आपातकाल, एक खत और सरकारी नौकरी पर संकट

स्‍मृति प्रसंग: जयकुमार जलज

प्रख्‍यात हिंदी भाषाविद, लेखक और रतलाम महाविद्यालय के पूर्व प्राचार्य डॉ. जयकुमार जलज का बीते दिनों देहांत हुआ। उनके कृतित्‍व को नमन करते हुए उनके ही द्वारा बताई गई एक घटना का विवरण यहां प्रस्‍तुत है। आपातकाल के दौरान की यह घटना वास्‍तव में मूल्‍यों के प्रति आस्‍था और जीवन का सटीक उदाहरण है। संपादक

वे आपातकाल के दिन थे। जयप्रकाश नारायण को उनकी बीमारी के कारण जेल से तो छोड़ दिया गया था। पर उनकी अस्वस्थता को लेकर समूचे राष्ट्र में चिन्ता, दुःख और गुस्से की लहर थी। आशंकाएँ सिर उठाती रहती थीं। महाराष्ट्र, गुजरात से उड़ती खबरें आती थीं। वे और अशांत कर जाती थीं। सुना था, जयप्रकाश डायलेसिस पर हैं। उन्हें मशीन भेंट की जा रही है। जन-जन की चिंता की अभिव्यक्ति हो सके, इसलिए मशीन के लिए चंदा हो रहा था। लेकिन प्रसार-माध्यम सेंसर की गिरफ्त में थे। समझना मुश्किल था कि हकीकत क्या है?

उन्हीं दिनों गांधीवादी सुब्बारावजी महाविद्यालय की राष्ट्रीय सेवा योजना के एक आयोजन में रतलाम आए। कार्यक्रम के बाद मैं भी बाहर तांगे तक उन्हें विदा करने गया। वे रवाना हुए तो भीड़ छंट गई। मैंने हाथ उठाकर उन्हें तांगा रोकने का संकेत किया और लगभग दौड़ता हुआ उन तक पहुंचा। पूछा, ‘जयप्रकाशजी का स्वास्थ्य कैसा है? डायलेसिस मशीन भेंट करने के लिए चंदा हो रहा है? मेरा चंदा पहुंचा देंगे? सरकारी नौकरी में होने से सीधे नहीं भेज सकता।’
सुब्‍बाराव जी बोले, ‘छोटी राशि ले रहे हैं। आप एक रुपया दे दीजिए।’

मैंने कहा, ‘इस समय जेब में जितने हैं, उतने दूंगा। वह छोटी ही राशि है। पर,शर्त है कि आप रसीद नहीं भिजवाएंगे।’ कहते -कहते मेरी आंखें गीली हो आईं।

किशोरावस्था से ही स्मृति का हिस्सा बनीं, रामधारीसिंह दिनकर की कविता पंक्तियां- ‘कहते हैं उसको जयप्रकाश जो नहीं मौत से डरता है। ज्वाला को बुझता देख आग में स्वयं कूद जो पड़ता है।’ – मेरी चेतना में कौंध उठने से मैं शायद अधिक विह्वल हो गया था। वे द्रवित हुए। मान गए। मैंने जेब में हाथ डाला। नोटों को मुट्ठी में भींचा और बंधी हुई मुट्ठी उनके हाथ में खोल दी। उन्होंने तत्काल उसे बंद कर लिया।

मैंने फिर कहा, ‘रसीद मत भेजिएगा।’ उन्होंने स्वीकार में सिर हिलाया।

कुछ दिन बाद एक दिन महाविद्यालय के भृत्य भागीरथ बा सा’ब घबराए हुए से अचानक मेरे पास आए। समय और व्यक्ति की उन्हें अचूक पहचान थी। डाक लाने, छांटने यथाव्यक्ति पहुंचाने में उनकी भूमिका थी। एकांत देखकर बोले, ‘सर, कल की डाक में जयप्रकाश की फोटावाला यह लिफाफा आपके नाम आया है। वह तो मेरी नज़र पड़ गई। उठाकर जेब में डाल लिया। नाज़ुक समय है। कहीं पुलिस को पता चल जाता…?”

लिफाफे पर चंदा जमा करने वाली समिति का नाम और उद्देश्य बताने वाली इबारत भी मोटे अक्षरों में मुद्रित थी। मेरा माथा ठनका। सुब्बारावजी ने यह क्या किया! देश भर में राष्ट्रीय सेवा योजना का अलख जगाने वाले सुब्बारामजी को मालूम था कि उसमें बहुत गाया जानेवाला गीत- ‘रौशनी उगाने का एक जतन और’ – मेरा रचा हुआ है। इसलिए मेरे प्रति उनका अतिरिक्त स्नेह था। वे सम्बन्धों को सूखने नहीं देते। मिल न सकें तो उन्हें पत्रों द्वारा बनाए रखते हैं। देश भर में घूमने वाले सुब्बाराव भला वक्त की नजाकत नहीं पहचानते होंगे! उन्हें सोचना तो था कि मेरा कितना नुक़सान हो सकता है! शासकीय कर्मचारी पर शासन की भृकुटी टेढ़ी होने में भला कोई वक्त और मेहनत लगती है?

घर आकर लिफाफा खोला। छपी हुई रसीद पर अंकों और शब्दों में जमाराशि लिखी हुई थी। रसीद का क्रमांक, दिनांक, दफ्तर की सील और प्रभारी के नाम सहित हस्ताक्षर थे, पर राशि किससे प्राप्त हुई का कालम खाली पड़ा था। मैंने राहत की सांस ली। लिफाफा सेंसर होता भी तो पता नहीं चलता कि चंदा किसने दिया है।

दरअसल, सुब्बारावजी का गांधीवादी मन बरदाश्त ही नहीं कर सकता था कि जिससे पैसा लिया है,उसे यह सूचना न मिले कि उसका पैसा यथास्थान पहुंच गया है। सार्वजनिक पैसे का पाई पाई हिसाब रखने की जवाबदेह और जिम्मेवार पारदर्शिता बरतनेवाले महात्मा गांधी के शिष्य सुब्बाराव को वह करना ही था जो उन्होंने किया। उन्होंने हिसाब देने की अपनी आस्था को डिगने नहीं दिया, लेकिन मेरे योग-क्षेम को भी वहन किया। वे सत्य के रास्ते पर चले पर अहिंसा को साथ लेकर।

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