क्या सभी देशवासियों के लिए कानून समान हैं?

जे.पी.सिंह, वरिष्ठ पत्रकार और कानूनी मामलों के विशेषज्ञ

क्या देश में प्रभावशालियों के लिए कोई कानून नहीं है और आम आदमी कानून की जंजीरों में जकड़ा हुआ है? क्या सभी देशवासियों के लिए कानून समान हैं? महाराष्ट्र के पुणे शहर में पिछले दिनों एक लग्जरी कार से हुई सड़क दुर्घटना का जो मामला सामने आया, उसने न केवल किसी भी कीमत पर अपनों को बचाने, पैसे के बल पर सबूत मिटाने और शहरी जीवन और व्यवस्था से जुड़ी दुर्भाग्यपूर्ण विसंगतिओं को उघाड़ कर रख दिया बल्कि किसी अपराध के मौजूदा क़ानूनी प्रावधानों के प्रति समाज की समझ पर भी गंभीर सवाल खड़ा कर दिया है।

इस घटना ने यह बखूबी प्रदर्शित किया है कि हमारे समाज का अमीर और रसूखदार वर्ग नियम-कानून को अपनी जेब में लिए चलता है और पुलिस प्रशासन उसकी चाकरी करते हैं। मामले का मुख्य आरोपी एक नाबालिग है जो पुणे के एक जाने-माने बिल्डर का बेटा है। अमीर पिता ने यह महंगी गाड़ी अपने नाबालिग बेटे के हवाले कर दी थी। इस साल मार्च में खरीदी गई इस गाड़ी पर पंजीयन नंबर तक नहीं था क्योंकि रोड टैक्स के 44 लाख रुपये नहीं दिए गए थे। गाड़ी चला रहे नाबालिग लड़के के पास कोई ड्राइविंग लाइसेंस भी नहीं था। यही नहीं दुर्घटना से पहले यह लड़का एक नहीं दो अलग-अलग बार में जाकर शराब पीता है जबकि महाराष्ट्र में शराब पीने की न्यूनतम उम्र 25 साल है, लेकिन बार में उम्र कोड कैसे लागू हो इसका कोई पुख्ता इंतजाम नहीं है।

शराब पीकर गाड़ी चलाने और दुर्घटना में दो लोगों की मौत से जुड़े इस मामले में आरोपी को जमानत मिलने में भी कोई दिक्कत नहीं हुई। पुलिस ने जुवेनाइल जस्टिस बोर्ड के सामने आवेदन दिया था कि उसे इस मामले में आरोपी के साथ वयस्क की तरह व्यवहार करने की इजाजत दी जाए। लेकिन इस आवेदन को अलग रखकर बोर्ड ने आरोपी को जमानत दे दी। उसे हादसे पर एक निबंध लिखने और 15 दिनों तक यातायात पुलिस की मदद करने को कहा गया। इस पूरे घटनाक्रम के सामने आने के बाद इस पर कड़ी प्रतिक्रियाएं आने लगीं और कानून से इतर मीडिया ट्रायल शुरू हो गया।

इससे यही सवाल उठता है कि क्या वाकई हमारे सरकारी तंत्र को लकवा मार गया है। आखिर कैसे समाज का एक प्रभावशाली और ताकतवर हिस्सा कानून का जमकर मखौल उडा रहा है और उस पर तब कारवाई हो रही है जब मीडिया इसे मुद्दा बना रही है। इस मामले में सभी दोषियों के खिलाफ उपयुक्त कार्रवाई सुनिश्चित करना जितना जरूरी है उतना ही अहम है यह संदेश देना कि कानून सभी देशवासियों के लिए समान हैं।

