वोट देने का हक नहीं और जेल से पहुंंच गए संसद में

जे.पी.सिंह, वरिष्ठ पत्रकार और कानूनी मामलों के विशेषज्ञ

जेल में बंद लोग वोट तो नहीं डाल सकते लेकिन लड़ और जीत सकते हैं चुनाव

यह कैसी विडंबना है कि जेल में बंद लोग वोट तो नहीं डाल सकते लेकिन चुनाव लड़ और जीत सकते हैं। लोकसभा 24 के चुनावों में जेल में बंद दो कथित अपराधी मैदान में उतरे और जीत कर संसद पहुंच गए। पंजाब की खडूर साहिब सीट से जेल में बंद अमृतपाल सिंह और कश्मीर की बारामूला सीट से इंजीनियर राशिद ने चुनाव जीता है। ये दोनों अलग-अलग मामलों में जेल में बंद हैं।

राशिद पर गैर-कानूनी गतिविधि रोकथाम अधिनियम (यूएपीए) लगा है और वह मौजूदा समय में दिल्ली की तिहाड़ जेल में बंद है। राशिद को साल 2019 में नेशनल सिक्योरिटी एजेंसी (एनआईए) ने टैरर फंडिग के मामले में गिरफ्तार किया था। वहीं पंजाब की खडूर साहिब सीट से निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में चुनाव जीतने वाले अमृतपाल सिंह पर राष्ट्रीय सुरक्षा (एनएसए) अधिनियम लगा हुआ है। वह असम की डिब्रूगढ़ जेल में बंद है।

स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनावों को सर्वोच्च संवैधानिक आधार माना गया है, लेकिन सुप्रीम कोर्ट कहता रहा है कि चुनाव करने और चुने जाने के अधिकार को समान दर्जा प्राप्त नहीं है। उदाहरण के लिए, 2006 में कुलदीप नैयर बनाम भारत संघ के मामले में पांच-न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने कहा कि वोट देने का अधिकार (या चुनाव का अधिकार) “एक सरल और वैधानिक अधिकार” है। इसका मतलब यह है कि मतदान मौलिक अधिकार नहीं है और इसे निरस्त किया जा सकता है। सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने ‘चुने जाने के अधिकार’ के लिए भी यही बात कही और फैसला दिया कि संसद द्वारा अधिनियमित कानून इन दोनों वैधानिक अधिकारों को रेगुलेट कर सकते हैं।

जन प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 8 में जेल में बंद कैदियों के चुनाव लड़ने से जुड़े प्रावधान हैं। ऐसे अपराधों की एक विस्तृत सूची भी है, जिसमें दोषी ठहराए जाने पर संबंधित कैदी को चुनाव के लिए अयोग्य करार दिया जा सकता है। उदाहरण के तौर पर किसी व्यक्ति को प्रावधान में दी गई विस्तृत सूची में से किसी भी अपराध के लिए दोषी ठहराया गया है तो उस स्थिति में उसे सजा की तारीख से संसद या राज्य विधानसभाओं का चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य घोषित कर दिया जाएगा और रिहाई की तारीख से अगले छह साल तक चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य रहेंगे। लेकिन यहां ध्यान रखने वाली बात यह है कोई भी कैदी चुनाव लड़ने से अयोग्य तभी होगा, जब उसे अदालत ने दोषी ठहरा दिया हो। अगर कैदी पर आरोप साबित नहीं हुआ है या दोषी साबित नहीं हुआ है तो वह जेल में रहते हुए चुनाव लड़ सकता है।

हालांकि चुनाव आयोग (ईसीआई) को जन प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 11 के तहत अयोग्यता की अवधि को ‘हटाने’ या ‘कम’ करने का अधिकार है। 2019 में, ईसीआई ने इस शक्ति का उपयोग सिक्किम के मुख्यमंत्री प्रेम सिंह तमांग की अयोग्यता की अवधि को कम करने के लिए किया, जिन्हें 2018 में एक साल की जेल की सजा के बाद रिहा कर दिया गया था। बाद में सिक्किम क्रांतिकारी मोर्चा के नेता ने पोकलोक कामरंग विधानसभा सीट के लिए हुआ उपचुनाव लड़ा और जीत हासिल की।

जन प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 धारा 62 के उप-खंड (5) में मतदान के अधिकार यानी राइट टू वोट से जुड़े प्रावधान हैं।. इसमें साफ कहा गया है कि कोई भी व्यक्ति ‘कोई भी व्यक्ति जेल में रहते या पुलिस हिरासत में रहते किसी भी चुनाव में मतदान नहीं करेगा। यह प्रावधान हर उस व्यक्ति को अपना वोट डालने से रोकता है, जिसके खिलाफ आपराधिक आरोप लगाए गए हैं। व्यक्ति तभी वोट डाल सकता है जब उसे जमानत पर रिहा कर दिया गया हो या बरी कर दिया गया हो। हां, अगर कोई व्यक्ति निवारक नज़रबंदी में है तो उसे वोट देने का हक मिलता है। धारा 62 के उप-खंड (5) को साल 1997 में सुप्रीम कोर्ट में चुनौती भी दी गई। सुप्रीम कोर्ट ने ‘अनुकूल चंद्र प्रधान बनाम भारत संघ’ के मामले में धारा 62(5) को दी गई चुनौती को खारिज कर दी थी।

