मैं डरती हूं, क्‍या आपको डर लगता है?

पूजा सिंह, स्‍वतंत्र पत्रकार

फोटो: गिरीश शर्मा

बीते दिनों बराबरी को लेकर चल रही एक चर्चा के बीच एक मित्र ने मुझसे पूछा, “क्या महिलाओं के डर पुरुषों से अलग होते हैं?”

मैं सोच में पड़ गयी। यह कैसा प्रश्न है? फिर मुझे लगा कि यह प्रश्न एक पुरुष ही पूछ सकता है क्योंकि एक स्त्री होने के नाते डर तो बचपन से ही मेरे भीतर भर दिया गया था। यह सामान्य डर नहीं बल्कि लड़की होने के कारण भरा गया एक अतिरिक्त डर था। मैंने जवाब दिया, “हां, मुझे आज भी डर लगता है। अल सुबह जब मैं वॉक या दौड़ने के लिए या फिर साइकिल चलाने के लिए अकेले निकलती हूं तो मुझे डर लगता है। इस डर के कारण ही मैं कोशिश करती हूं कि हूडी वाले जैकेट पहनूं जिससे मेरे स्त्री या पुरुष होने को लेकर भ्रम की स्थिति बन जाए।” इसकी वजह एकदम साफ है। बचपन में पैदल स्कूल जाते समय ही मुझे लोगों की निगाहों को पढ़ना आ गया था और शायद हर महिला को यह हुनर विरासत में मिलता है।

मार्च का पहला पखवाड़ा चल रहा है। यह पखवाड़ा दुनिया भर की महिलाओं के लिए उत्साह और उम्मीद लेकर आता है। आठ मार्च को अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस होता है और इसके साथ ही शुरू होता है महिलाओं के नाम पर रस्म अदायगी का एक लंबा सिलसिला। सेमिनार होते हैं, लेक्चर होते हैं, कविताएं पढ़ी जाती हैं और गोष्ठियों का आयोजन होता है। ऐसा लगता है मानो माहौल में स्त्री सम्मान, सशक्तीकरण और स्त्री स्वातंत्र्य घुलमिल गया है। यह बताने का प्रयास किया जाता है कि हमारा समाज महिलाओं का कितना हिमायती है। ऐसे में हरिशंकर परसाई की याद बरबस आती ही है जिन्होंने लिखा है –

“दिवस कमजोर का मनाया जाता है, जैसे महिला दिवस, अध्यापक दिवस, मजदूर दिवस। कभी थानेदार दिवस नहीं मनाया जाता।”

महिला दिवस की पृष्ठभूमि भी महिलाओं के अधिकारों से जुड़ी हुई है। यह महिलाओं के उन बुनियादी अधिकारों का जश्न मनाने का दिन है जो उन्हें बहुत मुश्किल से हासिल हुए। मिसाल के तौर पर मतदान करने का अधिकार, काम के घंटे तय होना वगैरह… अगर किसी वाद से नफरत ना हो तो यह जान लेने में कोई बुराई नहीं कि मजदूरों और वंचितों के तमाम अन्य हकों की तरह इसमें भी वामपंथी स्त्रीवादी नेताओं की अहम भूमिका और योगदान रहा।

इस वर्ष अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस 2024 की थीम है ‘इंस्पायर इंक्लूजन’ यानी महिलाओं के समावेशन के लिए प्रेरणा। क्या यह चिंता की बात नहीं कि जहां एक और देश मंगल और चांद पर जा रहा है, दुनिया में चालक रहित कारें चल रही हैं और लोगों के दिमाग में न्यूरो चिप लगाने तक के प्रयोग हो रहे हैं उस समय हमें महिलाओं के समावेशन की प्रेरणा तलाश करनी पड़ रही है। इस वर्ष की थीम में महिलाओं को ऑनलाइन हिंसा से बचाना भी शामिल है लेकिन यह तो बहुत दूर की कौड़ी है। सबसे पहले महिलाओं के प्रति हिंसा को पुरुषों के सोच से बाहर निकालना होगा। शारीरिक हिंसा तो उसकी अगली कड़ी है।