भारत में किशोरों पर कानून कई वर्षों से विकसित हो रहा है और फिर भी यह संदिग्ध है कि क्या यह पूरी तरह से विकसित हुआ है। किशोर न्याय अधिनियम, 1986 के बाद 2000 में अधिनियमित किया गया था, जिसे 2006 और 2010 में फिर से संशोधित किया गया था। इसे वर्तमान किशोर न्याय (बच्चों की देखभाल और संरक्षण) अधिनियम, 2015 द्वारा प्रतिस्थापित किया गया था। पुणे में हुई भयावह घटना जिसमें एक किशोर द्वारा कथित रूप से नशे में और तेज गति से गाड़ी चलाने के कारण दो युवा पेशेवरों की जान चली गई, ने वर्तमान कानूनों के प्रावधानों, विशेष रूप से अधिनियम की धारा 15 की कार्यात्मक दक्षता पर गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं। इस धारा ने पहली बार जघन्य अपराधों में शामिल 16 से 18 वर्ष की आयु के किशोरों को अलग-अलग श्रेणियों में रखा है। यह पिछले नियमों से एक स्पष्ट विचलन है।

पुणे की घटना में, यातायात सुरक्षा पर निबंध लिखने और यातायात पुलिस की सहायता करने जैसी मामूली शर्तों पर किशोर को जमानत देने का कार्य न केवल नासमझी थी, बल्कि स्पष्ट रूप से अवैध भी थी। हालांकि, बाद में किशोर को रिमांड होम भेजने के निर्णय द्वारा इसे “सुधारने” का प्रयास किया गया। अधिनियम की धारा 15 किशोर न्याय बोर्ड द्वारा ‘जघन्य अपराधों में प्रारंभिक मूल्यांकन’ के बारे में है, जिसमें किशोर की ‘ऐसे अपराध करने की मानसिक और शारीरिक क्षमता, अपराध के परिणामों को समझने की क्षमता’ और कथित अपराध से जुड़ी परिस्थितियों के बारे में बताया जाता है। इस उद्देश्य के लिए विशेषज्ञों की सहायता ली जा सकती है। इस मूल्यांकन के आधार पर, अधिनियम की धारा 18(3) को लागू करते हुए यह निर्णय लेते हुए कि बच्चे पर वयस्क के रूप में मुकदमा चलाया जाना चाहिए, बोर्ड मामले को सुनवाई के लिए बच्चों की अदालत में स्थानांतरित कर सकता है। बच्चों की अदालत इस निर्णय की फिर से जांच कर सकती है। मुकदमे के बाद भी, अधिनियम की धारा 21 के तहत प्रतिबंध के कारण मृत्युदंड या आजीवन कारावास की सजा देना अस्वीकार्य है।

लेकिन ये प्रक्रियाएं न तो सरल हैं और न ही आसान। बोर्ड अक्सर बच्चे को वयस्क के रूप में मुकदमा चलाने के सटीक मापदंडों के बारे में अनभिज्ञ होते हैं। बरुन चंद्र ठाकुर बनाम मास्टर भोलू और अन्य (2022) में, सुप्रीम कोर्ट ने प्रावधानों में कमियों को व्यापक रूप से निपटाया और निर्देश दिया कि दिशा-निर्देश तैयार किए जाएँ। इसने धारा 15 के प्रावधान की व्याख्या इस प्रकार की कि बोर्ड ‘अनुभवी मनोवैज्ञानिकों या मनो-सामाजिक कार्यकर्ताओं या अन्य विशेषज्ञों’ की सहायता लेगा। सुप्रीम कोर्ट ने माना कि ‘यह समीचीन है कि इस संबंध में उचित और विशिष्ट दिशा-निर्देश लागू किए जाएं।’

अप्रैल 2023 में, राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग (एनसीपीसीआर) ने धारा 15 के प्रभावी अनुप्रयोग को सुविधाजनक बनाने के लिए नियम बनाए। इसने कहा कि ‘सामाजिक जांच रिपोर्ट (एसआईआर) और सामाजिक पृष्ठभूमि रिपोर्ट (एसबीआर) जैसे मौजूदा तंत्र संपूर्ण हैं’ और आकलन व्यक्तिगत होने के लिए बाध्य हैं। इसलिए, दिशानिर्देश के अनुसार, उन्हें ‘प्रक्रिया और अनुसरण किए जाने वाले चरणों की समझ में अस्पष्टता को दूर करने के लिए प्रारंभिक मूल्यांकन में शामिल आवश्यक घटकों और बुनियादी तंत्र को शामिल करने के लिए डिज़ाइन किया गया है।’

