इस तरह मैं जिया-37: इंजीनियरिंग और मेडिकल में प्रवेश के इच्छुक विद्यार्थियों का रेला शहर की सड़कों पर भेड़ों की तरह भटकता रहता
हर जीवन की ऐसी ही कथा होती है जिसे सुनना उसे जीने जितना ही दिलचस्प होता है। जीवन की लंबी अवधि सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में गुजारने वाले इस शृंखला के लेखक मनीष माथुर के जीवन की कथा को सुनना-पढ़ना साहित्य कृति को पढ़ने जितना ही दिलचस्प और उतना ही सरस अनुभव है। यह वर्णन इतना आत्मीय है कि इसमें पाठक को अपने जीवन के रंग और अक्स दिखाई देना तय है।
मनीष माथुर, सामाजिक कार्यकर्ता
ग्वालियर (1980-1984) :
1981 से ही मध्यप्रदेश में PET (प्री इंजीनियरिंग टेस्ट) आरंभ हुई। अभियांत्रिक महाविद्यालयों एवं पॉलिटेक्निक डिप्लोमा कोर्स के प्रवेश हेतु PET उतीर्ण करना आवश्यक कर दिया गया। बोर्ड एग्जाम अभी खत्म ही हुए थे। अब नई आफत आन पड़ी। घर वालों ने पुनः प्रोत्साहित करना शुरू किया कि क्या हुआ अगर बोर्ड में अच्छे नंबर ना आए। PET की तैयारी जोरों से करो। आसपास के सारे बच्चे कृष्णा कोचिंग की शरण में गए। कुछ ने सिर्फ किसी एक या दो विषय पढने के लिए प्राइवेट ट्यूशन पकडे। पढ़ाई के घटाटोप बादल पूरी कॉलोनी पर छा गए।
मेरे लिए मुरार विज्ञान महाविद्यालय के गणित के प्राध्यापक की ट्यूशन की व्यवस्था की गई। वे अपने जयेंद्रगंज स्थित आवास पर सुबह 5 बजे से 11 बजे तक और फिर शाम 6 बजे से रात 11 बजे तक 15-20 बच्चों की 11 बैच निकालते, मतलब प्रति दिन लगभग 200 बच्चे उनसे पढ़ते। एक मझोला कमरा था जिस पर फर्श बिछा होता। गुरूजी सफेद आधी बाहों का कुर्ता और टखनों तक का धवल पजामा पहने फर्श पर एक छोटे से गद्दे पर दीवार का सहारा लेकर धुनी रमा लेते। अपनी तरफ से उनका कोई प्रश्न नहीं होता। बच्चे आते, गुरूजी फरमाते के आज हमें कौन से सवाल छुड़ाने हैं। साथ ही आदेश होता, अगर नहीं बने, तो मुझसे पूछो। मुझे अभी भी त्रिकोणमिति, घन-ज्यामिति, कोआर्डिनेट ज्यामिति का ये संसार बहुत पराया लगता। ‘अब आ बैल मुझे मार’ वाली स्थिति कौन निर्मित करे, मैं उनसे कहता ही नहीं कि मुझे 10 में से 8 सवाल नहीं आते। सुबह 6 बजे की बैच के लिए मुझे 5.30 बजे निकलना होता, और साइकिल से 9 किलोमीटर का सफर तय करता हुआ उनके शिक्षा मंदिर पहुंचता।
जयेंद्रगंज, ढोली बुआ का पुल, इंदरगंज, हजीरा और मुरार में जैसे कोचिंग क्लासेस और गुरुजनों की बड़ी-छोटी दुकानें सज गईं। इंजीनियरिंग और मेडिकल में प्रवेश के इच्छुक छात्र-छात्राओं का रेला दिन भर शहर की सड़कों पर भेड़ों की तरह भटकता रहता।
बोर्ड के परिणाम घोषित हुए, मैं gracefully पास हुआ क्योंकि मेरे एक विषय के अंकों के आगे (G) छपा हुआ था। घर में मातमी धुन बजाई गई। बड़े-बूढों की राय बनी कि लड़का हाथ से गया। जाहिर है कि मेरी PET निकालने की संभावनाएं धूर-धूसरित हुईं।
