भारतेंदु का कहा 140 सालों बाद भी खरा

टॉक थ्रू एडिटोरियल डेस्‍क

आधुनिक हिंदी साहित्‍य के पितामह कहे जाने वाले लेखक भारतेंदु हरिशचंद्र ने अपने देहांत से पहले नवंबर 1884 में बलिया के ददरी मेले में आर्य देशोपकारिणी सभा में एक भाषण दिया था। यह नवोदिता हरिश्‍चंद्र चंद्रिका में दिसंबर 1884 के अंक में छपा था। इस भाषण का विषय था-भारत वर्षोन्नति कैसे हो सकती है। उस समय अंग्रेजों का शासन था, और आजादी की कोई संभावना सामने नहीं दिखती थी। देश की उन्नति कैसे हो, इसके बारे में भारतेंदु ने देशवासियों को सुझाव दिए थे। इस भाषण के केंद्र में यह चिंता थी कि देश की उन्नति कैसे हो सकती है।

अपने चर्चित नाटक ‘भारत दुर्दशा’ में भारतेंदु ने अंग्रेजी राज की जितनी तीखी आलोचना की है उतनी ही तीखी आलोचना भारतीय जनता की भी की है। इसमें एक ओर अंग्रेजी शासन और शोषण के दृश्‍य हैं तो दूसरी ओर भारतीय जनता के आलस्‍य, अंधविश्वास, भाग्यवाद और जातिवाद की तस्‍वीरें भी है। इन दृश्‍यों में भारत की उन्‍नति के बीज छिपे हैं। बलिया वाले भाषण में भी भारतेंदु ने भारत की गुलामी के कारण बताए हैं :

  • हमारे हिंदुस्तानी लोग तो रेल की गाड़ी हैं। यद्यपि फर्स्ट क्लास, सेकेंड क्लास आदि गाड़ी बहुत अच्छी-अच्छी और बड़े-बड़े महसूल की इस ट्रेन में लगी हैं पर बिना इंजन ये सब नहीं चल सकतीं, वैसे ही हिंदुस्तानी लोगों को कोई चलाने वाला हो तो ये क्या नहीं कर सकते।
  • राजे-महाराजों को अपनी पूजा भोजन झूठी गप से छुट्टी नहीं। हाकिमों को कुछ तो सरकारी काम घेरे रहता है, कुछ बॉल, घुड़दौड़, थिएटर, अखबार में समय गया। कुछ बचा भी तो उनको क्या गरज है कि हम गरीब गंदे काले आदमियों से मिलकर अपना अनमोल समय खोएं।
  • पहले भी जब आर्य लोग हिंदुस्तान में आकर बसे थे, राजा और ब्राह्मणों ही के जिम्मे यह काम था कि वे देश में नाना प्रकार की विद्या और नीति फैलाएं। ये लोग चाहें तो हिंदुस्तान प्रतिदिन-प्रतिक्षण बढ़ सकता है पर इन्हीं लोगों को सारे संसार के निकम्मेपन ने घेर रखा है।
  • अंग्रेजों के राज्य में सब प्रकार का सामान पाकर, अवसर पाकर भी हम लोग जो इस समय पर उन्नति न करें तो हमारा केवल अभाग्य और परमेश्वर का कोप ही है। अंगरेजों के राज्य में भी हम कूंए के मेंढ़क, काठ के उल्लू, पिंजड़े के गंगाराम ही रहें तो हमारी कमबख्त कमबख्ती फिर कमबख्ती है।क्या इंग्‍लैंड में किसान, खेतवाले, गाड़ीवान, मजदूर, कोचवान आदि नहीं है? किसी देश में भी सभी पेट भरे हुए नहीं होते। किंतु वे लोग जहां खेत जोतते, बोते हैं वहीं उसके साथ यह भी सोचते हैं कि ऐसी और कौन नई मशील या मसाला बनाएं जिसमें इस खेती में आगे से दूना अन्न उपजे। विलायत में गाड़ी के कोचवान भी अखबार पढ़ते हैं। जब मालिक उतरकर किसी दोस्त के यहां गया उसी समय कोचवान ने गद्दी के नीचे से अखबार निकाला। यहां उतनी देर कोचवान हुक्का पीएगा या गप्प करेगा। यह गप्प भी निकम्मी। वहां के लोग गप्प ही में देश के प्रबंध करते है। सिद्धांत यह कि वहां के लोगों का यह सिद्धांत है कि एक क्षण भी व्यर्थ न जाएं। यहां लोगों में जितना निकम्मापन होगा उसे उतना ही अमीर समझा जाता है।
  • राजा महाराजों का मुंह मत देखो, मत यह आशा रखो कि पंडितजी कथा में कोई देश का रुपया और बुद्धि बढ़ाने के उपाय बताएंगे। तुम खुद ही कमर कसो, आलस छोड़ो। दौड़ो इस घोड़दौड़ में जो पीछे रह गए तो फिर कहीं ठिकाना नहीं है।