दिशा-निर्देशों में अधिकारियों को याद दिलाया गया कि ‘प्रारंभिक मूल्यांकन का उद्देश्य बच्चे से स्वीकारोक्ति प्राप्त करना या किसी प्रकार के निष्कर्ष पर पहुंचना नहीं है।’ इसमें चेतावनी दी गई कि ‘प्रारंभिक मूल्यांकन करते समय सामाजिक जांच रिपोर्ट (एसआईआर) से किसी भी स्वीकारोक्ति कथन को ध्यान में नहीं रखा जाना चाहिए।’ दिशा-निर्देशों में बताया गया है कि सामाजिक पृष्ठभूमि रिपोर्ट किस तरह से तैयार की जानी चाहिए, जिसमें बच्चे के पिछले जीवन और पारिवारिक पृष्ठभूमि, व्यक्तिगत देखभाल योजना आदि का विवरण शामिल हो। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि उन्होंने कहा कि ‘अंतिम रिपोर्ट में किसी भी तरह का बयान या दस्तावेज शामिल नहीं होना चाहिए जो प्रकृति में अपराध करने वाला हो।‘ दिशा-निर्देशों में कुछ ‘रिपोर्ट में शामिल किए जाने वाले सुझावात्मक प्रश्न’ और अनुलग्नक के रूप में काल्पनिक चित्रण शामिल हैं।

इन प्रयासों के बावजूद, जमीनी स्तर पर हालात में कोई खास सुधार नहीं हुआ। चाइल्ड इन कॉन्फ्लिक्ट विद लॉ बनाम स्टेट ऑफ़ गुजरात (2023) के मामले में, गुजरात उच्च न्यायालय ने किशोर न्याय बोर्ड द्वारा जारी आदेश को रद्द कर दिया और उसे उन दिशा-निर्देशों के आधार पर नए सिरे से मूल्यांकन करने का निर्देश दिया, जिन्हें न्यायालय ने विस्तार से समझाया था। मुस्तफा खान जब्बार खान बनाम महाराष्ट्र राज्य (2023) नामक एक अन्य निर्णय में, बॉम्बे उच्च न्यायालय ने बच्चों की अदालत (सत्र न्यायालय) और किशोर न्याय बोर्ड के आदेश को रद्द कर दिया और मूल्यांकन के मामले में वैधानिक नुस्खों के उल्लंघनों को गिनाया। विडंबना यह है कि उल्लंघन सामान्य बात है और प्रावधानों के अनुपालन के कारण अपवाद हैं। इससे यह बात उजागर होती है कि इस मुद्दे की जटिल प्रकृति को देखते हुए संस्थाओं और समाज के दृष्टिकोण में आमूलचूल सुधार की आवश्यकता है। मामलों के शीर्ष पर बैठे लोगों का उचित चयन किया जाना चाहिए और उन्हें पर्याप्त प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए।

एनसीपीसीआर द्वारा जारी दिशा-निर्देशों के अध्याय 3 में किशोर न्याय बोर्ड और अन्य विशेषज्ञों की भूमिका के बारे में बात की गई है, लेकिन एनसीपीसीआर विशेषज्ञों की नियुक्ति के मामले में प्रचलित तदर्थवाद को समाप्त करने की बात नहीं करता है। इसमें ऐसी स्थिति की आशंका जताई गई है, जहां जिले में विशेषज्ञ भी उपलब्ध नहीं हो सकते हैं। इस तदर्थवाद को रोकने के लिए राज्य स्तर पर विशेषज्ञों का एक स्थायी पैनल होना चाहिए। भारत में 16 से 18 वर्ष की आयु के बच्चों द्वारा किए जाने वाले जघन्य अपराधों में भारी वृद्धि हुई है। सरकारी आंकड़ों से पता चलता है कि 2015 में किशोरों के खिलाफ 853 हत्या और 1,688 बलात्कार के मामले दर्ज किए गए। एनसीआरबी के आंकड़े बताते है कि वर्ष 2022 में 422659 सड़क हादसे हुए जिनमें दस प्रतिशत हादसे बच्चों ने कारित किये हैं।

