इस तरह मैं जिया-31: उस्ताद एक खटिया पर ढेर हुए और सलीम भाई ने टायर ठोकने का कर्त्तव्य निभाया
हर जीवन की ऐसी ही कथा होती है जिसे सुनना उसे जीने जितना ही दिलचस्प होता है। जीवन की लंबी अवधि सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में गुजारने वाले इस शृंखला के लेखक मनीष माथुर के जीवन की कथा को सुनना-पढ़ना साहित्य कृति को पढ़ने जितना ही दिलचस्प और उतना ही सरस अनुभव है। यह वर्णन इतना आत्मीय है कि इसमें पाठक को अपने जीवन के रंग और अक्स दिखाई देना तय है।
मनीष माथुर, सामाजिक कार्यकर्ता
होशंगाबाद (अब नर्मदापुरम) से ग्वालियर की ट्रक यात्रा -1
दशहरे के ठीक पहले 1981:
रात 9-10 बजे के आसपास उदर पूर्ति के पश्चात हमारा कारवां रवाना हुआ। उस्ताद के धैर्य का तब तक मैं कायल हो चुका था। पापा की लगातार दी जा रही हिदायतें और सड़क पर चल रहे अन्य वाहनों के चालकों, साइकिल सवारों, पैदल यात्रियों के कमजोर ट्रैफिक सेंस पर की जा रही टीका-टिप्पणी से बेजार वह शांतिपूर्वक अपना काम कर रहे थे।
रात के लगभग बारह बजे होंगे, मेरे अलावा सारे यात्री नींद के आगोश में थे। केबिन का धीमा प्रकाश, तीनों तरफ घुप्प अंधियारा और सामने चांदनी; सिर्फ अशोक लेलैंड के इंजन की रौबदार आवाज अन्यथा सन्नाटा। सवारियों में अब सिर्फ मैं जागा था।
अचानक मां चिल्लाईं, “रोको, रोको…किसी ने मेरे कंधे पर बाहर से कुछ मारा है! या तो ऊपर से कुछ सामान गिरा है।” उस्ताद सहित सभी चौंक गए। ट्रक रोक दिया गया। छान-बीन हुई। केबिन में कोई पत्थर आदि बरामद न हुआ। अतः अनुमान लगाया गया कि कुछ गिरा होगा। सलीम भाई और मुझे निर्देश दिया गया कि गाड़ी से उतर कर छानबीन करें। सलीम ने तिरपाल/रस्सियां चेक कीं। ट्रक के डाले के अंदर टॉर्च मार कर देखा, सब सही-सलामत था। लगभग 100 मीटर हम टॉर्च की रौशनी मारते हुए, ट्रक के पीछे भी अपने अनुसंधान के लिए गए, परंतु कुछ ना मिला। हम कालिया और उसके साथी की तरह गब्बर के सामने प्रकट हुए, ‘खाली हाथ’। ईश्वर की अनुकंपा से हमें सरदार से गोलियां नहीं खानी पड़ीं।
मां को समझाया गया कि उनका कंधा ही साइड में टकराया होगा। एक दीदी फुसफुसाई, बाहर कितना अंधेरा है, कोई भूत भी हो सकता है! बहरहाल सब फिर निश्चिन्त हो कर सो गए, और कारवां आगे बढा।
सुबह लगभग तीन बजे उस्ताद को नींद का झोंका आया। एक कुशल और अनुभवी चालक के नाते ट्रक एक ढाबे के सामने खड़ा किया गया ताकि उस्ताद और सलीम चाय पी सकें और आगे की यात्रा के लिए तरोताजा हो सकें। उस्ताद अपने प्रोटोकॉल को निभाते हुए, एक खटिया पर ढेर हुए और सलीम भाई ने अपना टायर ठोकने का कर्त्तव्य निभाया। मैं भी रात भर का जगा हुआ था इसलिए इस चाय पार्टी में शामिल हुआ। जब आधा घंटा हो गया तब पापा ने नोटिस किया कि गाड़ी काफी देर से खड़ी है। अतः मुझे तलब किया गया। आदेश हुआ कि उस्ताद को बोलो की तुतरित प्रस्थान करें।
ड्राइवर साहब जो उस गाड़ी के कप्तान होते हैं, इस तरह के आदेशों की अपेक्षा नहीं रखते। बस हो या ट्रक, गाड़ी उनके अनुसार ही चलती है, न कि सवारियों के अनुसार। परंतु तब तक ड्राइवर साब को अंदाजा हो गया था कि वे एक सरकारी अधिकारी के परिवार को ढो रहे हैं, जो उन्हें या उनके परिवार के किसी सदस्य को सरकारी नौकरी दिलवाने की हैसियत रखता है। एक अंगडाई ले कर वे फिर स्टीयरिंग पर बैठे।
सुबह लगभग 6 बजे हमारा ग्वालियर में प्रवेश हुआ और हमारे घर तक पहुंचने में लगभग 7 बज गए। घर के ताले खोले गए और माल –ओ –असबाब को उतारने की प्रक्रिया शुरू हुई।
एक सवारी जो ऊपर सो रही थी ने पुकार मचाई कि उसकी हील वाली एक सेंडल नहीं मिल रही है। वो भूत नहीं था मैंने उसे चिढ़ाते हुए कहा, आपकी सेंडल थी!
