मेरे होश उड़ गए, वही पेपर आया, जो कल मिला था

मनीष माथुर, सामाजिक कार्यकर्ता

ग्‍वालियर (1980-1984) :

एग्जाम का पहला पर्चा। फैल होने का भय, और तीन रातों का जागरण मेरी व्यग्रता को बढाने के लिए काफी थे। पर्चा सुबह सात बजे बंटता था, अतः हमें अपनी सीट पर 6.45 पर पहुंचना आवश्यक था। मुझे समय पर मीठा दही खिला कर विधि-विधान से मां ने रवाना किया। दीदीयों ने ‘best of luck’ का आशीर्वाद दिया। मैंने अपनी साइकिल पर आरूढ़ हो कर जंग के लिए कूच किया। उन दिनों मेरे संज्ञान में एक नई बात भी आई थी।

विश्वस्त सूत्रों (जो साल भर पढ़ाई न कर सिर्फ एग्जाम के ठीक पहले मोर्चा संभालते और ‘वन डे सीरीज अथवा कुंजी’ का इस्तेमाल करते) ने बताया कि थाटीपुर चौराहे पर स्थित दवाई की दुकान पर ‘नींद न आने की दवा’ भी बिना पर्चे के मिलती है। रात के खाने के बादएक गोली खालो तो मजाल है कि आप सो जाओ! मैं भी तब क्योंकि उसी धड़े का सदस्य था, मैंने भी वे गोलियां खरीदीं। ऐसी कोई दवा का आविष्कार हुआ भी है, या नहीं, ये जानने की कोशिश मैंने आज तक न की।

मार्च की भोर तब ग्‍वालियर में भी हल्‍की ठंडी होती थी। लगभग 60 घंटे का जागरण और उस दवा के असर में मैं परीक्षा-भवन में पहुंचा। हर कक्ष के आगे टाइप किए हुए नोटिस चस्पा थे कि वहां किस रोल नंबर के परीक्षार्थी की सीट है। मैं अपनी निर्धारित डेस्क तक पहुंचा। अपना पेन/पेंसिल बॉक्स रखा, साथ ही अपना एडमिट कार्ड को भी प्रदर्शित किया। चारों तरफ माहौल बड़ा गंभीर था। ठीक समय पर घंटी बजी और सारे छात्रों को उत्तर-पुस्तिकाएं बांट दी गईं। सबने उसमें अपना रोल नंबर आदि दर्ज किया।

दस मिनट के अंतराल पर (ठीक सात बजे) दूसरी घंटी बजी, और पर्चे बंटे। जैसा मेरे पढ़े-लिखे परिवार के सदस्यों कि सलाह थी, मैंने प्रश्न–पत्र पूरी तरह पढ़ा। मैं भ्रमित था। जो पर्चा मैंने रात को देखा था, हूबहू वही मेरे सामने था। मुझे विश्वास नहीं हुआ, कुछ देर तक मैं इसी भ्रम में रहा कि हो न हो मैं कल रात में ही गिरफ्तार हूं और ठीक से पढ़ नहीं पा रहा हूं। आसपास के छात्रों ने अपनी-अपनी उत्तर पुस्तिकाओं में लिखना शुरू कर दिया था और मैं मूर्तिवत बैठा उस प्रश्न–पत्र को निहार रहा था।

मेरे रसायन के गुरु हमारे एक आतंरिक इनविसीलेटर थे। वे मेरे डेस्क के पास रुके और बोले, पर्चा ही पढ़ते रहोगे या जवाब भी लिखोगे? मेरी तंद्रा टूटी। मैंने अपनी याददाश्त के आधार पर कुछ जवाब घसीटे और पस्त होकर बैठ गया। तमाम छात्रों ने बड़ी संख्या में supplementary कॉपी ले लीं, परंतु मेरी तो मुख्य उत्तर-पुस्तिका ही खाली थी। जैसे–तैसे उसी खुमारी में तीन घंटे गुजरे। उत्तर पुस्तिकाएं वापस ले ली गईं। थकान और नींद की कमी से मैं थोड़ा भ्रमित अवस्था में ही घर आया। बड़ी दीदी ने आते ही पूछा, “कैसा गया?”

मैं- “वही पेपर आया, जो कल मैंने हल किया था।”

दीदी को अचरज हुआ। “ये कैसे संभव है? ” पर जैसे ही उसने पेपर पढ़ा, उसका आश्‍चर्य दोगना हो गया। “ये कैसे संभव है कि बोर्ड का पर्चा आउट हो जाए, और बाज़ार में बिके?” पर ये ही सच था।

उसको लगा कि क्योंकि सारे सवाल और उनके जवाब मुझे पता थे, इसलिए मैंने क्‍या किया है, इस बारे में ज्यादा छानबीन नहीं हुई। मैंने अपना बिस्तर पकड़ा। आखिर, आज की रात भी मुझे जो जागना था!