हमारे समय में किशोर अपराधों को कई कारकों ने आकार दिया है, जैसे खराब पालन-पोषण, अशिक्षा, गरीबी, साथ ही संपन्नता, पारिवारिक पृष्ठभूमि और सामाजिक परिस्थितियां।किसी अपराधी को दोषी ठहराना आपराधिक न्याय प्रणाली का एक महत्वपूर्ण सिद्धांत है। इसका मतलब यह है कि प्रत्येक अपराधी को उसके किये गये अपराध की सजा अवश्य मिलनी चाहिए। यह बात बच्चों और युवा अपराधियों पर भी लागू होती है। हालांकि, उनके लिए एक विशेष तंत्र बनाया गया है।

ऐसे युवा अपराधियों को किशोर के रूप में जाना जाता है और वे किशोर न्याय अधिनियम (बच्चों की देखभाल और संरक्षण) 2015 के तहत शासित होते हैं। उनके साथ वयस्क (एडल्ट) अपराधियों की तरह व्यवहार नहीं किया जाता है और न ही उन्हें भयानक और आदतन अपराधियों में बदलने से रोकने के लिए दंडित किया जाता है। इसका उद्देश्य किशोर न्याय प्रणाली की मदद से उनमें सुधार करना और उन्हें शांत नागरिक बनाना है।

पुणे में दो इंजीनियर की सड़क दुर्घटना में हुई मौत और आरोपियों को किशोर न्याय बोर्ड से मिली जमानत देश भर में चर्चाओं का केंद्रीय विषय बना हुआ है। विवाद के बीच बुनियादी रूप से किशोर न्याय अधिनियम 2015 के प्रावधानों पर फिर से विचार करने की आवश्यकता पर चर्चा होनी चाहिए?

मौजूदा कानून के अनुसार तो किशोर न्याय बोर्ड पुणे ने कोई नियम विरुद्ध या विशेषाधिकार का प्रयोग किया ही नही है क्योंकि यह कानून मुल स्वरूप में एक सुधारात्मक कानून है जो 18 साल तक के हर लड़के लड़की को उसकी हर गलती पर सुधरने का अवसर सुनिश्चित करता है।किशोर न्याय बोर्ड पुणे ने वही किया जो निर्भया केस में सर्वाधिक ज्यादती करने वाले नाबालिग आरोपी के साथ उस समय किया गया था।इसलिए सोशल मीडिया और राजनीतिक हलकों में जो समानांतर ट्रायल चल रहा है वह घटना की भयाभयता को देखकर हैं न कि कानून की कमजोरी को ध्यान में रखकर।

इस मामले में दो कानून प्रभावशील है पहला मोटर व्हीकल एक्ट औऱ किशोर न्याय अधिनियम। मोटर व्हीकल एक्ट की धारा 199 (अ) कहती है कि लापरवाही से वाहन चलाकर दुर्घटना कारित करने वाले व्यक्ति को अधिकतम तीन साल की सजा के साथ उसके वाहन का लाइसेंस एक साल के लिए निलंबित होगा। साथ ही अधिकतम 25 हजार का जुर्माना भी अधिरोपित किया जा सकता है। पुणे के मामले में यही प्रावधान लागू होगा।
अब किशोर न्याय कानून कहता है कि बच्चों के मामले में अपराध को तीन श्रेणियों में देखा जाएगा।मामूली अपराध जिनमें तीन साल तक की सजा है। गंभीर अपराध जिनमें तीन से सात साल तक की सजा है। जघन्य अपराध वे जो सात साल से उपर की सजा का प्रावधान रखते हैं। पुणे प्रकरण में अमीरजादों का कृत्य मामूली अपराध की श्रेणी में ही आता है इसलिए सुधारात्मक पहलू लागू होगा और बोर्ड ने आरोपी बालकों को इसी आधार पर जमानत दे दी।

