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सबसे अच्‍छा समय, सबसे खराब समय

शांतिलाल जैन, प्रख्‍यात व्‍यंग्‍यकार ‘‘यह सबसे अच्छा समय था, यह सबसे खराब समय था।’’ इन पंक्तियों के लेखक ब्रिटिश उपन्यासकार चार्ल्स डिकन्स कभी भारत आए थे या नहीं मुझे पक्के से पता नहीं, मगर पक्का-पक्का अनुमान लगा सकता हूं कि […]

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गली-मोहल्‍ले में यूं मिल जाता है इनोवेशन

सरकारी सर्वे के दौरान महिलाओं से बात करने के लिए घर आंगन में कुछ देर बैठना हो जाता था। ऐसे ही सर्वे में एकबार सुवासरा के मीणा मोहल्ले में जाना यादगार अनुभव बन गया।

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जिंदगी क्‍या है? किताब पढ़ कर जाना

कभी लगता कि ऐसा होता उसके एक किरदार का नाम मेरा होता। मैं कभी उसके संग समंदर की लहरों में छलांगें लगाता, कभी गोद में उसकी सर रख, सो ही जाता। क्या भरोसा वो सो जाती कभी मेरी तहों में जैसे खो जाते है दो जिस्म चादर की सिलवटों में। क्या जाने, क्या होता। वो मेरी होती, मैं उसका होता।

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कहीं का नहीं छोड़ेगा यह बिगड़ा नवाब

आज बरबस ही चाँद याद आ रहा है। पूर्णिमा पर चाँद पूरे शबाब पर होता है, अपनी 64 कलाओं के साथ। यूँ देखें तो चाँद केवल एक उपग्रह हैं और भावनात्मक दृष्टिकोण कहता हैं कि चाँद हमारा ‘मामा” है। बचपन में परिवार के बाहर अगर किसी से नाता जुड़ता है…

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पॉजीटिविटी के फेर में खो न जाएं ‘वो 70 मिनट’

सत्तर मिनट। सिर्फ सत्तर मिनट हैं तुम्हारे पास। शायद, तुम्हारी ज़िन्दगी के सबसे ख़ास सत्तर मिनट। आज तुम अच्छा खेलो या बुरा, ये सत्तर मिनट तुम्हें ज़िन्दगी भर याद रहेंगे। तो कैसे खेलना है, आज मैं तुम्हें नहीं बताऊंगा…

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बेटे, प्रॉमिस करते हैं, हम न टूटेंगे, न रोएंगे

महाराष्ट्र के एक वरिष्ठ आईएएस दंपति मिलिंद और मनीषा म्हैसकर के इकलौते बेटे मन्मथ ने जुलाई 2017 में मुंबई की एक हाइराइज इमारत की 20 वीं मंजिल से कूद कर आत्महत्या कर ली थी। मन्मथ 18 साल का था और पुणे के एक कॉलेज में पहले साल में पढ़ रहा था। बेटे के इस अप्रत्याशित कदम से क्षुब्ध अभागे…

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भारतेंदु का कहा 140 सालों बाद भी खरा

आधुनिक हिंदी साहित्‍य के पितामह कहे जाने वाले लेखक भारतेंदु हरिशचंद्र ने अपने देहांत से पहले नवंबर 1884 में बलिया के ददरी मेले में आर्य देशोपकारिणी सभा में एक भाषण दिया था। यह नवोदिता हरिश्‍चंद्र चंद्रिका में दिसंबर 1884 के अंक में छपा था। इस भाषण का विषय था-भारत वर्षोन्नति कैसे हो सकती है…

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सखी, वे कह कर जाते तो…

वसंत आ रहा है… सखी, देखो वो चला आ रहा है चुपचाप… बिना पदचाप… जैसे कोई देख ना ले… कोई सुन ना ले… उसके आने की आहट। वसंत हां, वसंत ऐसे ही तो आता है, जीवन में भी। जाने कब आ कर हथेलियों पर बिखरा देता है मेंहदी। स्वप्न कुसुम केसरिया रंग ओढ़ लेते हैं…।वसंत का आना पता ही नहीं चलता…

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कुमार गंधर्व: गायन का अद्भुत लोकतंत्र

8 अप्रैल 1924 को कर्नाटक बेलगांव के सुलेभावी गांव में जन्‍म लेने वाले शिवपुत्र सिद्धरामैया कोमकली को हम कुमार गंधर्व के नाम से जातने हैं। प्रशंसक उन्‍हें प्रेम और सम्‍मान से कुमार जी के नाम से संबोधित करते हैं। कवि सर्वेश्‍वरदयाल सक्‍सेना ने कुमार जी को गाते हुए प्रत्‍यक्ष देखा-सुना:

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यादों के गलियारों में खूशबुओं का फेरा 

आज से कई दशकों पहले मैनपुरी में साल में चार-चार मेले लगा करते थे ठाकुर जैत सिंह जी और ठाकुर माधव सिंह जी (माधौ) की जमींदारी में। जैतसिंह जी की बिटिया और माधव सिंह जी की बहना हमारी अम्मा मतलब दादी मां थी। समय बीतते के संग लोग भी वैकुंठ चले गए। पीछे जो रह गया वे हैं …

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