पॉजीटिविटी के फेर में खो न जाएं ‘वो 70 मिनट’

पंकज शुक्‍ला

“सत्तर मिनट। सिर्फ सत्तर मिनट हैं तुम्हारे पास। शायद, तुम्हारी ज़िन्दगी के सबसे ख़ास सत्तर मिनट। आज तुम अच्छा खेलो या बुरा, ये सत्तर मिनट तुम्हें ज़िन्दगी भर याद रहेंगे। तो कैसे खेलना है, आज मैं तुम्हें नहीं बताऊंगा। बस इतना कहूंगा, कि जाओ और ये सत्तर मिनट जी भर के खेलो। क्यूंकि इसके बाद आने वाली ज़िन्दगी में चाहे कुछ सही हो या न हो, चाहे कुछ रहे या न रहे, तुम हारो या जीतो लेकिन ये सत्तर मिनट तुमसे कोई छीन नहीं सकता। कोई नहीं। तो मैंने सोचा कि इस मैच में कैसे खेलना है, आज मैं तुम्हें नहीं बताऊंगा बल्कि तुम मुझे बताओगे। खेलकर। क्यूंकि मैं जानता हूं कि अगर ये सत्तर मिनट इस टीम का हर प्लेयर अपनी ज़िन्दगी की सबसे बढ़िया हॉकी खेल गया तो ये सत्तर मिनट ख़ुदा भी तुमसे वापिस नहीं मांग सकता। तो जाओ। जाओ, और अपने आप से, अपनी ज़िन्दगी से, अपने ख़ुदा से और हर उस इंसान से जिसने तुम्हें… तुमपर भरोसा नहीं किया, अपने सत्तर मिनट छीन लो…”

फिल्‍म ‘चक दे इंडिया’ में महिला हॉकी टीम के कोच बने शाहरूख खान के इस डायलॉग के बाद का नजारा एकदम अलग होता है। अपने कोच द्वारा दिखाए इस विश्‍वास की बदौलत पूरी टीम फाइनल का तनाव उतार कर फेंक देती है। सत्तर मिनट में वे मैदान ही नहीं मार लेती है बल्कि आपस के विवाद, प्रतिस्‍पर्धा, ईर्ष्‍या, अहम् सबकुछ पिघला कर अपने लिए कंचन गढ़ लेती हैं। 2007 में आई फिल्‍म ‘चक दे इंडिया’ इस बरस रिलीज के 14 वर्ष पूरे कर चुकी है। जब भी हम 14 बरस का जिक्र करते हैं तो सबसे पहले श्री राम का वनवास ही याद आता है। कैसा संयोग है कि ‘चक दे इंडिया’ का अंत 70 मिनट की जिस सफलता को दिखलाता है उसे पाने के लिए 14 बरस के वनवास जैसे कष्‍टसाध्‍य परिश्रम और तप से गुजरना पड़ता है।

यहां तक पढ़ते पढ़ते आपके मन में यह सवाल तो उठ ही खड़ा हुआ होगा कि यह सब बातें क्‍यों की जा रही है? बातें जलेबी की तरह घूमा फिरा कर क्‍यों कहीं जा रही हैं? सीधे सीधे क्‍यों नहीं कही जा रही हैं?

तो चलिए, सीधे सीधे बात करते हैं। बात यह है कि कोरोना काल में बच्‍चों की ऑनलाइन कक्षाएं चली हैं। एक पूरे बरस की पढ़ाई हुई नहीं है। बिना परीक्षा या औसत के आधार पर नंबर दे दिए गए हैं। बच्‍चों के सीखने पर संकट खड़ा हुआ है। प्राथमिक कक्षाओं में तो बच्‍चों को वर्तमान के साथ पिछली कक्षा का पाठ्यक्रम भी पढ़ाया जा रहा है। मगर उच्‍च कक्षाओं के विद्यार्थी और काम्पिटिशन एक्‍जाम की तैयारी कर रहे युवा अलग तरह के संकट से जूझ रहे हैं। उन पर तमाम विपरीत परिस्थितियों से उबर कर खुद को साबित करने का तनाव है। प्रतिस्‍पर्धा में अव्‍वल आने का तनाव।  यह संकट केजी के बच्‍चे से लेकर सिविल सेवा की तैयारी कर रहे युवाओं तक छाया हुआ है।