गहरे नैराश्य में घिरा मैं न किसी से मिलता, न किसी से नजरें मिलाता। अचानक मुझे अपने ‘मोर वाले दोस्त’ की याद आई। सोचा उससे मिलूं। उसके बोर्ड में 67% अंक आए थे, जो पिछले वर्ष की तुलना में 4% ज्यादा थे। पर तब उन अंकों का महत्त्व उतना नहीं रह गया था। कुछ सप्ताह बाद ही PET परीक्षा की तारीखों की घोषणा कर दी गई थी। उसका घर तिलस्मी था। वो अपने बैरकनुमां घर के आगे विशाल पेड़ों की छाया में जूट की बुनी हुई खटिया पर बैठ कर पढाई करता। वहां घूमते मोर-मोरनियां, पेड़ों पर बहस करती मैनाएं, तोते जरूर राहत पहुंचाते। मेरा दोस्त मुझे बहुत धैर्य से समझाता। परंतु, दिमाग ने विद्रोह कर दिया था। गणित, रसायन, भौतकी मुझे कतई रास नहीं आते। दूसरी तरफ अर्थोपार्जन के लिए ड्राइविंग पर अब अभी भरोसा कायम था।
PET में जैसा स्पष्ट था सलेक्शन नहीं हुआ। मेरे पूरे ग्रुप में से किसी का नहीं। दो लड़कों का पॉलिटेक्निक में और एक कॉलोनी के लड़के का इंजीनियरिंग में चयन जरूर हुआ। उसके उलट मेरे होशंगाबाद के अधिकतर सहपाठी कहीं न कहीं प्रवेश पा गए। मुझे मुरार विज्ञान एवं कला महाविद्यालय (जिसका नाम कालांतर में श्यामलाल पांडवीय महाविद्यालय हुआ) में दाखिला लेना पडा। परिवार में अभी भी मुझे एक अभियंता या प्रशासनिक अधिकारी बनाने की उम्मीद बाकी थी।
महाविद्यालय की स्वंत्रता का पहला वर्ष छात्र/छात्राओं के लिए जहां खुशी देता है, वे अपनी मर्जी से कक्षा में उपस्थित अथवा अनुपस्थित होते। मेरे पास अनुपस्थिति की गुंजाइश कम थी। एक मेरी जेब में दोस्तों को चाय पिलाने के पैसे नहीं होते और दूसरा, मुझसे ठीक बड़ी दीदी वहां से मैथ में स्नातक कर रही थी। मुझे पता भी था कि मेरे एक दो प्राध्यापक पापा को जानते हैं बल्कि गणित, भौतिक रसायन के लगभग सभी प्राध्यापक दीदी के छोटे भाई के तौर पर पहचानत थे।
हमारे कॉलेज के ठीक सामने पुराना श्री टॉकीज था। उसमें पुरानी और भूत की फिल्में लगतीं। दोनों जौनर मुझे पसंद थे। गानों के लिए और अपना पराक्रम तौलने के लिए। टिकट की कीमत अच्छे सिनेमा हॉल (यथा, कृष्णा, डीलाइट, रीगल, और बाद में हरि-निर्मल की तुलना में एक तिहाई होती)। मैंने कोहरा, 20 साल बाद आदि 1982 में देखीं। ‘श्री’ या उससे भी गए गुजरे अल्पना/कल्पना चित्रपट पर। हां, मेरी एक जिद कायम रही। जब मेरी गैंग के कुछ लड़के लगभग हर फिल्म सामने के सीट्स से देखते, मैं माह में एक ही देखता लेकिन बालकनी में ही बैठता।
हर नर्मदे! अपना ख्याल रखिए और मस्त रहिए। जारी…
इस तरह मैं जिया-1: आखिर मैं साबित कर पाया कि ‘मर्द को दर्द नहीं होता’
इस तरह मैं जिया-2: लगता था ड्राइवर से अच्छी जिंदगी किसी की नहीं…
इस तरह मैं जिया-3: हम लखपति होते-होते बाल-बाल बचे…
इस तरह मैं जिया-4: एक बैरियर बनाओ और आने-जाने वालों से टैक्स वसूलो
इस तरह मैं जिया-5: वाह भइया, पुरौनी का तो डाला ही नहीं!
