ही कितना रोमांचक!
इस तरह मैं जिया-29 : दो बजे भी तिरपाल कस गई तो 6 बजे भोपाल पार
इस तरह मैं जिया-30 : “हे भगवान, इन सबका टिकट कंफर्म करवा दो,प्लीज”
इस तरह मैं जिया-31 : मैंने अशोक लेलैंड को आंखों से ओझल होने तक निहारा!