6 अक्टूबर 2021 को वैश्विक स्तर पर जारी यूनिसेट की ‘द स्टेट ऑफ द वर्ल्ड्स चिल्ड्रन रिपोर्ट 2021’ कोरोना काल में बच्चों व युवाओं के मानसिक स्वास्थ्य पर बड़े खुलासे करती है। यूनिसेफ ने अपने इतिहास में पहली बार इस रिपोर्ट में बच्‍चों के मानसिक स्वास्थ्य की पड़ताल की है।  रिपोर्ट में इस बात पर फोकस किया गया है कि घर, स्कूल और समाज में ऐसे कौन से जोखिम और सुरक्षात्‍मक कारक हैं जो बच्‍चों के मानसिक स्‍वास्‍थ्‍य को प्रभावित करते हैं। कोरोना काल में बच्‍चे मानसिक परेशानियों से घिर गए है। उनका डर, अकेलापन और अवसाद हमारी चिंता का केंद्र है। इस‍ रिपोर्ट में भारत के 41 प्रतिशत युवाओं ने स्‍वीकार किया है कि वे अपनी समस्याओं को दूसरों के साथ साझा करना चाहते हैं। मगर हम इनकी समस्याओं और मनस्थिति के प्रति लापरवाह बने रहते हैं। उन्हें सकारात्मक बने रहने की हिदायतें देते रहते हैं।

हमारे बच्‍चों के इस तनाव में हमारी भूमिका क्‍या हो? इस सवाल का जवाब खोजते खोजते ‘चक दे इंडिया’ याद हो आई। जरा एक पल ठहर कर देखिए, खुद को जांचिए कि हमारा व्‍यवहार क्‍या होता है।

किसी भी कक्षा की ऑनलाइन परीक्षा को देख लीजिए। यदि उस कक्षा में माता पिता भी उपस्थित हैं तो वे बच्‍चे पर नजर नहीं रखते बल्कि जाने अनजाने में दबाव बनाते हैं। बच्‍चा शिक्षक के प्रश्‍न को सोच कर अपना उत्‍तर बुने उसके पहले माता-पिता उसे प्रॉम्‍प्‍ट करने लगते हैं। कई बच्‍चों के लिए परीक्षा पूर्व की रात और परीक्षा के पहले का वक्‍त किसी जीवन मरण के प्रश्‍न से अधिक बड़ा मुद्दा बना दिया जाता है। बच्‍चा थोड़ा बड़ा हुआ तो उसे हर समय नसीहतों के रूप में तमाम प्रेरक प्रसंग सुनाए जाते हैं। आसपास के उदाहरण ढूंढ़ कर लाए जाते हैं और सफलता के फार्मूले गढ़ें जाते हैं। सुबह उठने से याद जल्‍दी होता है जैसे शोध तथा सफल युवाओं के अनुभवों पर अखबारों में छपे आलेखों को इस अलिखित टिप्‍पणी के साथ भेजा जाता है कि यही सफलता को एक सूत्रीय फार्मूला है और तुम बस इसका पालन शुरू कर दो।

मगर, मगर… यह सब करते हुए हम यह भूल जाते हैं कि हमारी यह पॉजीटिव घुट्टी बच्‍चों के लिए नकारात्‍मक वातावरण रच देती हैं। जिन्‍हें हम प्रेरक प्रसंग मान कर चौपाइयों की तरह रट रहे हैं वे प्रेरणा नहीं दबाव का कारक बन जाते हैं। बच्‍चों पर एक अलग तरह का दबाव बनने लगता है और वे अध्‍ययन, तैयारी, प्रदर्शन के अपने स्‍वाभाविक अभ्‍यास से चूक जाते हैं।