लगता है 140 सालों बाद आज भी बहुत कुछ नहीं बदला है। मानो यह भाषण आज के लिए ही दिया गया है। अब यह प्रश्न होगा कि उन्नति और सुधार कैसे होगा? इसके भी सूत्र उसी भाषण में हैं :

  • सब उन्नतियों का मूल धर्म है। इससे सबके पहले धर्म की ही उन्नति करनी उचित है। देखो, अंग्रेजों की धर्मनीति और राजनीति परस्पर मिली है, इससे उनकी दिन दिन कैसी उन्नति है। बीच में जो खराबी हुई है वह इसलिए कि लोगों ने धर्म का मतलब नहीं समझा। वास्तविक धर्म तो केवल परमेश्वर के चरणकमल का भजन है। बाकी सब तो समाजधर्म हैं जो देशकाल के अनुसार बदले जा सकते हैं।
  • महात्मा- ऋषियों के वंशजों ने बहुत से नए नए धर्म बनाकर रख दिए। सभी तिथियां व्रत और सभी स्थान तीर्थ हो गए। आंख खोलकर देख-समझ लीजिए कि ऋषियों ने कोई बात क्यों बनाई और उनमें देश और काल के जो अनुकूल और उपकारी हो उसको ग्रहण कीजिए।
  • बहुत सी बातें जो समाज-विरुद्ध मानी हैं किंतु धर्मशास्त्रों में जिनका विधान है उनको चलाइए। जैसे जहाज का सफर, विधवा विवाह आदि। लड़कों को छोटेपन ही में ब्याह करके उनका बल, वीर्य, आयुष्य सब मत घटाइए। आप उनके मां बाप हैं या उनके शत्रु हैं। कुलीन प्रथा, बहुविवाह को दूर कीजिए।
  • हिंदू, जैन, मुसलमान सब आपस में मिलिए। जाति में कोई चाहे ऊंचा हो चाहे नीचा हो सबका आदर कीजिए, जो जिस योग्य हो उसको वैसा मानिए। छोटी जाति के लोगों को तिरस्कार करके उनका जी मत तोड़िए। सब लोग आपस में मिलिए।
  • मुसलमान भाइयों इस हिंदुस्तान में बस कर वे हिंदुओं को नीचा समझना छोड़ दें। ठीक भाइयों की भांति हिंदुओं से बरताव करें। ऐसी बात, जो हिंदुओं का जी दुखाने वाली हो, न करें। जो बात हिंदुओं को नहीं मयस्सर हैं वह धर्म के प्रभाव से मुसलमानों को सहज प्राप्त हैं। उनमें जाति नहीं, खाने पीने में चौका चूल्हे का भेद नहीं, विलायत जाने में रोक टोक नहीं। फिर भी बड़े ही सोच की बात है, मुसलमानों ने अभी तक अपनी दशा कुछ नहीं सुधारी। अब आलस हठधर्मी यह सब छोड़ो। चलो, हिंदुओं के साथ तुम भी दौड़ो, एकाएक दो होंगे। पुरानी बातें दूर करो। मीरहसन की मसनवी और इंदरसभा पढ़ाकर छोटेपन ही से लड़कों का सत्यानाश मत करो। अच्छी से अच्छी उनको तालीम दो। लड़कों को रोजगार सिखलाओ। विलायत भेजो। छोटेपन से मेहनत करने की आदत दिलाओ। सौ सौ महलों के लाड़ प्यार दुनिया से बेखबर रहने की राह मत दिखलाओ।
  • भाई हिंदुओ! तुम भी मतमतांर का आग्रह छोड़ो। आपस में प्रेम बढ़ाओ। इस महामंत्र का जप करो। जो हिंदुस्तान में रहे, चाहे किसी रंग किसी जाति का क्यों न हो, वह हिंदू। हिंदू की सहायता करो। बंगाली, मराठी, पंजाबी, मदरासी, वैदिक, जैन, ब्राह्मणों, मुसलमान सब एक का हाथ एक पकड़ो।
  • अब तो नींद से चौंको, अपने देश की सब प्रकार उन्नति करो। जिसमें तुम्हारी भलाई हो वैसी ही किताब पढ़ो, वैसे ही खेल खेलो, वैसी ही बातचीत करो। अपने देश में अपनी भाषा में उन्नति करो।

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