झारखंड के दुमका जिले में एक मार्च की शाम एक विदेशी महिला के साथ जब कई स्थानीय युवाओं ने गैंगरेप किया तो उनके दिमाग में आखिर क्या चल रहा होगा? मुझे उन युवाओं की पृष्ठभूमि तो नहीं पता है लेकिन जाहिर सी बात है वे किसी ऐतिहासिक अन्याय का बदला तो नहीं ले रहे थे, ना ही यह कोई तरीका हो सकता है बदला लेने का। उनके मन में एक स्त्री के साथ यौन हिंसा की जड़ें उन पोर्न वीडियो, गालियों और मर्दाना विमर्श में निहित हैं जिनके बीच वे पले और बड़े हुए।

वह स्पेनिश महिला अपने पति के साथ बाइक पर दुनिया को देखने निकली थी। यह जोड़ा पाकिस्तान, बांगलादेश से होते हुए 65 देशों की यात्रा कर चुका था और 66 वें देश भारत में पिछले छह महीने से घूम रहा था। कश्मीर, दिल्ली, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल से होते हुए झारखंड के बाद यह जोड़ा नेपाल जाने की तैयारी में था जब उनका सामना युवाओं के एक ऐसे समूह से हुआ जिनके लिए महिलाएं केवल एक ऑब्जेक्ट भर हैं। उनके एक शाम के कथित मनोरंजन ने उस युवा महिला के तन और मन पर कभी न भरने वाले जख्म दे दिए। किसी भी महिला को इंसान समझकर उसके साथ बराबरी का व्यवहार करना इतना मुश्किल क्यों है? किसी के साथ बुनियादी गरिमा का व्यवहार इतना कठिन क्यों है?

क्या इसे केवल कानून व्यवस्था का प्रश्न समझकर भूल जाना चाहिए? पुलिस और प्रशासन एक-एक व्यक्ति को तो सुरक्षा नहीं दे सकता। एक देश के रूप में हम अपने नागरिकों में नागरिकता बोध विकसित करने में नाकाम रहे हैं। नागरिकों की यह मानसिक विफलता देश पर बहुत भारी पड़ेगी भले ही वह भौतिक रूप से चाहे जितनी समृद्धि हासिल कर ले।

एक जोड़ा जो 65 देशों की यात्रा सुरक्षित ढंग से पूरी कर चुका था उसका सामना भारत में अपने सबसे बड़े दुःस्वप्न से हुआ। पति के साथ मारपीट करने के बाद युवाओं ने महिला के साथ बलात्कार किया क्योंकि यही उनकी सोशल ट्रेनिंग है। उन्होंने अपने घर, परिवार, आसपास और समाज में हमेशा महिलाओं को अधीनता स्वीकार करते हुए देखा है। हमेशा उन्हें उनके जेंडर के कारण प्रताड़ित होते देखा है। वे बचपन से ही अपने घरों में मांओं के साथ ‘मर्द’ बनकर बाजार जाते हैं। बहनों के बॉडीगार्ड बनकर साथ चलते हैं भले ही वो उनसे 10 साल छोटे क्यों न हों? जाहिर है उन्हें यह सिखाना नहीं पड़ता। वे औरतों को सबार्डिनेट जेंडर मानते हुए ही बड़े होते हैं।

मेरे मित्र ने शुरुआत में जो सवाल किया था वह यहां प्रासंगिक हो जाता है। एक महिला और एक पुरुष के साथ जब प्रताड़ना के तरीके अलग हैं तो उनके डर भी अलग होंगे ही।