दरअसल, 2012 में जब निर्भया केस हुआ था तब यह श्रेणियां बनाई गई थी और यह निश्चय किया गया कि अगर जघन्य अपराध करने वाले बालक 16 से 18 साल की आयु के है तो उन पर वयस्को की तरह मुकदमा चलाया जा सकता है। लेकिन इस बात का निर्णय किशोर न्याय बोर्ड धारा 15 के तहत विचार करने के बाद ही करेगा।यानी बोर्ड अगर जघन्य अपराध में भी किशोर में सुधारात्मक संभावना को देखता है तो किसी हत्या और बलात्कार के मामले में भी उसे जमानत दे सकता है।अगर बोर्ड ऐसा मानता है कि किशोर ने जो अपराध किया है वह उस अपराध पश्चवर्ती प्रभावों से वाकिफ था तब किसी भी मामले को चिल्ड्रन कोर्ट में वयस्कों की तरह सुनवाई के लिए भेज सकता है।यहां भी कानून में प्रावधान है कि चिल्ड्रन कोर्ट मृत्यु दंड नही दे सकते हैं अधिकतम 20 साल की सजा ही सुनायेंगे।

पुणे के आरोपी नाबालिग हैं और उन्हें वही छूट मिली है जो मौजूदा कानून में प्रावधित है। सड़क पर आदमी को मारने की सजा भारत में तीन साल ही है इसलिए उनका यह अपराध किशोर न्याय की नजर में जघन्य नही है। भले ही पीड़ितों के परिवार इस कृत्य से उजड़ गए हों। इस पूरे मामले में पुलिस किशोर कानून से बाहर जाकर कार्यवाही नही कर सकती हैं ज्यादा से ज्यादा जिस पब में विधि विरुद्ध बालकों (आरोपियों) ने 48 हजार की शराब पी उसके संचालक को धारा 77 के तहत नाबालिग को शराब परोसने के अपराध में सात साल की सजा दिला सकती हैं।

अब महत्वपूर्ण पक्ष मोटर व्हीकल एक्ट से जुड़ा है जिसमें हिट एंड रन के कुछ प्रावधानों को जब मौजूदा केंद्र सरकार ने सख्त करने का निर्णय लिया तब देश भर में इसका तीखा विरोध हुआ था यह बताता है कि देश में किसी घटना विशेष पर तो हायतौबा खूब होती है लेकिन जब कानून के प्रवर्तन की बात आती है तो हम यथास्थितिवाद के साथ खड़े रहते हैं।

बेहतर होगा कि इस घटना से सरकार सबक लेते हुए मोटर व्हीकल एक्ट में वैसे ही सुधार संस्थित करे जैसे निर्भया के वक्त नाबालिग के अपराधों को 16 से 18 साल के मध्य परिभाषित किया गया था। पुणे में जो घटना हुई है वह जघन्यतम अपराध है इसे किशोर न्याय के नाम पर नहीं छोड़ा जाना चाहिए बल्कि किशोर न्याय अधिनियम 2015 के प्रावधानों पर फिर से विचार किया जाना चाहिए और विसंगतियों को दूर किया जाना चाहिए। एक गंभीर चुनौती अमीर खानदान से आने वाले बच्चों की उदण्डता औऱ स्वछंदता की खड़ी हो रही है। किशोर कानून में अपराधों की श्रेणी को नए सिरे से परिभाषित करने की आवश्यकता तो है ही साथ ही मोटरव्हिकल एक्ट को बच्चों के मामले में सख्त किया जाना चाहिए।

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