सलीम भाई हमारे डेविल को बूटा पुकारते थे। उन्होंने पूछा, “काटेगा तो नहीं?” हमने समवेत सुर में जवाब दिया, “बिलकुल नहीं।” पर डेविल तो डेविल था रात भर वो चलते ट्रक में बेचैन हो चुका था। सलीम भाई से मिलते ही उसने सलीम को काटा। गाय तथा असबाब को उतारते 7.30 बज रहे थे।
उस्ताद ने पूछा, अब भोपाल का लोड कहां मिलेगा, मैंने अपनी जानकारी अनुसार उन्हें दाल-बाजार का पता दिया। उस्ताद और सलीम को पापा ने किसी सरकारी नौकरी दिलाने का आश्वासन दिया, कुछ रुपये उनके हाथ में दिए, और वे खुशी–खुशी विदा हुए। सलीम भाई ने बूटा के काटने को कोई आपत्तिजनक घटना नहीं माना, गाय को पुचकारा और डेविल जो अभी सदमे और गुस्से में था उसे दूर से टाटा किया।
मैंने अशोक-लेलैंड को आंखों से ओझल होने तक निहारा!
हर नर्मदे! अपना ख्याल रखिए और मस्त रहिए। जारी…
इस तरह मैं जिया-1: आखिर मैं साबित कर पाया कि ‘मर्द को दर्द नहीं होता’
इस तरह मैं जिया-2: लगता था ड्राइवर से अच्छी जिंदगी किसी की नहीं…
इस तरह मैं जिया-3: हम लखपति होते-होते बाल-बाल बचे…
इस तरह मैं जिया-4: एक बैरियर बनाओ और आने-जाने वालों से टैक्स वसूलो
इस तरह मैं जिया-5: वाह भइया, पुरौनी का तो डाला ही नहीं!
इस तरह मैं जिया-6: पानी भर कर छागल को खिड़की के बाहर लटकाया…
इस तरह मैं जिया-7: पानी भरे खेत, घास के गुच्छे, झुके लोग… मैं मंत्रमुग्ध देखता रहा
इस तरह मैं जिया-8 : मेरे प्रेम करने के सपने उस घटना के साथ चूर-चूर हो गए
इस तरह मैं जिया-9 : हमने मान लिया, वो आंखें बंद कर सपने देख रहे हैं
इस तरह मैं जिया-10 : हमारे लिए ये एक बड़ा सदमा था …
इस तरह मैं जिया-11: संगीत की तरह सुनाई देती साइकिल के टायरों की आवाज
इस तरह मैं जिया-12: मैसेज साफ था, जान-पैचान होने का मतलब यह नहीं कि तू घुस्ताई चला आएगा
इस तरह मैं जिया-13 : एक चाय की प्याली और ‘दीमाग खोराब से ठोंडा’ हो जाता
इस तरह मैं जिया-14 : तस्वीर संग जिसका जन्मदिन मनाया था वह 40 साल बाद यूं मिला …
इस तरह मैं जिया-15 : अगर कोई पवित्र आत्मा यहां से गुजर रही है तो …
इस तरह मैं जिया-16 : हम उसे गटागट के नाम से जानते थे …
इस तरह मैं जिया-17 : कर्नल साहब ने खिड़कियां पीटना शुरू की तो चीख-पुकार मच गई
इस तरह मैं जिया-18 : इतनी मुहब्बत! मुझे ऐसा प्रेम कहीं ना मिला
इस तरह मैं जिया-19 : एक दुकान जहां सुई से लेकर जहाज तक सब मिलता था
इस तरह मैं जिया-20 : मेरी बनाई झालर से झिलमिलाता था घर, कहां गए वे दिन?
इस तरह मैं जिया-21 : नायकर साहब पहले ही राउंड में बाहर हुए तो बुरा लगा
इस तरह मैं जिया-22 : … उसने जयघोष करते हुए परीक्षा हॉल में खर्रे बिखेर दिए
इस तरह मैं जिया-23 : फेंके हुए सिक्कों में से उनके हाथ 22 पैसे लगे…
इस तरह मैं जिया-24 : आई सा ‘मस्का-डोमेस्टिका’ इन माय रूम
इस तरह मैं जिया-25 : तब ऐसी बोलचाल को मोहब्बत माना जाता था
इस तरह मैं जिया-26 : बाल सेट करने का मतलब होता था ‘अमिताभ कट’
इस तरह मैं जिया-27 : जहां नर्मदा में नहाना सपड़ना था और शून्य था मिंडी
इस तरह मैं जिया-28 : पसंदीदा ट्रक में सफर का ख्याल ही कितना रोमांचक!
इस तरह मैं जिया-29 : दो बजे भी तिरपाल कस गई तो 6 बजे भोपाल पार
इस तरह मैं जिया-30 : “हे भगवान, इन सबका टिकट कंफर्म करवा दो,प्लीज”