इस तरह मैं जिया-30: ढाबे की दाल और तंदूरी रोटी खाने की मेरी अभिलाषा भी ध्वस्त हुई
हर जीवन की ऐसी ही कथा होती है जिसे सुनना उसे जीने जितना ही दिलचस्प होता है। जीवन की लंबी अवधि सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में गुजारने वाले इस शृंखला के लेखक मनीष माथुर के जीवन की कथा को सुनना-पढ़ना साहित्य कृति को पढ़ने जितना ही दिलचस्प और उतना ही सरस अनुभव है। यह वर्णन इतना आत्मीय है कि इसमें पाठक को अपने जीवन के रंग और अक्स दिखाई देना तय है।
मनीष माथुर, सामाजिक कार्यकर्ता
होशंगाबाद (अब नर्मदापुरम) से ग्वालियर की ट्रक यात्रा -1
दशहरे के ठीक पहले 1981:
मैं जहां लोडिंग में व्यस्त हुआ, वहां पापा नेपथ्य में परेशान हो रहे थे। योजना यूं थी कि मुझे तो ट्रक से ही जाना था, परंतु मम्मी, पापा तथा अन्य सामान्य जनता के लिए ऐसी ट्रेन से रवानगी तय हुई थी जो शाम को होशंगाबाद से छूटती हो। आप जानते ही हैं, तब होशंगाबाद में चुनिंदा मेल/एक्सप्रेस ही रुकती थीं। ऊपर से समस्या यह कि हर स्टेशन का एक बर्थ कोटा होता है। अब प्रथम श्रेणी में होशंगाबाद से 7 बर्थ मिलना संभव/आसान नहीं था। जुगाड़ लगाया गया कि कुछ बर्थ होशंगाबाद से और बाकी भोपाल से रिजर्व करवा ली जाएं। तब पूरे मोहल्ले में तीन-चार लैंडलाइन फोन हुआ करते थे और अगर आप किसी गैर-सरकारी मकान में निवास करते हों तो सरकार अपना फोन आपकी रवानगी से एक दिन पहले ही उठा लेती थी।
जब पूरा सामान लोड हो गया फिर हमारी प्यारी श्यामा की नातिन श्यामा-2 को चढाया गया। फिर मां के प्रिय पौधों के गमले रखे गए और अंत में बहुत मान-मुनव्वल के बाद मेरे दोस्त डेविल को बांधा गया। इन सभी जीवित प्राणियों एवं वनस्पति को एक-दूसरे से तकलीफ न हो इस हेतु कहीं खाट का पार्टीशन तो कहीं बड़े बक्से का पार्टीशन जुगत* से लगाया गया (*जुगत अर्थात् यतन एवं होशियारी से काम करना। इसका जुगाड़ से कोई संबंध नहीं है)। इस शब्द जुगत से मेरी पहचान भी मैया ने ही करवाई।
अब सलीम भाई परेशान कि इस लोड पर रस्सी और तिरपाल कैसे कसें? पापा द्वारा उनको सख्त हिदायत दी गई थी कि किसी सामान, गमले एवं उसके पौधे, श्यामा –2 , डेविल को एक भी खरोंच नहीं आना चाहिए। यहां उस्ताद ने अपना प्रवेश दर्ज करवाते हुए सलीम भाई को कुछ प्रोफेशनल टिप्स दिए और समस्या हल हुई।
हमारा अशोक-लेलैंड अब प्रस्थान के लिए उत्सुक था। अंदर से खबर आई कि होशंगाबाद से एक भी बर्थ नहीं मिली है। पापा के किसी परिचित ने भोपाल से खबर दी कि वे डीआरएम कोटे से जुगाड़ कर रहे हैं परंजु टिकट और बोर्डिंग भोपाल से ही संभव है। तब टैक्सी आदि का प्रचलन नहीं था, न इस फिजूलखर्च के लिए पैसे होते। बस की सुविधा भरपूर थी पर उस्ताद ने सुझाव दिया कि आप लोग भी भोपाल तक ट्रक में चलो। वहां लालघाटी पर उतार दूंगा। केबिन में क्लीनर की सीट की जगह लंबी बेंच थी जिस पर एक ट्रेन की बर्थ जैसी कुशनिंग थी। ड्रावर सीट के पीछे एक तरह से एक लोअर तथा एक अपर बर्थ थी।
दोपहर के ठीक तीन बजे, 5 महिलाओं, 5 पुरुष, एक गाय, एक कुता, कोई एक दर्जन पौधों, और घरेलू सामान से लदा–फदा हमारा ट्रक-सह-बस रवाना हुआ। पाठक उस दृश्य की कल्पना फिल्म ‘पीकू’ की टैक्सी से कर सकते हैं जिसमें अमिताभ बच्चन, दीपिका पादुकोण और स्वर्गीय इरफान खान ने अभिनय किया था। मेरा उत्साह ठंडा पड़ चुका था। उस जमाने में पिता की उपस्थिति ही आपको अनुशासित रखती थी। उस पर तुर्रा ये कि पापा एक वरीय सरकारी अधिकारी थे, जिनका काम ही law and order कायम रखना था और वे ‘खामोश’ बोलना अपनी गरजदार आवाज से प्रभावी तरह से जानते थे।
