वो हर इक बात पर कहना कि यूं होता तो क्या होता

चैतन्‍य नागर, स्‍वतंत्र पत्रकार

छोटी उम्र में ही जिद्दू कृष्णमूर्ति (1895-1986) की परवरिश की जिम्मेदारी थियोसॉफिकल सोसाइटी की अध्यक्ष एनी बेसेंट ने संभाल ली थी। सोसाइटी के एक अन्य प्रमुख सदस्य लेडबीटर कह चुके थे कि कृष्णमूर्ति विश्व शिक्षक बनेंगे। उनका मानना था कि मैत्रेय बुद्ध विश्व शिक्षक के रूप में आएंगे और दुनिया को जीने का एक नया मार्ग दिखायेंगे। ‘द आर्डर ऑफ द स्टार इन द ईस्ट’ नाम से एक विश्वव्यापी संगठन भी बना जिसके मुखिया बने कृष्णमूर्ति। पर वर्ष 1929 थियोसॉफिकल सोसाइटी के इतिहास में एक तरह का स्कैंडल बन गया। जिद्दू कृष्णमूर्ति ने हजारों सदस्यों के सामने ‘आर्डर ऑफ द स्टार’ को खत्म करने का ऐलान कर दिया| संगठन का धन और सैकड़ों एकड़ की संपत्ति उन्होंने वापस कर दी। एक मसीहा, जगद्गुरु और अवतार घोषित किए जाने के बावजूद बगावत का बिगुल फूंक दिया और यह अद्भुत वक्तव्य दिया:

“सत्य एक पथविहीन भूमि है। किसी धर्म या संप्रदाय के माध्यम से आप इस तक नहीं पहुंच सकते। सत्य को आप संगठित नहीं कर सकते और इसलिए…कोई संगठन नहीं बनाया जाना चाहिए। मत पूरी तरह एक व्यक्तिगत मामला है…जैसे ही आप इसे संगठित करते हैं वह एक मुर्दा चीज बन जाता है… संगठन आपको मुक्त नहीं कर सकते। आप टाइपराइटर का इस्तेमाल करते हैं पत्र लिखने के लिए पर वेदी पर रख कर उसकी पूजा नहीं करते… मेरी तो अब एक ही फिक्र है: इंसान को परम रूप से, बगैर किसी शर्त सभी पिंजरों से निजात दिला देना।”

करीब साठ वर्षों तक, 17 फरवरी 1986 में अपनी मृत्यु के चंद दिन पहले तक कृष्णमूर्ति पूरी दुनिया में जन सभाएं करते रहे, लोगों से बातें करते रहे। उनकी प्रकाशित एवं अप्रकाशित वार्ताओं, लेखन को इकठ्ठा किया जाए तो करीब दो करोड़ शब्द खर्च हो जाएंगे! नोबेल विजेता ऑल्डस हक्सले ने कृष्णमूर्ति की किताब ‘फर्स्ट एंड लास्ट फ्रीडम’ की भूमिका में कहते हैं कि कृष्णमूर्ति को सुनना बुद्ध को सुनने के सामान है। बुद्ध की तरह वह भी आतंरिक कलह, दुःख एवं समाज में उसकी अभिव्यक्तियों और उसके समाधान को समझाने की फिक्र करते रहे। उनका मानना था कि वैश्विक संकट की जड़ें भटकती, उलझती मानव चेतना में हैं। बाहरी दुनिया को भले ही सजा-संवार दिया जाए, यदि अंतस को न निहारा जाए तो वह बाहरी ताम-झाम को तबाह कर सकता है।

सनातन धर्म की मुख्यधारा और इसकी बागी परंपरा- दोनों से दूर छिटक कर जिद्दू दूर खड़े दिखते हैं, नए सिरे से जीवन के बुनियादी सवालों पर संवाद करते। कभी सुकरात की याद दिलाते हैं और कभी नागार्जुन की। कभी लगता है मानो कोई प्राचीन ऋषि जींस पहने रोम की सड़कों पर टहलता लोगों को उनके बीते दिनों का सुराग बता रहा हो। उनकी कुछ किताबें पढ़ें तो कीट्स जैसे कवि याद आ जाते हैं। अक्सर कृष्णमूर्ति ग़ालिब के इस शेर की याद भी दिलाते हैं:

हुई मुद्दत कि ग़ालिब मर गया, पर याद आता है,
वो हर इक बात पर कहना, कि यूं होता तो क्या होता

सतही समाज सुधार में उनका कोई भरोसा नहीं था। अमेरिका की कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्यों ने जब कहा उन्हें तो कम्युनिस्ट पार्टी में होना चाहिए तो उन्होंने साफ कहा कि वह किसी भी संगठन का हिस्सा नहीं बन सकते। उनका मानना था कि मत और वाद, संगठन एवं संप्रदाय तो विभाजन और युद्ध का कारण हैं। उनका सवाल था, क्या हम इस धरती पर सहज होकर चलते फिरते रह सकते हैं, खुद को और कुदरत को कोई नुकसान पहुंचाए बगैर? कृष्णमूर्ति पिछली सदी के कई महान भौतिकविदों, मनोवैज्ञानिकों के अलावा कई क्षेत्रों के महारथियों से मिले और अपनी अंतर्दृष्टियां साझा कीं जिनमें एक खास किस्म का टटकापन है।