मैंने अपने पत्रकारीय जीवन में कई बड़े और मनीषी कला साधकों को निकट से देखा है। हर बार गौर किया कि हर विभूति ने सतत रियाज को अपनी दिनचर्या का अनिवार्य अंग बनाया है। बरसों बरस की इस साधना के बाद भी वे हर प्रस्‍तुति के ठीक पहले ग्रीन रूम में खुद को बंद कर लेते हैं। इस एकांत में वे स्‍वयं के साथ होते हैं। अपने मूल स्‍वभाव के साथ सामंजस्‍य बैठा लेते हैं। कभी गौर किया है कि क्‍यों कोई कलाकार सीधे उठ कर मंच पर नहीं पहुंच जाता है?

इस प्रश्‍न के उत्‍तर में फिर ‘चक दे इंडिया’ का उदाहरण ‘चक दे इंडिया’ में कोच बने शाहरुख खान ने हर मैच के पहले अपने खिलाड़ियों को प्रेरित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। कड़ा परिश्रम करवाया। आपसी फूट को खत्म करने के लिए एंटी डॉट की तरह एक रेस्‍टोरेंट के विवाद का उपयोग किया। खांचों में विभक्‍त पहचान को मिटा कर पूरी टीम में टीम इंडिया होने का अभिमान जगाया। यहां तक की सेमीफाइनल मैच तक खिलाडि़यों केा फटकारने से नहीं चूके। फिर फाइनल मुकाबले के पहले कोई टिप, कोई नसीहत, कोई प्रेरक प्रसंग, किसी खामी का चर्चा, किसी गुण को उबार लाने का जतन क्‍यों नहीं किया? क्‍यों यह कहा कि आज मैं तुम्हें नहीं सीखाऊंगा कि कैसे खेलना है, बल्कि तुम मुझे बताओगे खेल कर।

यही इस फिल्‍म का सार है जिसे हर अभिभावक, हर मेंटर, हर कोच को याद कर लेना चाहिए और बार-बार खुद के भीतर दोहराना चाहिए।

परीक्षा के अंतिम चरण में तैयारी करवाने, उन पर पॉजीटिविटी का बोझ बढ़ाने, नसीहतों का छाता तानने की जगह विद्यार्थियों को ‘ग्रीन रूम’ में रहने देना चाहिए। उन्‍हें एकांत में अपने मूल स्‍वभाव से तालमेल करने देना चाहिए। उन्‍हें अपनी तैयारियों को जांचने देना चाहिए। हमें मैदान के बाहर खड़े हो कर अपनी उपस्थिति का अहसास भर देना चाहिए। इतना अहसास कि वे जब नजरें उठाएं तो हमें देख पाएं। हम अपनी उपस्थित ऐसी न बना दे कि वे हमारे होने से बचने के लिए नजरें चुराने लगें और इसतरह अपने स्‍वभाव से दूर हो जाएं।

हर व्‍यक्ति की तैयारी के अपने रास्‍ते, अपने साधन और सफलता के अपने औजार होते हैं। वे जब सफल हो जाते हैं तो पूरी दुनिया इनकी चर्चा करती है। सफलता के व्‍यक्तिगत नुस्‍खे औरों के लिए आसमान से रोशनी दिखलाता तारा हो सकता है, मार्ग दिखलाता सूरज नहीं हो सकता है। हर व्‍यक्ति की आभा तो उसकी खुद की स्‍वाभाविक तैयारी से ही निखरेगी। बतौर मार्गदर्शक अभिभावक या मेंटर ग्रीन रूम के बाहर ही रहें तो विद्यार्थियों के लिए प्रदर्शन की पगडंडी अधिक साफ हो सकेगी। इसी पगडंडी से सफलता का हाई वे तैयार होगा। अन्‍यथा तो सफलता के 1000 नुस्‍खे बताने वाली किताबों की कमी नहीं है।

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