खैर! मैंने नर्मदा मैया और भगवान से प्रार्थना की, “हे भगवान, इन सबका टिकट भोपाल से कंफर्म करवा दो,प्लीज।” परंतु मेरी किस्मत, जो मुझ से दस कदम आगे चलती है, उस पर भरोसा था, कि ये साथ अब ग्वालियर तक सही होने वाला नहीं है। वही हुआ। लाल घाटी भोपाल में उन सज्जन ने सूचना दी, कि आज तो किसी ट्रेन में बर्थ नहीं हैं। हां, कल सुबह के लिए कोशिश की जा सकती है। हमें सीधे अपने घर (जो पिछले दो साल से ताला बंद था) पर ही सामान उतरवाना था। जो मां–पापा अपनी निगरानी में ही करवाना चाहते थे। अतः निर्णय हुआ कि सारा परिवार अब ग्वालियर तक मेरे अशोक लेलैंड में ही सफर करेगा। मैंने अब मन ही मन मुकेश के दर्दीले नग्में गाना शुरू किए क्योंकि अब मैं सलीम भाई अथवा उस्ताद से ज्यादा बात नहीं कर सकता था, न ही अपनी ट्रक चलाने की फंतासी को मुक्कमल कर सकता था। मेरा सारा उत्साह काफूर हुआ।
रास्ते में, सलीम भाई की भविष्यवाणी अनुसार हम दो जगह रुके। मैंने देखा कि सभी ट्रक के क्रू का व्यवहार बिल्कुल हवाई जहाज के क्रू जैसा ही पूर्व-निर्धारित और मैकेनिकल होता है। जैसे ही ट्रक का इंजन बंद होता सारे ड्राइवर (अथवा उस्ताद) बिना पीछे पलटे सीधे ढाबे की खटिया पर लेट जाते। जबकि सारे क्लीनर अपने हरे या लाल पेंचकस को ले कर नीचे कूदते और टायर ठोंकते। तिरपाल और रस्सियों को पुनः कसते। उसके बाद विंड शील्ड साफ की जाती, सारी खिड़कियां और दरवाजे बंद कर, हाथ मुंह धो कर ही उसी खटिया पर बैठते, जहां तब तक थोड़ा आराम कर, दाल फ्राय और रोटी का आर्डर देकर उस्ताद अपने सहयोगी का इंतज़ार करता बैठा होता।
मेरी ढाबे की दाल और तंदूरी रोटी की अभिलाषा भी ध्वस्त हुई क्योंकि मां सभी का खाना अपने 5 मंजिला टिफिन कैरियर में ले कर चली थी। पापा के पहुंचते ही ढाबे का मालिक लपका और 8 सवारियों को देख बड़ी आस से पूछा, “क्या लगवा दूं साहेब? ”
साहब ने सख्ती से जवाब दिया, “ड्राइवरों आदि से अलग एक टेबल लगा दो, खाना हमारे साथ है।”
उसने तीन खटियां लगवा दीं। उन पर पटिया के साथ और पानी और प्याज/नींबू आदि सजा दिए गए। मैंने मन मार के घर का खाना खाया।
हर नर्मदे! अपना ख्याल रखिए और मस्त रहिए! जारी…
इस तरह मैं जिया-1: आखिर मैं साबित कर पाया कि ‘मर्द को दर्द नहीं होता’
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इस तरह मैं जिया-5: वाह भइया, पुरौनी का तो डाला ही नहीं!
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इस तरह मैं जिया-8 : मेरे प्रेम करने के सपने उस घटना के साथ चूर-चूर हो गए
इस तरह मैं जिया-9 : हमने मान लिया, वो आंखें बंद कर सपने देख रहे हैं
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इस तरह मैं जिया-15 : अगर कोई पवित्र आत्मा यहां से गुजर रही है तो …
इस तरह मैं जिया-16 : हम उसे गटागट के नाम से जानते थे …
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इस तरह मैं जिया-18 : इतनी मुहब्बत! मुझे ऐसा प्रेम कहीं ना मिला
इस तरह मैं जिया-19 : एक दुकान जहां सुई से लेकर जहाज तक सब मिलता था
इस तरह मैं जिया-20 : मेरी बनाई झालर से झिलमिलाता था घर, कहां गए वे दिन?
इस तरह मैं जिया-21 : नायकर साहब पहले ही राउंड में बाहर हुए तो बुरा लगा
इस तरह मैं जिया-22 : … उसने जयघोष करते हुए परीक्षा हॉल में खर्रे बिखेर दिए
इस तरह मैं जिया-23 : फेंके हुए सिक्कों में से उनके हाथ 22 पैसे लगे…
इस तरह मैं जिया-24 : आई सा ‘मस्का-डोमेस्टिका’ इन माय रूम
इस तरह मैं जिया-25 : तब ऐसी बोलचाल को मोहब्बत माना जाता था
इस तरह मैं जिया-26 : बाल सेट करने का मतलब होता था ‘अमिताभ कट’
इस तरह मैं जिया-27 : जहां नर्मदा में नहाना सपड़ना था और शून्य था मिंडी
इस तरह मैं जिया-28 : पसंदीदा ट्रक में सफर का ख्याल ही कितना रोमांचक!
इस तरह मैं जिया-29 : दो बजे भी तिरपाल कस गई तो 6 बजे भोपाल पार