भारत में, कानूनी प्रणाली विचाराधीन कैदियों के चुनावी प्रक्रियाओं में भाग लेने के अधिकारों के बारे में एक अनूठा रुख प्रस्तुत करती है। जबकि जनप्रतिनिधित्व अधिनियम (आरपीए), 1951, दोषी ठहराए गए और दो साल या उससे अधिक के कारावास की सजा पाए व्यक्तियों को चुनाव लड़ने से अयोग्य ठहराता है, यह स्पष्ट रूप से विचाराधीन कैदियों, जो मुकदमे की प्रतीक्षा कर रहे हैं, को ऐसा करने से नहीं रोकता है।

जनप्रतिनिधित्व अधिनियम (आरपीए), 1951 भारत में चुनावों को नियंत्रित करने वाला प्राथमिक कानून है। आरपीए की धारा 8(3) के अनुसार, किसी अपराध के लिए दोषी ठहराए गए और कम से कम दो साल के कारावास की सजा पाए किसी भी व्यक्ति को रिहा होने के बाद छह साल तक चुनाव लड़ने से अयोग्य ठहराया जाता है। हालांकि, यह प्रावधान उन विचाराधीन कैदियों पर लागू नहीं होता है जिन्हें दोषी नहीं ठहराया गया है।

आरपीए की धारा 62(5) में कहा गया है कि वैधानिक रूप से कैद या पुलिस हिरासत में रहने वाले व्यक्तियों को मतदान करने से प्रतिबंधित किया जाता है। इसके बावजूद, 2013 में एक महत्वपूर्ण संशोधन यह सुनिश्चित करता है कि जिन व्यक्तियों के नाम मतदाता सूची में हैं, वे जेल में रहने के बावजूद मतदाता के रूप में अपनी स्थिति बनाए रखें।

यह संशोधन 10 जुलाई, 2013 को सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले का जवाब था, जिसमें शुरू में फैसला सुनाया गया था कि पुलिस हिरासत या जेल में रहने वाले व्यक्ति अपना मतदान का अधिकार खो देंगे और परिणामस्वरूप, चुनाव लड़ने का उनका अधिकार भी समाप्त हो जाएगा। संशोधन कैद किए गए व्यक्तियों को मतदाता के रूप में अपनी स्थिति बनाए रखते हुए चुनाव लड़ने की अनुमति देता है।

सुप्रीम कोर्ट ने विभिन्न निर्णयों के माध्यम से स्पष्ट किया है कि चुनाव लड़ने का अधिकार एक वैधानिक अधिकार है, न कि मौलिक या सामान्य कानूनी अधिकार। इसका मतलब यह है कि यह अधिकार वैधानिक विनियमों और प्रतिबंधों के अधीन है, जिसमें पुलिस या न्यायिक हिरासत से संबंधित प्रतिबंध भी शामिल हैं। दोषी साबित होने तक निर्दोषता के अनुमान का सिद्धांत विचाराधीन कैदियों को चुनाव लड़ने के अपने अधिकार को बनाए रखने में सहायता करता है, बशर्ते कि वे न्यायालयों से आवश्यक अनुमति प्राप्त करें।

सुप्रीम कोर्ट ने शिबू सोरेन बनाम दयानंद सहाय एवं अन्य (2001): मामले में लोकतांत्रिक व्यवस्था में चुनाव लड़ने के अधिकार के महत्व पर जोर दिया। निर्णय में इस बात पर प्रकाश डाला गया कि उम्मीदवारी पर किसी भी प्रतिबंध का विधायकों द्वारा सत्ता के संभावित दुरुपयोग को कम करने के उद्देश्य से पर्याप्त और उचित संबंध होना चाहिए।

सुप्रीम कोर्ट ने के. प्रभाकरन बनाम पी. जयराजन (2005) के फैसले में इस बात को पुष्ट किया कि आरपीए की धारा 8(3) के तहत अयोग्यता तभी लागू होती है जब किसी व्यक्ति को दोषी ठहराया जाता है और उसे सजा सुनाई जाती है। तब तक, विचाराधीन कैदियों को निर्दोष माना जाता है और उनके चुनावी अधिकार बरकरार रहते हैं।

लिली थॉमस बनाम भारत संघ (2013) मामले में सुप्रीम को ने फैसला सुनाया कि दोषी ठहराए गए और दो साल या उससे अधिक कारावास की सजा पाए सांसदों, विधायकों और एमएलसी को तुरंत अयोग्य घोषित कर दिया जाएगा, जिससे आरपीए की धारा 8(4) निरस्त हो जाएगी, जो पहले अपील के लिए तीन महीने की अवधि प्रदान करती थी, जिसके दौरान अयोग्यता प्रभावी नहीं होती थी।

