इस तरह मैं जिया-28: अच्छे नंबर वो लातीं पर श्रेय मुझे मिलता, कितनी अच्छी खबर लाता है
हर जीवन की ऐसी ही कथा होती है जिसे सुनना उसे जीने जितना ही दिलचस्प होता है। जीवन की लंबी अवधि सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में गुजारने वाले इस शृंखला के लेखक मनीष माथुर के जीवन की कथा को सुनना-पढ़ना साहित्य कृति को पढ़ने जितना ही दिलचस्प और उतना ही सरस अनुभव है। यह वर्णन इतना आत्मीय है कि इसमें पाठक को अपने जीवन के रंग और अक्स दिखाई देना तय है।
मनीष माथुर, सामाजिक कार्यकर्ता
होशंगाबाद (अब नर्मदापुरम): 1977-1981
होशंगाबाद के अंतिम महीने मेरे लिए घातक साबित हुए। दसवीं की छमाही में मेरे अंक जो गिरे तो फिर अगले दो साल तक सेंसेक्स की तरह गिरते रहे। जहां तक मुझे याद है, दसवीं (जो बोर्ड एग्जाम नहीं थी) में मेरा प्राप्तांक 60% को छू पाया। इस तरह मेरे कड़े दिन शुरू हो गए थे, जहां मैं अपने परिवार और समाज की नजरों में नीचे जा रहा था। मेरे परिवार के लिए ये कठिन समय था लेकिन मेरे लिए मौज-मजे का। उन दिनों मार्क-शीट के पहले कॉलेज के नोटिस बोर्ड पर एक लिस्ट चिपका दी जाती जिसे क्रॉस-लिस्ट कहा जाता। मुझे घर का सर्वोत्तम हरकारा घोषित किया गया। मेरी दीदीयां मुझसे अनुरोध करती थीं कि मैं वो क्रॉस-लिस्ट पढूं और आकर सूचना दूं कि किस दीदी की कौन सी पोजीशन आई, कितने नंबर आए। मेहनत वो करतीं, अच्छे नंबर वो लातीं पर श्रेय मुझे मिलता, कितनी अच्छी खबर लाता है! ये बात अलग है, कि मेरे स्वयं के लाए हुए परिणाम उतने प्रभावशाली नहीं होते।
डेविल: एक दिन मेरा मित्र प्रफुल्ल आया और उसने सूचना दी कि पुलिस-लाइन में बहुत सुंदर और जबर्दस्त पिल्ले पैदा हुए हैं, जो पुलिस के एक मशहूर कुत्ते के बच्चे हैं। मुझे पिल्लों से बहुत प्यार था। जो उस उम्र में लगभग सभी को होता था। मैं एक रूआबदार पिल्ले को लिए घर आ गया। घर में बवाल मचा कि कुछ समय इसका ध्यान रखोगे, फिर उसके खाने–पीने, घूमने का ध्यान मां को रखना होगा। इतिहास इसका गवाह भी था। परंतु जगह की पर्याप्त उपलब्धता के कारण अंततः उसे आसरा मिल गया। हम सब उस समय बेताल (फैंटम अथवा चलता-फिरता प्रेत) की कॉमिक्स पढ़ते थे, अत: उसका नाम रखा गया डेविल। डेविल मेरा अच्छा दोस्त बना। मां किसी भी जानवर या चिड़िया को बांध कर रखने में विश्वास नहीं रखती थी। अत: उसे भी कंपाउंड में खुला छोड़ा जाता। खाना वो घर पे खाता पर कोठी-बाजार में घुमने के लिए वो स्वतंत्र था।
डेविल ने अब एक नई जिम्मेदारी ओढ़ ली थी। वो थी मेरी दीदीयों को उनके कॉलेज तक पहुचाने की। दीदीयों को उससे वैसी मुहब्बत नहीं थी जैसी मुझे थी। रास्ते भर वो उसे वापस जाने को कहतीं पर वो आसपास की झाडियों में छुपता-छुपाता उन्हें उनके क्लास रूम तक छोड़ता। कई बार तो उनके क्लास रूम में ही घुस के उनके लौटने के इंतज़ार में किसी कोने में बैठ जाता। जाहिर है कि अन्य छात्राएं एवं प्राध्यापक उसकी उपस्थिति से प्रसन्न नहीं होते और मेरी दीदीयां उसे अपना पालतु मानने से साफ़ इंकार कर देतीं। डेविल की ये मोहब्बत ग्वालियर तक जारी रही। साहेब होन में ये रिवाज था कि भले ही सब से वो हिंदी में बात करें परंतु अपने कुत्ते से वे अंग्रेजी में ही बतियाते। जैसे ही कोई मेहमान हमारे घर आता, डेविल उसका स्वागत अपने दोनों सामने के पंजे उसकी छाती पर रख कर करता।
