DU में PhD विवाद: क्‍या बोलना भी जुर्म है और पारदर्शिता मांगना गुनाह?

कहते हैं शिक्षा संस्‍थान राजनीति के केंद्र नहीं बनने चाहिए लेकिन ज्ञान के केंद्र तक्षशिला विश्वविद्यालय में आचार्य रहे चाणक्य ने शिक्षा संस्‍थान से ही देश की समूची राजनीति का स्‍वरूप बदल दिया था। इस वाक्‍य को लिखने का मंतव्‍य यह स्‍पष्‍ट करना है कि यहां ‘राजनीति’ के दो संदर्भ है: एक षड्यंत्र का दुष्‍चक्र जो अपनों को रेवड़ी बांटने और दूसरों को‍ गिराने, वंचित करने या हक भी देने का ‘मूल्‍य’ वसूलने की छूट देता है। दूसरा संदर्भ राजनीति प्रक्रिया से है। शिक्षा केंद्रों में पहला संदर्भ बहुत दिखाई देता है। इनदिनों दिल्‍ली विश्‍वविद्यालय का हिंदी विभाग अपनी पीएचडी स्‍कालर्स की चयन प्रक्रिया को लेकर विवादों से घिरा हुआ है। हम यह कह कर इस पूरे मामले से कन्‍नी नहीं काट सकते हैं कि जिनका चयन नहीं हुआ वे चिल्‍लाएंगे ही और जिनका चयन हुआ है वे बचाव करेंगे। पूरा मामला पारदर्शिता का है। यह केवल एक विभाग या एक यूनिवर्सिटी की बात नहीं है।

हर विश्‍वविद्यालय में ऐसे कई विवाद हैं। विद्यार्थियों की पीड़ाएं हैं। कुलपति, विभागाध्‍यक्ष, प्रक्रिया के प्रमुखों को इस मामले पर चुप्‍पी साधने की जगह पारदर्शिता को बढ़ाने और जाहिर करने वाले हर उपयुक्‍त उपक्रम करने चाहिए, न कि तानाशाह की तरह अपने निर्णय पर मौन साध कर रखना चाहिए। यह करना विश्‍वसनीयता के लिए भी आवश्‍यक है। फिर जहां तक राजनीति हस्‍तक्षेप, प्रभाव का उपयोग और तमाम कारक हैं भी हैं जो पूरे विश्‍वविद्यालय प्रबंधन को समय-समय पर प्रभावित, मुखरित और मौन करते हैं।

पीएचडी की चयन प्रक्रिया पर सवाल उठे हैं तो उनका उत्‍तर भी आना चाहिए। आखिर, विद्यार्थी अपने शिक्षकों और विश्‍वविद्यालय प्रबंधन से ही उम्‍मीद नहीं करेंगे तो किससे करेंगे? क्‍या प्रवेश के लिए, चयन के लिए, नौकरी पाने के लिए विद्यार्थियों को मोर्चा निकालना होगा, हड़ताल करनी होगी, विधिक प्रक्रिया अपनानी होगी? और यदि वे यही करेंगे तो पढ़ेंगे कब?

इस विषय पर पक्ष, विपक्ष, बहस मुबाहिस अपनी जगह लेकिन विश्‍वविद्यालय और हिंदी विभाग को आगे आ कर समूची प्रक्रिया की पारदर्शिता और चयन के कारकों को खुल कर सामने रखना चाहिए। आखिर, शोधार्थियों जिनका चयन नहीं हुआ है उन्‍हें भी चयन न होने का कारण जानने का हक है। ऐसे मामले विश्‍वविद्यालय की साख पर बट्टा लगाते हैं मगर जब एक भीड़ विश्‍वविद्यालय में प्रवेश करने को लालायित हो तो प्रबंधन साख पर उठे सवालों को सुविधा से दरकिनार कर देता है।

सिर्फ हंगामा खड़ा करना या विवाद को हवा देना हमारा मकसद नहीं है। हमारा मकसद विद्यार्थियों को बेहतर शैक्षणिक वातावरण देना है। हिंदी विभाग में जारी विवाद पर हम विभिन्‍न तर्कों को प्रस्‍तुत कर रहे हैं। इन्‍हें जानना समूचे विवाद को समझने के लिए आसान होगा। हमें समझ आएगा कि क्‍यों‍ विश्‍वविद्यालय को आगे आ कर जवाब देना चाहिए।