नवजोत सिंह सिद्धू बनाम पंजाब राज्य और अन्य के मामले में, जहां सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 389(1) के तहत, अपीलीय न्यायालय के पास न केवल सजा के निष्पादन को निलंबित करने और जमानत देने का अधिकार है, बल्कि खुद सजा को निलंबित करने का भी अधिकार है। अपीलीय न्यायालय संसद या राज्य विधानमंडल के किसी मौजूदा सदस्य की सजा पर रोक लगा सकता है, जिससे उन्हें ट्रायल कोर्ट की सजा के बावजूद सदस्य के रूप में बने रहने की अनुमति मिल सके।

संविधान के अनुच्छेद 101(4) में कहा गया है कि अगर संसद के किसी भी सदन का कोई सदस्य बिना अनुमति के 60 दिनों तक सभी बैठकों से अनुपस्थित रहता है, तो उसकी सीट खाली घोषित की जा सकती है। इससे बचने के लिए, सदस्य को लिखित रूप से अध्यक्ष को सत्र में भाग लेने में अपनी असमर्थता के बारे में सूचित करना होगा। इसके बाद अध्यक्ष सदन की अनुपस्थिति संबंधी समिति के समक्ष अपना अनुरोध रखेंगे, जो यह सिफारिश करेगी कि उन्हें लगातार अनुपस्थित रहने की अनुमति दी जाए या नहीं। अध्यक्ष द्वारा प्रस्तावित सिफारिश पर सदन मतदान करेगा।

संविधान के अनुच्छेद 102(1)(ई) और 191(1)(ई) संसद को संसद के किसी भी सदन या राज्य विधान सभा के सदस्यों के लिए अयोग्यता निर्धारित करने वाले कानून बनाने का विशिष्ट अधिकार देते हैं। राज्य विधानमंडल के पास अपनी विधान सभा या विधान परिषद के सदस्यों के लिए अयोग्यता स्थापित करने का अधिकार नहीं है; यह शक्ति पूरी तरह से संसद को दी गई है।
ऐसा कोई विशेष कानून नहीं है जिसके तहत किसी राज्य के सांसद/विधायक/मंत्री को गिरफ़्तारी के बाद अपने आप इस्तीफ़ा देना पड़ता हो। उदाहरण के लिए, बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव ने अपनी पत्नी राबड़ी देवी को गिरफ़्तार होने पर मुख्यमंत्री नियुक्त किया था। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल भी जेल से अपनी सरकार चला रहे हैं। लेकिन झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने कानूनी परेशानियों का सामना करने पर इस्तीफ़ा देने का विकल्प चुना। हालांकि तकनीकी रूप से यह संभव है कि कोई मुख्यमंत्री जेल से शासन करने की कोशिश करे, जैसे कि कैबिनेट मीटिंग बुलाना या अधिकारियों के साथ उनकी कोठरी से समीक्षा सत्र आयोजित करना, लेकिन यह व्यावहारिक नहीं है।

ऐसा नहीं है कि जेल में बंद अमृतपाल सिंह और इंजीनियर राशिद ने पहली बार जेल से चुनाव लड़ा और जीता है, बल्कि भारतीय चुनावी इतिहास में ऐसे कई उदाहरण हैं, जब जेल में रहते हुए भी लोगों ने चुनाव लड़ा और जीते है –

आपातकाल काल (1975-1977): इस अवधि के दौरान जॉर्ज फर्नांडिस सहित कई विपक्षी नेताओं को जेल में रखा गया था। फर्नांडिस ने जेल से ही 1977 का लोकसभा चुनाव लड़ा और बिहार के मुजफ्फरपुर निर्वाचन क्षेत्र से जीते।

मुख्तार अंसारी (1996): जेल में रहते हुए मुख्तार अंसारी ने उत्तर प्रदेश मऊ विधानसभा सीट के लिए बहुजन समाज पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़ा और जीत हासिल की।

कल्पनाथ राय (1996): टाडा मामले के कारण जेल में बंद पूर्व केंद्रीय मंत्री ने 1996 के लोकसभा चुनाव के लिए जेल से ही चुनाव लड़ा और घोसी सीट से जीत हासिल की।

मोहम्मद शहाबुद्दीन (1999): शहाबुद्दीन ने जेल से ही बिहार की सीवान सीट जीती, लेकिन बाद में कई हत्याओं के मामले में दोषी पाए जाने के बाद उन्हें अयोग्य घोषित कर दिया गया।

अखिल गोगोई (2021): असमिया आरटीआई कार्यकर्ता ने राजद्रोह और हिंसा भड़काने के आरोप में जेल में रहते हुए असम विधानसभा चुनाव में सिबसागर सीट जीती।

आजम खान (2022): समाजवादी पार्टी के दिग्गज नेता ने जेल में रहते हुए रामपुर विधानसभा सीट जीती, लेकिन बाद में भड़काऊ भाषण के मामले में दोषी ठहराए जाने के बाद उन्हें अयोग्य घोषित कर दिया गया।

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