हर नर्मदे! अपना ख्याल रखिए और मस्त रहिए। जारी…

इस तरह मैं जिया-1:  आखिर मैं साबित कर पाया कि ‘मर्द को दर्द नहीं होता’

इस तरह मैं जिया-2: लगता था ड्राइवर से अच्छी जिंदगी किसी की नहीं…

इस तरह मैं जिया-3: हम लखपति होते-होते बाल-बाल बचे…

इस तरह मैं जिया-4: एक बैरियर बनाओ और आने-जाने वालों से टैक्स वसूलो

इस तरह मैं जिया-5: वाह भइया, पुरौनी का तो डाला ही नहीं!

इस तरह मैं जिया-6: पानी भर कर छागल को खिड़की के बाहर लटकाया…

इस तरह मैं जिया-7: पानी भरे खेत, घास के गुच्छे, झुके लोग… मैं मंत्रमुग्‍ध देखता रहा

इस तरह मैं जिया-8 : मेरे प्रेम करने के सपने उस घटना के साथ चूर-चूर हो गए

इस तरह मैं जिया-9 : हमने मान लिया, वो आंखें बंद कर सपने देख रहे हैं

इस तरह मैं जिया-10 : हमारे लिए ये एक बड़ा सदमा था …

इस तरह मैं जिया-11: संगीत की तरह सुनाई देती साइकिल के टायरों की आवाज

इस तरह मैं जिया-12: मैसेज साफ था, जान-पैचान होने का मतलब यह नहीं कि तू घुस्ताई चला आएगा

इस तरह मैं जिया-13 : एक चाय की प्याली और ‘दीमाग खोराब से ठोंडा’ हो जाता

इस तरह मैं जिया-14 : तस्‍वीर संग जिसका जन्‍मदिन मनाया था वह 40 साल बाद यूं मिला …

इस तरह मैं जिया-15 : अगर कोई पवित्र आत्मा यहां से गुजर रही है तो …

इस तरह मैं जिया-16 : हम उसे गटागट के नाम से जानते थे …

इस तरह मैं जिया-17 : कर्नल साहब ने खिड़कियां पीटना शुरू की तो चीख-पुकार मच गई

इस तरह मैं जिया-18 : इतनी मुहब्बत! मुझे ऐसा प्रेम कहीं ना मिला

इस तरह मैं जिया-19 : एक दुकान जहां सुई से लेकर जहाज तक सब मिलता था

इस तरह मैं जिया-20 : मेरी बनाई झालर से झिलमिलाता था घर, कहां गए वे दिन?

इस तरह मैं जिया-21 : नायकर साहब पहले ही राउंड में बाहर हुए तो बुरा लगा

इस तरह मैं जिया-22 : … उसने जयघोष करते हुए परीक्षा हॉल में खर्रे बिखेर दिए

इस तरह मैं जिया-23 : फेंके हुए सिक्कों में से उनके हाथ 22 पैसे लगे…

इस तरह मैं जिया-24 : आई सा ‘मस्का-डोमेस्टिका’ इन माय रूम

इस तरह मैं जिया-25 : तब ऐसी बोलचाल को मोहब्बत माना जाता था

इस तरह मैं जिया-26 : बाल सेट करने का मतलब होता था ‘अमिताभ कट’

इस तरह मैं जिया-27 : जहां नर्मदा में नहाना सपड़ना था और शून्य था मिंडी

इस तरह मैं जिया-28 : पसंदीदा ट्रक में सफर का ख्‍याल ही कितना रोमांचक!

इस तरह मैं जिया-29 : दो बजे भी तिरपाल कस गई तो 6 बजे भोपाल पार

इस तरह मैं जिया-30 : “हे भगवान, इन सबका टिकट कंफर्म करवा दो,प्लीज”

इस तरह मैं जिया-31 : मैंने अशोक लेलैंड को आंखों से ओझल होने तक निहारा!

इस तरह मैं जिया-32 : मां पूछती, दिन कैसा गया?, मैं झूठ कह देता, बहुत अच्छा

इस तरह मैं जिया-33 : बेचैनी बढ़ रही थी, लैब से नीला थोथा उठाया कर रख लिया…

इस तरह मैं जिया-34 : परीक्षा की पहली रात मुझे सोना था लेकिन घर आते-आते 2 बज गए

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