चयन प्रक्रिया को सही बताते हुए उसके पक्ष में तर्क दिए जा रहे हैं। ये तर्क इस प्रकार हैं:

दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में 22/02/2024 को पीएचडी में चयनित विद्यार्थियों की सूची जारी हुई। लगभग सभी विद्यार्थियों ने अथक परिश्रम किया जिससे उनको सफलता मिली, किंतु उसके तुरंत बाद सूची में अंतिम रूप से जो विद्यार्थी चयनित नहीं हो सके, वे पीएचडी की इस सूची को घोटाले का रूप देते हुए वरिष्ठ साहित्यकार हिंदी विभागाध्यक्ष प्रोफेसर कुमुद शर्मा और हिंदी विभाग के वरिष्ठ आलोचक प्रोफेसर अपूर्वानंद के ऊपर साजिशपूर्ण ढंग से दोष मढ़ने लगे। इन लोगों ने जिन विद्यार्थियों का एडमिशन हो गया है, उनको ‘चाटुकार’ की संज्ञा भी दी है, जो अनैतिक है। आप सभी के बीच मैं कुछ बातों को रखना चाहती हूं जो अवश्य ही पढ़िएगा-

  1. प्रथम बात, जो इनका मुद्दा 70:30 के आधार पर बनाया जा रहा है तो मैं इतना कहूंगी कि जब यूनिवर्सिटी/विभाग की गाइडलाइन जारी हुई थी, तब ही इसका मांग क्यों नहीं की गई? वैसे मैं इसके पक्ष में थी मैंने कहा भी लेकिन इन्हीं आंदोलनकारी में से कुछ महाशयों ने कहा कि छोड़ो जैसे सबका होगा वैसे मेरा भी होगा! कोई समस्या मुझे नहीं है, आज जब सूची से बाहर हैं तो इन्हीं सबको सबसे ज्यादा समस्या महसूस हो रही है, और ये सूची निरस्त करने की मांग कर रहे हैं ।
  2. दूसरी बात, ये प्रवेश प्रक्रिया दूसरे फेज की है किंतु जब प्रथम फेज की प्रवेश प्रक्रिया हुई थी तो क्या वो पूर्णतः सही थी? क्या उसमें घोटाला नहीं हुआ था? अगर इतना ही आग था तो प्रथम फेज में ही आवाज क्यों नहीं उठाई गई? क्योंकि तब पता था कि इस बार नहीं हुआ है, तो अगली बार करा ही लूंगा/लूंगी, क्यों फालतू में आंदोलन करूं?
  3. इनमें से जो आंदोलनकारी बने हैं उनमें से अधिकांश लोगों का कहीं न कहीं पीएचडी एडमिशन हो गया है, जैसे किसी का हिमांचल यूनिवर्सिटी,BBAU, हैदराबाद यूनिवर्सिटी, क्षेत्रीय यूनिवर्सिटी आदि आदि जगहों पर, तो आज दिल्ली विश्वविद्यालय के शोध प्रक्रिया पर सवाल उठाकर यहां की शुचिता एवं गरिमा को धूमिल करने का बेजोड़ प्रयास जारी है।
  4. ये एक पीएचडी एंट्रेंस CUET की लिस्ट जारी करते हैं और कहते हैं कि इसमें से टॉप 20 में से किसी का नहीं हुआ तो सबसे पहले अवगत कराना चाहती हूं कि ऐसी कोई लिस्ट NTA ने जारी नहीं की है। इनमें से कुछ लोगों ने BBAU में फॉर्म भरा था और ये लिस्ट BBAU की है क्योंकि इनसे भी टॉपर्स बच्चे थे CUET में, जिन्होंने उस विश्वविद्यालय में फॉर्म ही नहीं भरा था। वैसे CUET का परीक्षा वस्तुनिष्ठ है जबकि पीएचडी की प्रवेश प्रक्रिया व्यक्तिनिष्ठ है। जरूरी नहीं अभ्यर्थी दोनों में अच्छा ही हो।
