शांतिलाल जैन, प्रख्यात व्यंग्यकार
‘‘यह सबसे अच्छा समय था, यह सबसे खराब समय था।’’
इन पंक्तियों के लेखक ब्रिटिश उपन्यासकार चार्ल्स डिकन्स कभी भारत आए थे या नहीं मुझे पक्के से पता नहीं, मगर पक्का-पक्का अनुमान लगा सकता हूं कि वे भारत आए ही होंगे और उज्जैन भी। दोपहर में दाल-बाफले-लड्डू सूतने के बाद तीन बजे के आसपास उन्होने ये पंक्तियाँ लिखीं होंगी। पेंच फंस गया होगा – इधर चेतना पर खुमारी तारी हो रही है उधर आयोजक साहित्यिक समारोह की अध्यक्षता करवाने के लिए लेने आए हैं। कैच-22 सिचुएशन । आयोजक तुम्हें सोने नहीं देंगे और चढ़ती गेंद तुम्हें वहां जाने नहीं देगी डिकन्स।
भारतवर्ष में तीन बजे का समय सबसे अच्छा और सबसे खराब समय माना गया है। अच्छा तो इस कदर कि आपको बिस्तर तकिये की जरूरत नहीं होती, नाइट सूट भी नहीं पहनना पड़ता। झपकी सूट-बूट में भी ले सकते हैं। कहीं भी ले सकते हैं, दफ्तर की कुर्सी पर, सोफ़े पर, दुकान में, चलती बस की सीट पर बैठे-बैठे, यहाँ तक कि दोनों ओर की सीटों के बीच ऊपर लगी रेलिंग पकड़ कर खड़े-खड़े खर्राटे वाली नींद ले सकते हैं। नींद का वो क्षण स्वर्णिम क्षण होता है जब चलती बस में आपका सर गर्दन से झोल खाकर सहयात्री की खोपड़ी से बार-बार टक्कराता है। तराना-माकड़ोन बस में ही नहीं दिल्ली-चेन्नई फ्लाइट में भी टकराता है। बहरहाल, खोपड़ी उसकी गरम हो आपको क्या, आप तो गच्च नींद के मजे लीजिये। सावधानी रखिएगा, सहयात्री ‘शी’ हो तो सैंडिल पड़ने के पूरे चांस होते हैं।
भारत में क्रिकेट अंग्रेज लाए। आने से पहले डिकन्स ने उनको समझा दिया होगा कि टेस्ट क्रिकेट में टी-टाइम का प्रावधान जरूर रखना। मिड ऑफ पर खड़ा फील्डर जी बेचारा झपकी ले कि कैच पकड़े। दोपहर की नींद समाजवादी होती है, वो संसद से सड़क तक, मंत्री से लेकर मजदूर तक, सबको आती है और जो जहां है वहीं आ जाती है। मंत्रीजी विधायिका में सो जाते हैं, कहते हैं गहन विचार प्रक्रिया में डूबे हैं। ऐसी ही गहन विचार प्रक्रिया से बाहर आकर राजू टी स्टॉल की गोल्डन कट चाय की चुस्कियाँ लेते हुए डिकन्स ने सोचा होगा “यह सबसे अच्छा समय था”, मगर जब ध्यान आया होगा कि नींद के चक्कर में ट्रेन छूटने का समय हो गया है तब लिखा होगा – “यह सबसे खराब समय था।”
तीन से पांच की नींद इस कदर मोहपाश में जकड़ लेती है कि प्रियतमा का कॉल भी उठाने का मन नहीं करता। अभी गहरी नींद लगी ही है कि कोरियर ने घंटी बजा दी है। वो सुपुर्दगी के दस्तखत आपसे ही चाहता है। बाल नोंच लेते हैं आप। अंकलजी ने तो गेट पर लिखवा रखा है- ‘कृपया तीन से पांच के बीच घंटी न बजाएं’।
तीन बजे जब मम्मी गहरी नींद में होती है तब कान्हा फ्रीज़ में से आईसक्रीम, चॉकलेट, गुलाबजामुन चुरा कर खा सकता है, मोबाइल पर गेम खेल सकता है, कार्टून नेटवर्क देख सकता है, दरवज्जा धीरे से ठेलकर बाहर जा सकता है। प्रार्थना करता है हे भगवान! मम्मी पांच बजे से पहले उठ न जाए वरना कूट देगी। बच्चों के लिए यह सर्वश्रेष्ठ समय होता है, नौकरीपेशा आदमी के लिए सबसे खराब। खासकर तब जब कान्फ्रींस में पोस्ट-लंच सत्र में लंबा, ऊबाऊ, बोझिल भाषण चल रहा हो, आपकी गर्दन बार बार आगे की ओर झोल खा रही हो, वक्ता सीजीएम रैंक का हो और पा वो बार बार आपको ही नोटिस कर रहा हो। कोढ़ में खाज ये कि उसी साल आपका प्रमोशन ड्यू है। सीआर बिगड़ने का डर आपको सोने नहीं देता और लेविश-लंच आपको जागने नहीं देता।
ये आपके लिए सबसे अच्छा समय होता है, ये आपके लिए सबसे खराब समय होता है।
(व्यंग्य संग्रह ‘…कि आप शुतुरमुर्ग बन रहें’ से)