बेचैनी बढ़ रही थी, लैब से नीला थोथा उठाया कर रख लिया…

मनीष माथुर, सामाजिक कार्यकर्ता

ग्‍वालियर (1980-1984) :

बोर्ड एग्जाम अब सर पर थे। मैंने गंभीरता से पढाई शुरू कर दी थी, यद्यपि मेरी स्थिति, “हुजुर आते-आते बहुत देर कर दी” वाली हो चुकी थी। दीदीयां अपनी-अपनी परीक्षा की तैयारियों में जुटी थीं और उनसे अब पढ़ाने की कहना मुश्किल और जोखिम का काम था। उन्हें मालूम हो जाता कि उनके अनुज का ज्ञान (अंग्रेजी तथा हिंदी को छोड़) कर अल्प ही है। हमारी क्लास में ‘श्रेणी सुधार’ वाले छात्र भी काफी थे। ये वे छात्र थे जिन्होंने पिछले साल भी बोर्ड एग्जाम दिया था, कुछ की प्रथम श्रेणी भी आई थी, परंतु प्राप्तांक प्रतिशत उन्हें किसी इंजीनियरिंग अथवा पॉलिटेक्निक कॉलेज में दाखिला दिलवाने के लिए पर्याप्त नहीं थे। ये मेरे लिए एक खबर थी।

दूसरी खबर ये थी कि ग्‍वालियर से कुछ किलोमीटर दूरी पर ही ऐसे स्कूल थे जो एक मोटी रकम लेने के बाद सामूहिक नकल की बाकायदा व्यवस्था करते और उसके लिए विशेष तौर पर जानकार टीचर्स तथा इंजीनियरिंग के वरिष्ठ छात्रों को तैनात करते। तीसरी खबर थी, कि ग्‍वालियर में बोर्ड एग्जाम के पेपर एक दिन पहले ही चोर बाजार में बिकने के लिए उपलब्ध हो जाते हैं।

मेरी दोस्ती स्कूल के एक श्रेणी सुधार वाले वरीय छात्र से हुई। उसके पिता टेलीफोन विभाग में लाइनमेन अथवा उनके सुपरवाइजर थे और पड़ाव में मिस हिल स्कूल के सामने टेलीफोन विभाग के एक बड़े से गोदाम के चौकीदार भी। चाहरदीवारी से घिरा वह कैंपस काफी हरा-भरा था, जहां पुराने पेड़ थे, जिनमें मोरों का भी निवास था। मेरे दोस्त के पिता को निवास हेतु एक कमरे का मकान दिया गया था, जिसमें रसोई-घर तथा एक शौचालय जुड़ा था। अतः मैंने उस दोस्त का नामकरण ‘मोर वाला’ किया। चाहरदीवारी के अंदर टेलीफोन के खंबे, केबल्स तथा इसी तरह का सामान खुले में पड़ा रहता। उसका असली नाम मुझे अब याद नहीं। वो एक गंभीर और पढ़ाकू छात्र था। एक साल भी उसने प्रथम श्रेणी प्राप्त की थी। मुझे वो अच्छा लगा और स्कूल से लौटते हुए मैं वहां रुकता। मैं उसके साथ कुछ देर पढ़ता फिर अपने घर को रवाना होता। हम दोनों उस शानदार जगह पर खटिया पे बैठ, दिसंबर की धूप खाते हुए कुछ देर साथ पढ़ते। कुछ यूं समझें कि स्कूल से घर के 9 किलोमीटर का वो मिड-वे स्टॉप था। उसके साथ पढ़ कर मुझे अहसास हुआ कि मैं कितना अज्ञानी हूं।

संभवतः जनवरी 1981 के मध्य में केमिस्ट्री के अध्यापक प्रकट हुए। उन्होंने घोषणा की कि अगले हफ्ते अमुक दिनांक पर हमारी प्रायोगिक परीक्षा है। अब जे बड़ा रट्टा है। आज तुम सब मिल के लैब की सफाई करो। कल साल्ट्स और अन्य सामान आ जाएगा। दो दिन बचेंगे, प्रैक्टिकल कर लो। उपिस्थित कुछ सहपाठी तो इतना सुनते ही खिसक लिए, मेरे जैसे कुछ गिने–चुने गदहे लैब की सफाई की हम्माली में जुट गए। उसी दिन पहली बार हम अपने लैब-असिस्टेंट से भी मिले और हमारी लैब अंदर से कैसी है, इसका दीदार हुआ। फाइनल एग्जाम के चार दिन पहले! धन्य हैं ऐसे संस्थान और ऐसे गुरुजन, जिनका मुझे अब नाम भी याद नहीं है।

माट्साब ने प्रैक्टिकल एग्जाम के एक दिन पहले घोषणा करते हुए बताया कि कल एक बहुत कड़क एक्सटर्नल आ रहे हैं और तुम लोगों को कुछ आता नहीं (जैसे हमें अब तक कुछ सिखाया गया हो परंतु अल्पबुद्धि हम उसे समझ नहीं सके)। बहुमत से प्रस्ताव पास हुआ कि उस कड़क एक्सटर्नल एग्जामिनर को सेट करने के लिए सब चंदा इकट्ठा करें, उन्हें एक अच्छे होटल मैं ठहराएं, ताकि वो हमारे सेवाभाव से प्रभावित हो कर हमें अच्छे नंबर दें। तब भौतिक, रसायन एवं जीव-विज्ञान के 25 प्रतिशत अंक इन प्रैक्टिकल एग्जाम के भरोसे ही आते थे। प्रैक्टिकल एग्जाम संपन्न भये। जिन-जिन ने चंदा दिया था, उन छात्रों को लैब-असिस्टेंट महोदय ने पर्ची पर लिख कर साल्ट का नाम बताया और भरोसा दिलाया कि 50 में से 45 नंबर तो पक्के हैं। एक हफ्ते के अंदर ही उपरोक्त प्रक्रिया भौतिक के प्रैक्टिकल एग्जाम में भी दोहराई गई। छात्र, गुरु, प्राचार्य अब संतुष्ट थे कि अगर थ्योरी में 150 में से 25-30 नंबर भी आ गए तो कम-से-कम पास तो हो ही जाएंगे।