  5. महत्वपूर्ण बातें, इसमें से कुछ लोगों को मैं व्यक्तिगत जानती हूं जिन्होंने पीएचडी का फॉर्म भरने से लेकर पीएचडी के रिजल्ट आने तक किसी प्रोफेसर से एक आध बार ही मिले और अपने टॉपिक से संबंधित कोई बातचीत करने की कोशिश की हो। उनका एक ही कहना था कि मैंने सीधे हाई कमान से बोल दिया है,किसी का कहना था कि मैंने गृहमंत्री को बोल दिया है, अब तो मेरा हो ही जायेगा। जबकि हमारे प्रोफेसरों ने किसी के साथ दुर्व्यवहार या अन्याय करने की कोई कोशिश नहीं की। उन्होंने उन अभ्यर्थियों को अधिक तवज्जो दी दिया जिन्होंने अपने टॉपिक डिफेंड करने में एक अच्छा तर्क दिया।
  • अगर यह चयन प्रक्रिया वस्तुनिष्ठ है तो फिर UGC को भी ऐसा ही करना चाहिए। फिर NET की परीक्षा की भी क्या आवश्यकता हैं?
  • मेरा प्रश्न है दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग का इंटरव्यू देने वालों से है कि क्‍या उन्‍हें टॉपिक डिफेंड करने का खूब समय दिया गया? क्या कई प्रश्‍न पूछे गए?
  • आपकी कुंठा ये है कि यही सभी प्रश्न पहले क्यों नहीं उठाए गए, आंदोलन पहले क्यों नहीं किया गया? तो क्या अब विरोध इसलिए नहीं कर सकते कि पहले नहीं किया गया। आंदोलन तभी होते हैं जब न्याय की उम्मीद खत्म हो जाती है।
    सबसे जरूरी सवाल हैं उन लोगों से जिनको लगता है ये सिस्टम अच्छा है:
  • जब आप किसी अच्छी-खासी यूनिवर्सिटी में प्रवेश प्रक्रिया में शामिल होते है तो सिर्फ मानक क्या 100 नंबर का इंटरव्यू ही होता है? इसके बाद भी अगर आप किसी भी जगह असिस्टेंट प्रोफेसर नियुक्ति के लिए जाते है तो वहां भी आपका api score देखा जाता है।
  • यह बताइए कि इंटरव्यू में बुलाकर 2 मिनट में संवाद खत्‍म कर देने से कौन अपना टॉपिक डिफेंड कर पाएगा?
  • CUET का 70:30 का नियम था इसी उद्देश्य से लाया गया था कि सेलेक्शन का आधार सिर्फ इंटरव्यू न रहे। नेट/ जेआरएफ उसके बाद CUET में भी 300 से ऊपर नंबर लाने वाले बच्चों का दोनों बार चयन न होना साथ ही सिर्फ 2 से 5 मिनट के इंटरव्यू में किसी 200 अंक प्राप्त बच्चे का चयन इस बात को दिखाता है कि कुछ तो गड़बड़ी हुई है।
  • आज जब UPSC समेत सारे परीक्षाओं में इंटरव्यू के अंक मुख्य परीक्षा के 20% से भी कम है तब दिल्ली विश्वविद्यालय में पीएचडी चयन में आखिर पूरे नंबर का आधार इंटरव्यू पैनल के हाथ में क्यों? यदि सिर्फ इंटरव्यू भी लेना है तो सभी को ज्ञात है कि 2 से 5 मिनट के इंटरव्यू में किसी के प्रतिभा की जांच संभव नहीं है फिर कम से कम एपीआई आदि तो देखना ही चाहिए ताकि प्रिवीयस रिकॉर्ड के आधार पर बच्चे को कुछ अंक मिल सके।
  • क्या इंटरव्यू पैनल की उपस्थिति का समय निर्धारण नहीं होना चाहिए जब जिसका मन कर रहा है वह प्रोफेसर आ रहे है जब मन कर रहा है उठ कर जा रहे हैं। क्या इंटरव्यू के लिए न्‍यूनतम समय का निर्धारण नहीं होना चाहिए जिससे बच्चा अपनी बात रख सके?
  • यदि किसी का चयन नहीं हुआ है तो भी उसे अपने नंबरों की जानकारी होना ही चाहिए।

इसके बाद दिल्ली विश्वविद्यालय की साख पर प्रश्नचिह्न तो है कि विश्वविद्यालय में पीएचडी चयन में किसी प्रकार की पारदर्शिता नहीं है। अपनी साख बचाने के लिए विश्‍वविद्यालय प्रशासन से आगे आने की उम्‍मीद क्‍या बेमानी है?

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