इस तरह मैं जिया-6: पानी भर कर छागल को खिड़की के बाहर लटकाया…
इस तरह मैं जिया-7: पानी भरे खेत, घास के गुच्छे, झुके लोग… मैं मंत्रमुग्ध देखता रहा
इस तरह मैं जिया-8 : मेरे प्रेम करने के सपने उस घटना के साथ चूर-चूर हो गए
इस तरह मैं जिया-9 : हमने मान लिया, वो आंखें बंद कर सपने देख रहे हैं
इस तरह मैं जिया-10 : हमारे लिए ये एक बड़ा सदमा था …
इस तरह मैं जिया-11: संगीत की तरह सुनाई देती साइकिल के टायरों की आवाज
इस तरह मैं जिया-12: मैसेज साफ था, जान-पैचान होने का मतलब यह नहीं कि तू घुस्ताई चला आएगा
इस तरह मैं जिया-13 : एक चाय की प्याली और ‘दीमाग खोराब से ठोंडा’ हो जाता
इस तरह मैं जिया-14 : तस्वीर संग जिसका जन्मदिन मनाया था वह 40 साल बाद यूं मिला …
इस तरह मैं जिया-15 : अगर कोई पवित्र आत्मा यहां से गुजर रही है तो …
इस तरह मैं जिया-16 : हम उसे गटागट के नाम से जानते थे …
इस तरह मैं जिया-17 : कर्नल साहब ने खिड़कियां पीटना शुरू की तो चीख-पुकार मच गई
इस तरह मैं जिया-18 : इतनी मुहब्बत! मुझे ऐसा प्रेम कहीं ना मिला
इस तरह मैं जिया-19 : एक दुकान जहां सुई से लेकर जहाज तक सब मिलता था
इस तरह मैं जिया-20 : मेरी बनाई झालर से झिलमिलाता था घर, कहां गए वे दिन?
इस तरह मैं जिया-21 : नायकर साहब पहले ही राउंड में बाहर हुए तो बुरा लगा
इस तरह मैं जिया-22 : … उसने जयघोष करते हुए परीक्षा हॉल में खर्रे बिखेर दिए
इस तरह मैं जिया-23 : फेंके हुए सिक्कों में से उनके हाथ 22 पैसे लगे…
इस तरह मैं जिया-24 : आई सा ‘मस्का-डोमेस्टिका’ इन माय रूम
इस तरह मैं जिया-25 : तब ऐसी बोलचाल को मोहब्बत माना जाता था
इस तरह मैं जिया-26 : बाल सेट करने का मतलब होता था ‘अमिताभ कट’
इस तरह मैं जिया-27 : जहां नर्मदा में नहाना सपड़ना था और शून्य था मिंडी
इस तरह मैं जिया-28 : पसंदीदा ट्रक में सफर का ख्याल ही कितना रोमांचक!
इस तरह मैं जिया-29 : दो बजे भी तिरपाल कस गई तो 6 बजे भोपाल पार
इस तरह मैं जिया-30 : “हे भगवान, इन सबका टिकट कंफर्म करवा दो,प्लीज”
इस तरह मैं जिया-31 : मैंने अशोक लेलैंड को आंखों से ओझल होने तक निहारा!
इस तरह मैं जिया-32 : मां पूछती, दिन कैसा गया?, मैं झूठ कह देता, बहुत अच्छा
इस तरह मैं जिया-33 : बेचैनी बढ़ रही थी, लैब से नीला थोथा उठाया कर रख लिया…
इस तरह मैं जिया-34 : परीक्षा की पहली रात मुझे सोना था लेकिन घर आते-आते 2 बज गए
इस तरह मैं जिया-35 : मेरे होश उड़ गए, वही पेपर आया, जो कल मिला था
इस तरह मैं जिया-36 : छत पर पढ़ने वाली लड़की असल में लड़का निकली
आपकी श्रृंखला की प्रतीक्षा रहती है🙏
Many thanks 🙏🙏