मेरी स्मृति में एक और घटना है। 2012 का दिल्ली का निर्भया कांड सबको याद होगा। निर्भया और उसका पुरुष मित्र दिल्ली की एक बस में बैठे थे। उसके बाद क्या हुआ पूरी दुनिया ने जाना। उसी कुख्यात दिसंबर की एक घटना मेरे जेहन में अब तक ताजा है। मैं देश की राजधानी दिल्ली में एक प्रतिष्ठित पाक्षिक पत्रिका में काम करती थी। मैं दिल्ली से गोरखपुर की एक ट्रेन में सवार थी। एसी थर्ड की कोच में मुझे साइड लोअर का आरएसी बर्थ मिला था। यानी दो लोगों के बीच में एक सीट। मेरे साथ राजस्थान पुलिस का एक इंस्पेक्टर सीट शेयर कर रहा था। ट्रेन पर सवार होते ही थोड़ी बहुत औपचारिक बातचीत हुई जिससे पता चला कि वह इंस्पेक्टर और मैं पत्रकार हूं। इंस्पेक्टर अपने दो कांस्टेबल के साथ किसी अपराधी को पकड़ने बिहार जा रहा था। दोनों कांस्टेबल अपने बॉस को अपनी सीट पर आने को कह रहे थे जिसे वह इंकार कर रहा था। शायद दोनों के नशे में होने की वजह से वह ऐसा कर रहे थे।

बहरहाल, ट्रेन चली। मुझे छोड़कर उस पूरे कंपार्टमेंट में और बगल के कंपार्टमेंट में एक भी महिला पैसेंजर नहीं थी। इससे मैं थोड़ी बहुत असहज भी हो रही थी। मैं भी अपनी किताब, मोबाइल और ईयर फोन में गुम हो गयी। इस बीच इंस्पेक्टर साहब कहीं जा चुके थे और एक नशे में धुत्‍त एक कांस्टेबल आकर मेरी सीट पर बैठ गया। मैंने ऐसा दिखाने की कोशिश की कि मैं कुछ भी ध्यान नहीं दे रही हूं। इस बीच रात के करीब दस बज चुके थे। इस बीच सामने की ऊपर की सीट के व्यक्ति ने आकर मुझसे कहा, “बहन आप मेरी सीट पर जाकर सो जाइए मैं आपकी सीट पर बैठता हूं।” वह व्यक्ति दुबई से आ रहा था। मैंने उनका प्रस्ताव सहर्ष स्वीकार कर लिया। तकरीबन एक घंटे बाद तेज आवाज से मेरी नींद खुल गई। मैंने देखा कि जिस व्यक्ति ने मुझे सीट दी थी, कांस्टेबल उससे लड़ रहा है और उसके मजहब पर उल्टी सीधी टिप्पणी कर रहा है। उसकी नाराजगी की वजह यह थी कि उसने मुझे अपनी सीट क्यों दी? तब तक ट्रेन कानपुर पहुंच चुकी थी।

मैं ठीक से समझ चुकी थी कि हुआ क्या है। मैं जितना साहस या कहें दुस्साहस दिखा सकती थी दिखाया और पुलिस कांस्टेबल को बुरी तरह डांटा। मैंने उससे कहा भी कि बस लखनऊ आने वाला है अब मैं तुम्हारा नशा उतारने का इंतजाम करती हूं। वह पूरी तरह नशे में धुत था। इस बीच बगल के कंपार्टमेंट से उसका बॉस आया और माफी मांगने लगा। उसने कांस्टेबल को डांट लगाकर मामला रफादफा किया।

मैं यह कहानी इसलिए सुना रही हूं कि झारखंड के उन लफंगों और राजस्थान के उन ‘जांबाज’ पुलिस वालों की सोच में कोई अंतर नहीं था। पूरी व्यवस्था को महिलाओं को कैद रखना पसंद है। इसके लिए अनेक जतन किए जाते हैं। कभी रस्म रिवाज के नाम पर तो कभी हमले करके।

इन बातों के बावजूद मेरा मानना है कि हर परिस्थिति का डटकर सामना करना चाहिए। आवाज बुलंद करनी चाहिए चाहे जो भी कीमत चुकानी पड़े। हो सकता है वह कुछ लोगों के लिए नजीर बने। मेरे साथ घटी घटना के बाद जब सहयात्री मेरे साहस की दाद दे रहे थे लेकिन मुझे वे सब उतने ही घटिया नजर आ रहे थे जितना कि वह नशेड़ी कांस्टेबल।

उस स्पेनिश युवती के पास भी विकल्प था कि वो चुपचाप अपने पति के साथ बिना आवाज उठाए यहां से चली जाती। लेकिन उसने ऐसा नहीं किया। उसने जो साहस दिखाया है वह अनगिनत पीड़िताओं को अपनी बात रखने का साहस देगा।

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