मेरी बैचैनी अब अवसाद की ओर बढ़ चली थी। लगता था, कि किसी तरह इस जिंदगी से छुटकारा मिले। अब क्योंकि रसायन प्रयोगशाला खुल चुकी थी। अतः कोई भी छात्र अथवा राहगीर भी अब उसमें प्रवेश करने का अधिकार रखता था। खैर, मेरा तो हक था। मैंने पढ़ रखा था नीला थोथा (कॉपर-सलफेट) एक विष है। लैब में उसकी कांच की बरनी सब की पहुंच में थी। एक दिन मैंने एक मुट्ठी भर नीला थोथा उठाया और उसे एक कागज में बांध कर जेब के हवाले किया।

हर नर्मदे! अपना ख्याल रखिए और मस्त रहिए। जारी…

इस तरह मैं जिया-1:  आखिर मैं साबित कर पाया कि ‘मर्द को दर्द नहीं होता’

इस तरह मैं जिया-2: लगता था ड्राइवर से अच्छी जिंदगी किसी की नहीं…

इस तरह मैं जिया-3: हम लखपति होते-होते बाल-बाल बचे…

इस तरह मैं जिया-4: एक बैरियर बनाओ और आने-जाने वालों से टैक्स वसूलो

इस तरह मैं जिया-5: वाह भइया, पुरौनी का तो डाला ही नहीं!

इस तरह मैं जिया-6: पानी भर कर छागल को खिड़की के बाहर लटकाया…

इस तरह मैं जिया-7: पानी भरे खेत, घास के गुच्छे, झुके लोग… मैं मंत्रमुग्‍ध देखता रहा

इस तरह मैं जिया-8 : मेरे प्रेम करने के सपने उस घटना के साथ चूर-चूर हो गए

इस तरह मैं जिया-9 : हमने मान लिया, वो आंखें बंद कर सपने देख रहे हैं

इस तरह मैं जिया-10 : हमारे लिए ये एक बड़ा सदमा था …

इस तरह मैं जिया-11: संगीत की तरह सुनाई देती साइकिल के टायरों की आवाज

इस तरह मैं जिया-12: मैसेज साफ था, जान-पैचान होने का मतलब यह नहीं कि तू घुस्ताई चला आएगा

इस तरह मैं जिया-13 : एक चाय की प्याली और ‘दीमाग खोराब से ठोंडा’ हो जाता

इस तरह मैं जिया-14 : तस्‍वीर संग जिसका जन्‍मदिन मनाया था वह 40 साल बाद यूं मिला …

इस तरह मैं जिया-15 : अगर कोई पवित्र आत्मा यहां से गुजर रही है तो …

इस तरह मैं जिया-16 : हम उसे गटागट के नाम से जानते थे …

इस तरह मैं जिया-17 : कर्नल साहब ने खिड़कियां पीटना शुरू की तो चीख-पुकार मच गई

इस तरह मैं जिया-18 : इतनी मुहब्बत! मुझे ऐसा प्रेम कहीं ना मिला

इस तरह मैं जिया-19 : एक दुकान जहां सुई से लेकर जहाज तक सब मिलता था

इस तरह मैं जिया-20 : मेरी बनाई झालर से झिलमिलाता था घर, कहां गए वे दिन?

इस तरह मैं जिया-21 : नायकर साहब पहले ही राउंड में बाहर हुए तो बुरा लगा

इस तरह मैं जिया-22 : … उसने जयघोष करते हुए परीक्षा हॉल में खर्रे बिखेर दिए

इस तरह मैं जिया-23 : फेंके हुए सिक्कों में से उनके हाथ 22 पैसे लगे…

इस तरह मैं जिया-24 : आई सा ‘मस्का-डोमेस्टिका’ इन माय रूम

इस तरह मैं जिया-25 : तब ऐसी बोलचाल को मोहब्बत माना जाता था

इस तरह मैं जिया-26 : बाल सेट करने का मतलब होता था ‘अमिताभ कट’

इस तरह मैं जिया-27 : जहां नर्मदा में नहाना सपड़ना था और शून्य था मिंडी

इस तरह मैं जिया-28 : पसंदीदा ट्रक में सफर का ख्‍याल ही कितना रोमांचक!

इस तरह मैं जिया-29 : दो बजे भी तिरपाल कस गई तो 6 बजे भोपाल पार

इस तरह मैं जिया-30 : “हे भगवान, इन सबका टिकट कंफर्म करवा दो,प्लीज”

इस तरह मैं जिया-31 : मैंने अशोक लेलैंड को आंखों से ओझल होने तक निहारा!

इस तरह मैं जिया-32 : मां पूछती, दिन कैसा गया?, मैं झूठ कह देता, बहुत अच्छा

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