इस तरह मैं जिया-29: बच्चों को अनुशासन में रखने वाली मां गंगा तो मां का भोला रूप नर्मदा
हर जीवन की ऐसी ही कथा होती है जिसे सुनना उसे जीने जितना ही दिलचस्प होता है। जीवन की लंबी अवधि सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में गुजारने वाले इस शृंखला के लेखक मनीष माथुर के जीवन की कथा को सुनना-पढ़ना साहित्य कृति को पढ़ने जितना ही दिलचस्प और उतना ही सरस अनुभव है। यह वर्णन इतना आत्मीय है कि इसमें पाठक को अपने जीवन के रंग और अक्स दिखाई देना तय है।
मनीष माथुर, सामाजिक कार्यकर्ता
होशंगाबाद (अब नर्मदापुरम): 1977-1981
मां नर्मदा से बिछड़ना बहुत तकलीफदेह था। मां नर्मदा को एक भोली-भाली मां के रूप में जाना और पूजा जाता है। जहां मां गंगा, बच्चों को अनुशासन में रखने वाली मां के रूप में नजर आती है, वहीं मां का भोला रूप आपको नर्मदा जी में नजर आता है। वो दुलारती है, अपने आंचल में अपने बच्चों को गर्माहट और स्नेह देती है। डराती या धमकाती नहीं। मैंने गंगा मैया के पहले दर्शन बिहार (अब झारखंड) के राज महल में 1993 के जनवरी माह में किए जो तब दुमका जिले में था। मां गंगा का दूसरा किनारा नजर नहीं आता था। मटमैले पानी का एक विशाल नद मेरी आंखों के सामने था, जो ललकारता था कि हिम्मत है तो कूदो। पानी के उस विशाल बहाव में जानवरों और कुछ इंसानों के मृत शरीर बह रहे थे, जिस पर कौवे और अन्य पक्षी बैठे हुए, उन्हीं का भक्षण कर रहे थे।
मुझे अविभाजित बिहार का दर्शन करवाने वाले मेरे सहकर्मी थे वकार अंजुम। एक बहुत ही दिलचस्प व्यक्तित्व के धनी। जब उन्होंने बताया कि हम गंगा के तट पर पहुंचने वाले हैं तो मेरे अंदर का नदी का तैराक जाग चुका था। मैंने कहा, ‘‘वकार भाई, मैं तैरना चाहूंगा…’’ तो उनके चेहरे पर एक मुस्कान तैर गई। तट पर पहुंचते ही जो दृश्य दिखा मैंने दूर से ही जय गंगा मैया का उद्घोष किया, परंतु उसमें कूदने की हिम्मत नहीं हुई। विशाल और कुछ हद तक विकराल मां के दर्शन होते ही मेरी फूंक सरक गईं। नर्मदा मां के किसी भी छोर पर मैं उसमें डुबकियां लगाता, तैरता और मां की ऊष्णता और दुलार को महसूस करता।
जहां ग्वालियर के बड़े और होशंगाबाद का छोटा कस्बा होने के पैमाने थे रेलगाडि़यों और टॉकीज की संख्या। ग्वालियर मध्यप्रदेश के बड़े शहरों में गिना जाता था और जहां लगभग सारी एक्सप्रेस गाड़ियां रूकती थीं। ग्वालियर में उस समय 12-15 सिनेमा घर थे। वहीं होशंगाबाद में चुनिंदा रेलगाड़ियों के स्टॉपेज और मात्र दो सिनेमा घर थे। महावीर सिनेमा का उदघाटन 1980-81 में ही हुआ होगा। महावीर सिनेमा में ही मैंने पहली बार शोले फिल्म उसकी रिलीज के 6 वर्ष बाद देखी थी। तब फिल्मों के कुछ ही प्रिंट रिलीज होते थे और कस्बों तक आने में हिट फिल्मों को सालों लगते थे।
नर्मदा से बिछोह के कुछ हफ्ते पहले से ही मुझे उसकी याद आने लगी। ये कला मैंने अपने अनुज से समझी थी। कई बार वो स्कूल से लौट के हमारी मम्मी या बड़ी दीदी से लिपट जाता और रोता, “मुझे आपकी याद आ रही है।” किसी के उपस्थित रहते हुए भी, आपको उसकी याद आ सकती है! ये तभी संभव है, जब आप उस इंसान या नदी से इतना प्यार करते हो। वहां रहते हुए भी, मुझे नर्मदा जी के पूर (spate) पर होने पर भी उसमें तैरना याद आता। उसके किनारे घूमते हुए, जंगली फलों को खाना और दीदीयों के लिए लाना याद आता। परंतु ग्वालियर का आकर्षण भी खींचता था जहां भांति-भांति के मनोरंजन के साधन मौजूद थे।
बहरहाल, वो दिन आया जब मां ने असबाब की प्रोफेशनल पैकिंग कर दी और मेरा पसंदीदा Ashok-Leyland हमारे द्वारे लोडिंग हेतु अवतरित हुआ। मैंने तुरंत उसके ड्राइवर साहब और क्लीनर से मधुर संबंध स्थापित किए। ड्राइवर साहब जरा गंभीर चेहरा और व्यवहार पसंद थे इसलिए उनसे कोई खास बातचीत ना हुई। पर क्लीनर अन्य सहकर्मियों की तरह वाचाल थे।
लोडिंग शुरू होने के पहले हमारा संवाद ट्रक के केबिन में बैठ कर हुआ। क्लीनर साहब का नाम सलीम था, जो उस समय केबिन में विराजे शंकर जी के आगे अगरबत्ती जला रहे थे। उसके पहले उनने अपने प्राथमिक कार्य बड़ी शिद्दत से निपटाए। ट्रक को सही जगह खडा करवा कर सबसे पहले ट्रक के पिछले टायर में ओट (स्टॉपर) लगाईं। फिर एक बड़े से हरे पेंचकस से उन्होंने गाड़ी के सारे टायर्स को ठोक के हवा चेक की। अनुभवी कान टायर को पेंचकस से ठोकने से हुई आवाज सुन कर ही बता देते थे कि सब ठीक है या नहीं। बड़े जतन से फिर टायर्स की रिब्स में फंसे कंकर निकाले। फिर उन्होंने पूरी गाड़ी साफ की। केबिन की अंदर/बाहर से विशेष सफाई हुई। कांच साफ करने के लिए पुराने अखबार की मांग हुई। पूरी तरह से संतुष्ट होने के बाद उन्होंने अच्छी तरह से हाथ-पैर-मुंह साफ किए और अगरबत्ती लगाने बैठ गए। कद में थोड़े छोटे और गजब की फुर्ती वाले जवान।
मैं- सलीम भाई, हम किस रास्ते से जाएंगे? आपको पता है?