पापा कमांड देते, “No डेविल, No” परंतु डेविल जब तक आगंतुक की पूरी frisking नहीं कर लेता, उन्हें छोड़ता नहीं। हम समवेत स्वर में आश्वासन देते, घबराइए नहीं, काटेगा नहीं, परंतु आगंतुक की आधी जान तो निकल ही जाती।
दसवीं मैंने जैसे-तैसे 62% से पास की जो एक पीसीएम लिए हुए छात्र के लिए अच्छी खबर नहीं थी। किसी भी इंजीनियरिंग कॉलेज में दाखिला ग्यारहवीं बोर्ड में मिले अंकों के आधार पर ही मिलता था। ग्यारहवीं में आते ही मामला संगीन हो गया। पढ़ाने वाले सभी व्याख्याता गंभीर स्वभाव के थे और पढ़ाई कठिन। एक 15-16 वर्षीय किशोर के लिए राह कठिन होती जा रही थी।
पापा का होशंगाबाद का कार्यकाल सितंबर 1980 में समाप्त हो रहा था। शरणार्थियों के पुनर्वास (सोहागपुर, डोलरिया, टिमरनी कैम्प्स) का काम उन्होंने बिना किसी बाधा के समय पर निपटा दिया और उनका तबादला ग्वालियर हो गया था। धीरे-धीरे पापा के ऑफिस का अमला भी, अलग-अलग राज्यों में शिफ्ट हो रहा था। हमें दशहरा-दीवाली की छुट्टी में शिफ्ट होना था। उस समय मध्यप्रदेश में दशहरा से दीवाली का अवकाश निरंतर होता था। दशहरा पर बंद हुई शालाएं दीवाली के बाद की भाईदूज के अगले दिन खुलतीं। सारी दीदीयां कॉलेज में आ चुकी थीं। हम बड़े हो रहे थे, शकर की कीमतें आसमान छू रही थीं। सामान्य परिवारों में जहां सदस्यों की संख्या ज्यादा थी, मुश्किलें बढती जा रहीं थीं। पापा ने ग्वालियर में मां की सलाह पर हाउसिंग–बोर्ड का एक MIG मकान अपने PF से लोन ले कर खरीदा था, जिसकी किश्त उनके मासिक वेतन से कटती थी। हम लोग चाय में चीनी के बजाय गुड़ का प्रयोग करने लगे थे। ग्वालियर के मकान का कब्जा मिल गया था, इसलिए राहत थी कि कम-से-कम किराया नहीं चुकाना पडेगा तथा हम अपनी दादी और चचेरे भाई-बहनों से रोज मिल सकेंगे।
अशोक-लेलैंड: मैं घर का बड़ा लड़का था। पापा अभी तक भारत सरकार में प्रति-नियुक्ति पर थे, अतः स्थानीय प्रशासन का सक्रिय सहयोग हमारी शिफ्टिंग में नगण्य था। मैंने पापा को वादा किया कि सामान की शिफ्टिंग के लिए ट्रक की व्यवस्था में करूंगा। मुझे ये जिम्मेदारी सौंप दी गई। मुझे पता चला कि सब्जी मंडी के इमरान मियां के पास अशोक-लेलैंड ट्रक है। मुझे खुशी हुई। चूंकि पापा का सारा स्टाफ जा चुका था, अतः ट्रक के साथ जाने की जिम्मेदारी भी मैंने ली। अशोक-लेलैंड से भोपाल-ग्वालियर का रात का सफर मुझे बहुत रोमांचक लगा। मैं सब्जी मंडी पहुंचा। पूछते हुए इमरान मियां की आढ़त तक पहुंचा।
एक वयस्क की तरह मैंने वहां बैठे एक जवान से पूछा, “भाई, इमरान मियां कहां मिलेंगे?”
