पहला प्यार और मैं: साथ भी और पास भी

शेफाली चतुर्वेदी, स्‍वतंत्र पत्रकार

जिंदगी में जो कुछ पहला होता है, वो कभी नहीं भूलते बनता। फिर चाहे, वो बच्चे के मुंह से निकला पहला शब्द हो, जिंदगी में चलने के लिए उठने वाला पहला कदम हो, स्कूल की पहली टीचर हो, पहला दोस्त/सहेली हो, पहली गाड़ी हो या हो पहला प्यार। बहुत कम ऐसे खुशनसीब लोग होते हैं जिनका पहला प्यार ही उसकी जिंदगी का साथ बनकर साथ चलता रहे। वो ही कर्म भी बन जाए और धर्म भी। मैं उन खुशनसीबों में से एक हूं।

मेरा पहला प्यार मुझे जब मिला तब मैं शायद साढ़े पांच साल की रही होंगी। मैं बोलती गयी, वो मुस्कुराता रहा और फिर जब मैंने अपने आसपास देखा तो सभी मुझे तारीफ भरी नजरों से देख रहे थे। सार्वजनिक जीवन में वो पहली बार था कि इतने सारे लोग मेरी सराहना कर रहे थे। इस सबका श्रेय उसको जाता है जिसे लोग ‘माइक्रोफोन’ कहते हैं और मैं पहला प्यार कहती हूं। उस पहले प्यार से पहले पहल मेरी जो दोस्ती हुई, उसने मुझे मुस्कुराने के जीतने के मौके तो दिए ही, मेरे लिए एक नयी पहचान भी गढ़ी। स्कूल में हाउस लीडर से हेड गर्ल बनाकर लोकप्रिय कर दिया तो कॉलेज में अपनी पहचान किसी स्थानीय सितारे से कम नहीं रही। छत्तीसगढ़ के उस तत्कालीन कस्‍बे ‘कोरबा’ में मेरे पहले प्यार ने पहले अपनी ही औद्योगिक कॉलोनी में लोकप्रिय बनाया और फिर कस्‍बे के युवाओं में अलग ही ठसक दी।

स्नातक होने के बाद जब आगे मीडिया पढ़ने भोपाल पहुंची तो मेरा पहला प्यार भेस बदलकर वहां भी चला आया, पहले कॉलेज और फिर रोजगार का अवसर बनकर। मुझे आज भी याद है भोपाल आकाशवाणी का वो स्टूडियो जहां वो मुझे एकदम नए रूप में मिला। एक तरह से ऐसा लगा जैसे कई वरिष्ठ लोग मिलकर ये तय कर रहे हैं कि मैं उसके लायक हूं या नहीं। मौका था युववाणी ऑडिशन का। परदे के उस पार से स्वर्गीय रवींद्र तेलंग सवाल पर सवाल दाग रहे थे और मैं माइक्रोफोन से अपने प्यार को सिद्ध कर रही थी। वो यात्रा जो उस दिन शुरू हुई आज 21 साल बाद भी हम साथ-साथ हैं। उसके साथ मैंने देश के गांव देखे, शहर देखे, बड़ों से मिली, बच्चों से बतियाई, युवाओं तक पहुंची, बुज़ुर्गों को सुना, उसकी बदौलत न जाने कितने रिश्ते बनते चले गए।

कभी किसी सुनने वाले ने बेटी कहा, कभी किसी कहने वाले ने दीदी। वो फ़िल्मी सितारे, संगीतकार, गायक, खिलाड़ी, वैज्ञानिक, सैनिक, नेता,समाज सुधारक जिन्हें दूर से ही देखकर लोगों के चेहरे पर चमक आ जाती है, उन्हें न सिर्फ मैंने करीब से देखा और सुना बल्कि जाना भी। मेरे पहले और इकलौते ‘प्यार’ ने मुझे देश की सीमा पार करवाकर कभी श्रीलंका, कभी ब्रिटेन, कभी कजाकिस्तान तो कभी बांग्लादेश भी भेजा। अब मेरी दुनिया मेरे रिश्ते अंतरराष्ट्रीय सीमाओं से इतर हैं। मेरा पहला प्यार माइक्रोफोन अब रेडियो और फील्ड रिकॉर्डर की शक्ल में हमेशा मेरे साथ है। वही मेरी पहचान है, वही मेरी लक्ष्मी है और वही सरस्वती।

मैंने कहा न कि मेरी दुनिया इस एक प्यार ने ही सजाई भी, बसाई भी और विस्तृत भी की। मैं स्वीकार करती हूं कि मेरे माता-पिता ने जब बचपन में मेरी मुलाकात उस से कराई थी तब मुझे नहीं पता था कि ये कई रिश्ते गुनेगा और बुनेगा भी। माइक्रो फोन और रेडियो मुझे एक ऐसी दुनिया का हिस्सा बना चुके हैं, जिससे और जिसके लोगों से मुझे बेहद मोहब्बत है। इतनी कि उसके अलावा कभी कुछ सोचा ही नहीं। शायद ऐसा तब ही हो पाता है जब आप और आपका काम एक अंग हो जाएं। जब आप, आपका काम और आपकी मोहब्बत एकांग हो जाएं। मैं गर्व से कहती हूं मैं, मेरा पहला प्यार और मेरा काम, हम तीनों एकांग हैं।

One thought on “पहला प्यार और मैं: साथ भी और पास भी

  1. क्या बात है। बहुत रोचक किस्सागोई

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