सलीम- इस लाइन में 5 साल से हूं। रोजी पे बैठा हूं। झूठ नहीं बोलूंगा। इस गाड़ी पे दिन-रात का चलना है। मुझे नहीं पता होगा तो फिर तो खुदा को भी नहीं पता होगा। उस्ताद भी मेरे यकीन पर ही स्टीयरिंग पर बैठते हैं। बस यहां से भोपाल हीटेंगे फिर बियावरा लिकल लेंगे। बॉम्बे-आगरा हाईवे पकड़ के गुना–शिवपुरी और गवालिअर।
मैं- कितना टाइम लगेगा?
सलीम- राजा गाड़ी है अपनी। हद-से-हद 15-16 घंटे।
मैं- और इसकी हेडलाइट्स?
सलीम- चांदनी बिखेर देती हैं चांदनी! आप तो बिस्तर पे सोना। चाय-माय और खाने के लिए रुकेंगे बस। लोडिंग जल्दी करवा दो। दो बजे भी तिरपाल कस गई तो 6 बजे भोपाल पार।
हर नर्मदे! अपना ख्याल रखिए और मस्त रहिए! जारी…
इस तरह मैं जिया-1: आखिर मैं साबित कर पाया कि ‘मर्द को दर्द नहीं होता’
इस तरह मैं जिया-2: लगता था ड्राइवर से अच्छी जिंदगी किसी की नहीं…
इस तरह मैं जिया-3: हम लखपति होते-होते बाल-बाल बचे…
इस तरह मैं जिया-4: एक बैरियर बनाओ और आने-जाने वालों से टैक्स वसूलो
इस तरह मैं जिया-5: वाह भइया, पुरौनी का तो डाला ही नहीं!
इस तरह मैं जिया-6: पानी भर कर छागल को खिड़की के बाहर लटकाया…
इस तरह मैं जिया-7: पानी भरे खेत, घास के गुच्छे, झुके लोग… मैं मंत्रमुग्ध देखता रहा
इस तरह मैं जिया-8 : मेरे प्रेम करने के सपने उस घटना के साथ चूर-चूर हो गए
इस तरह मैं जिया-9 : हमने मान लिया, वो आंखें बंद कर सपने देख रहे हैं
इस तरह मैं जिया-10 : हमारे लिए ये एक बड़ा सदमा था …
इस तरह मैं जिया-11: संगीत की तरह सुनाई देती साइकिल के टायरों की आवाज
इस तरह मैं जिया-12: मैसेज साफ था, जान-पैचान होने का मतलब यह नहीं कि तू घुस्ताई चला आएगा
इस तरह मैं जिया-13 : एक चाय की प्याली और ‘दीमाग खोराब से ठोंडा’ हो जाता
इस तरह मैं जिया-14 : तस्वीर संग जिसका जन्मदिन मनाया था वह 40 साल बाद यूं मिला …
इस तरह मैं जिया-15 : अगर कोई पवित्र आत्मा यहां से गुजर रही है तो …
इस तरह मैं जिया-16 : हम उसे गटागट के नाम से जानते थे …
इस तरह मैं जिया-17 : कर्नल साहब ने खिड़कियां पीटना शुरू की तो चीख-पुकार मच गई
इस तरह मैं जिया-18 : इतनी मुहब्बत! मुझे ऐसा प्रेम कहीं ना मिला
इस तरह मैं जिया-19 : एक दुकान जहां सुई से लेकर जहाज तक सब मिलता था
इस तरह मैं जिया-20 : मेरी बनाई झालर से झिलमिलाता था घर, कहां गए वे दिन?
इस तरह मैं जिया-21 : नायकर साहब पहले ही राउंड में बाहर हुए तो बुरा लगा
इस तरह मैं जिया-22 : … उसने जयघोष करते हुए परीक्षा हॉल में खर्रे बिखेर दिए
इस तरह मैं जिया-23 : फेंके हुए सिक्कों में से उनके हाथ 22 पैसे लगे…
इस तरह मैं जिया-24 : आई सा ‘मस्का-डोमेस्टिका’ इन माय रूम
इस तरह मैं जिया-25 : तब ऐसी बोलचाल को मोहब्बत माना जाता था
इस तरह मैं जिया-26 : बाल सेट करने का मतलब होता था ‘अमिताभ कट’
इस तरह मैं जिया-27 : जहां नर्मदा में नहाना सपड़ना था और शून्य था मिंडी
इस तरह मैं जिया-28 : पसंदीदा ट्रक में सफर का ख्याल ही कितना रोमांचक!