जवान से जवाब मिला, “कों खां कौन सी किलास तक पढ़े हो? थोड़ी तमीज भी सीख लो। इमरान भाई आपके अब्बा की उम्र के हैं। उन्हें आप इमरान मियां बुला रहे हो?”
मुझे अपनी इस गलती पर (मुझे पता भी ना था कि ये संबोधन बराबर वाले उम्र के लिए होता है) बुरा लगा। अंततः वो सौदा पक्का हुआ और मैं खुश हुआ कि भले ही चला नहीं पाऊंगा पर अपने पसंदीदा ट्रक में रात का सफर कितना रोमांचक होगा!
हर नर्मदे! अपना ख्याल रखिए और मस्त रहिए! जारी…
इस तरह मैं जिया-1: आखिर मैं साबित कर पाया कि ‘मर्द को दर्द नहीं होता’
इस तरह मैं जिया-2: लगता था ड्राइवर से अच्छी जिंदगी किसी की नहीं…
इस तरह मैं जिया-3: हम लखपति होते-होते बाल-बाल बचे…
इस तरह मैं जिया-4: एक बैरियर बनाओ और आने-जाने वालों से टैक्स वसूलो
इस तरह मैं जिया-5: वाह भइया, पुरौनी का तो डाला ही नहीं!
इस तरह मैं जिया-6: पानी भर कर छागल को खिड़की के बाहर लटकाया…
इस तरह मैं जिया-7: पानी भरे खेत, घास के गुच्छे, झुके लोग… मैं मंत्रमुग्ध देखता रहा
इस तरह मैं जिया-8 : मेरे प्रेम करने के सपने उस घटना के साथ चूर-चूर हो गए
इस तरह मैं जिया-9 : हमने मान लिया, वो आंखें बंद कर सपने देख रहे हैं
इस तरह मैं जिया-10 : हमारे लिए ये एक बड़ा सदमा था …
इस तरह मैं जिया-11: संगीत की तरह सुनाई देती साइकिल के टायरों की आवाज
इस तरह मैं जिया-12: मैसेज साफ था, जान-पैचान होने का मतलब यह नहीं कि तू घुस्ताई चला आएगा
इस तरह मैं जिया-13 : एक चाय की प्याली और ‘दीमाग खोराब से ठोंडा’ हो जाता
इस तरह मैं जिया-14 : तस्वीर संग जिसका जन्मदिन मनाया था वह 40 साल बाद यूं मिला …
इस तरह मैं जिया-15 : अगर कोई पवित्र आत्मा यहां से गुजर रही है तो …
इस तरह मैं जिया-16 : हम उसे गटागट के नाम से जानते थे …
इस तरह मैं जिया-17 : कर्नल साहब ने खिड़कियां पीटना शुरू की तो चीख-पुकार मच गई
इस तरह मैं जिया-18 : इतनी मुहब्बत! मुझे ऐसा प्रेम कहीं ना मिला
इस तरह मैं जिया-19 : एक दुकान जहां सुई से लेकर जहाज तक सब मिलता था
इस तरह मैं जिया-20 : मेरी बनाई झालर से झिलमिलाता था घर, कहां गए वे दिन?
इस तरह मैं जिया-21 : नायकर साहब पहले ही राउंड में बाहर हुए तो बुरा लगा
इस तरह मैं जिया-22 : … उसने जयघोष करते हुए परीक्षा हॉल में खर्रे बिखेर दिए
इस तरह मैं जिया-23 : फेंके हुए सिक्कों में से उनके हाथ 22 पैसे लगे…
इस तरह मैं जिया-24 : आई सा ‘मस्का-डोमेस्टिका’ इन माय रूम
इस तरह मैं जिया-25 : तब ऐसी बोलचाल को मोहब्बत माना जाता था
इस तरह मैं जिया-26 : बाल सेट करने का मतलब होता था ‘अमिताभ कट’
इस तरह मैं जिया-27 : जहां नर्मदा में नहाना सपड़ना था और शून्य था मिंडी