क्‍या चेहरे पर लिखा है, आओ और मूर्ख बनाओ…

  • टॉक थ्रू टीम

आज एक अप्रैल है। अधिकृत रूप से मूर्ख बनाने का दिन। हँसी, मजाक, ठिठौली में मूर्ख बनाना और बनना मुस्‍कुराने का कारण बनता है। मगर अक्‍सर ही होता यूं है कि कोई बड़ी सफाई से हमें मूर्ख बना कर चला जाता है। कई बार तो उतनी सफाई भी नहीं होती। यह जानते हुए भी कि सामने वाला हमें बना ही रहा है, हम मुर्ख बनते ही चले जाते हैं। हम पर यह कहावत एकदम फिट बैठती है, “Fool me once, shame on you. Fool me twice, shame on me,” मगर हम हैं कि मानते ही नहीं। ठगे जाने के बाद हम सोचते हैं, ये भी! ये भी हमें मूर्ख बना गया? क्‍या मेरे चेहरे पर लिखा है, आओ हमें मूर्ख बनाओ?

होता यूं है कि भरी भीड़ में हजारों चेहरों के बीच जाने कैसे वह हमें पहचान लेता है। वह गजब के आत्‍मविश्‍वास के साथ हमारे सामने आ कर कहता है, मेरी मदद कर दो। उसके फैले हुए हाथ को देख हम जैसे ठिठक जाते हैं। चेहरे पर भरसक मासूमियत और पीड़ा लाने के बाद भी हमें उसे पहचान जाते हैं। साफ-साफ पढ़ लेते हैं कि यह मांगना उसकी जरूरत नहीं, फितरत है। वह बस खेल रहा है हमारी भावनाओं से। सामने वाला जान ही जाता है कि इसे यूं कह कर पिघलाया जा सकता है। ऐसा कुछ कर दो और यह बन जाएगा मूर्ख। उसके चेहरे पर इस भाव को पढ़ कर हम सहायता से इंकार कर देते हैं। वह एक कोशिश और करता है। हम मुंह फेर लेते हैं। वह एक जुमला और उछालता है। हम निरापद बने रहने का स्‍वांग करते हैं मगर गर्दन टेढ़ी कर देखते हैं, वह खड़ा है या गया। वह हमारा पिघलना ताड़ जाता है। वह अड़ा रहता है। एक और कोशिश करता है। हम नसीहत देते हुए जेब में कुछ टटोलते हैं और फटकार के साथ उसकी मुराद पूरी कर देते हैं। वह फतहमंद लौट जाता है। हम इस कसम के साथ अकेले होते हैं, अबकी बार नहीं बनेंगे मूर्ख।

वह ‘अगली बार’ जल्‍द आ जाती है। अक्‍सर उसी रूप में, कभी चेहरा बदल कर। कई बार वह अजनबी नहीं होता। कोई अपना होता है। हम खुद को ठगने देते हैं। कहते हैं, जब सारी दुनिया हमें लूट सकती है तो तुम तो हमारे अपने हो। तुम भी बना ही लो हमें। कभी वह हमारे पॉकेट पर हाथ साफ करता है, कभी दिल पर। कभी भावनाओं को ठग जाता है कभी हमारे दिमाग से खेल जाता है। हम फिर कहते हैं खुद से, हम जान रहे हैं कि मूर्ख बनाए जा रहे हैं, फिर भी हम बन रहे हैं मूर्ख। यूं जानते बूझते मूर्ख बनना भी एक राहत ही है। कोई बना कर नहीं गया, खुद ही बने हैं मूर्ख। कुछ यूं जैसे अफ़ज़ल ख़ान लिख गए हैं:

तू भी सादा है कभी चाल बदलता ही नहीं
हम भी सादा हैं इसी चाल में आ जाते हैं।

हमारी यह आत्‍मकथा भी अप्रैल फूल को मनाए जाने की कथा से कितना साम्‍य रखती है। यूं तो अप्रैल फूल डे के इतिहास के बारे में कई कहानियां कही जाती है मगर सबसे प्रामाणिक इतिहास 1582 का है जब फ्रांस ने 1 अप्रैल से शुरू होने वाले जूलियन कैलेंडर को छोड़कर 1 जनवरी से नया साल मानने वाले ग्रेगोरियन कैलेंडर अपनाया था। इस बदलाव को बहुत से लोगों ने स्‍वीकार नहीं किया या वे आदतन एक अप्रैल को ही नया साल मनाते रहे। ऐसे लोगों को मूर्ख समझा गया। जब-जब वे 1 अप्रैल को नया साल मनाते उनका मजाक उड़ाया जाता। फिर यह मजाक बनाना एक रवायत बन कर रह गया।

वैसे, हमारे लिए किसी दिन की क्‍या जरूरत है? हमें तो कोई भी, कोई गैर भी, कोई अपना भी, कभी भी मूर्ख बना सकता है। हमें कोई और कहां मूर्ख बनाता है? हम खुद ही खुद को ठगते हैं। हर बार मूर्ख साबित होने के बाद हमारे मन का हीरामन एक कसम खाता है और फिर वही हीरामन अपनी कसम भी भूल जाता है।

फिर-फिर हम ठगे जाते हैं, फिर-फिर हम खुद को कोसते हुए कहते हैं, क्‍या हमारे चेहरे पर लिखा है, …?

यह बनने बनाने का सिलसिला तो जारी रहेगा। मन को बहलाने के लिए आज यूं करिए, किसी अपने से कहिए वो देखो हाथी और वो जब उधर देखे तो अप्रैल फूल बनाया कह कर खिलखिला जाइए।

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