शिक्षा का अर्थ है स्नेह

क्या कोई छात्र होड़ में शामिल हुए बगैर उत्कृष्ट हो सकता है? क्या तुलना किए बगैर बच्चों को पढ़ाया जा सकता है? ये सवाल कृष्णमूर्ति ने अपने स्कूलों के शिक्षकों से बार-बार पूछा| ज़ानेन, स्विट्जरलैंड की एक प्रश्नोत्तरी सभा में वह कहते हैं:

“शिक्षक को शिक्षित होने की जरूरत है। केवल बच्चों को ही नहीं, अभिभावकों को भी शिक्षा की जरूरत है। और यदि अभिभावकों को अपने बच्चों से प्यार है—प्यार, न कि खिलौने की तरह उनके साथ खेलना…अगर सच में उन्हें प्यार है तो क्या वे अपने बच्चों को मरने या मारने देंगे? जब तक बच्चे दो या पांच साल के होते हैं वे उनको खूब लाड़-दुलार करते हैं और फिर उनको किस्मत के हवाले छोड़ देते हैं। इसे शिक्षा कहा जाता है… जबकि शिक्षा का मतलब है जहां पर आदर हो, प्रेम हो, स्नेह हो।”

सच यह है कि हमारे शिक्षित होने के बावजूद हर दिन हमारे जागने और सोने के बीच धरती से पेड़-पौधों और जीव-जंतुओं की 250 प्रजातियां विलुप्त हो जाती है। हमारी बाहरी दुनिया चमक-दमक से भरी जा रही है और एक अजीब तरह का अंधेरा, सूनापन हमारे दिलों, हमारे आपसी संबंधों में प्रवेश करता जा रहा है।

कृष्णमूर्ति फाउंडेशन इंडिया भारत में ऐसे स्कूल चलाता है जिन्हें देश के सर्वश्रेष्ठ स्कूलों में गिना जाता है। क्या है इन स्कूलों में कि इन्हें इतनी गंभीरता से लिया जाता है एवं इतने सम्मान से देखा जाता है? शायद ये स्कूल सही जीवन जीने की दिशा में एक प्रयोग हैं। यह प्रयोग अनूठा है क्योंकि इसके लिए फॉर्मूले तय नहीं किए गए हैं। इसमें सबसे बड़ी जिम्मेदारी माता-पिता और शिक्षक की है कि वे पता लगायें कि सही जीवन आखिर है क्या।

सुनने और देखने की कला

उन्होंने शिक्षकों से आग्रह किया कि वे ‘सजगता के वैज्ञानिक’ बनें। वे बच्चों को सुनना और देखना सिखाएं। ध्वनियों के अद्भुत संसार को सुनना, शब्द और उसके अर्थ को सुनना, न सुन पाने के मनोवैज्ञानिक कारणों को सुनना, गलतफहमियों और सुनने के रास्ते में खड़ी बाधाओं को सुनना—यह सब कुछ हमारे पाठ्यक्रम का हिस्सा होना चाहिए। कृष्णमूर्ति का मानना है कि ‘‘सुनना एक कला है। इसमे सौंउर्य और गहरी समझ है। हम अपने अस्तित्व की विभिन्न गहराइयों से सुनते है, लेकिन यह सुनना हमेशा किसी खास विचारधारा के जरिये होता है। सुनने के लिए जरूरी है कि आप भीतर से खामोश हों”।

ऑल्डस हक्सले अक्सर कृष्णमूर्ति के साथ सैर पर निकलते थे। ऐसे ही एक अवसर पर कृष्णमूर्ति ने उनसे कहा, ‘‘क्या वनस्पति शास्त्र की जानकारियों से हटकर तुम किसी फूल को देख सकते हो? इसपर हक्स्ले ने कहा, ‘आप जो देख रहे हैं, वैसा देखने के लिए मै अपना सब कछ दे सकता हूं, पर मेरी जानकारी, मेरा ज्ञान मेरे लिए दीवार की तरह बाधा बनकर खड़ा है।’ कृष्णमूर्ति सुझाव देते हैं, ‘‘यदि आप किसी पत्ती के बारे सीखना चाहते हैं तो आपको इसे देखना होगा, इसकी समरूपता को, इसके ओज को, इस जीवंत पत्ती की किस्म को। एक पत्ती का अपना सौन्दर्य है, अपनी जीवंतता है, अपना बल है। किसी भी पत्ती, फूल, बादल, सूर्यास्त या किसी इंसान को समझने के लिए आपको पूरी तीव्रता के साथ उसे देखना होगा।’’

कृष्णमूर्ति प्रैक्टिकल बातें करते हैं या नहीं? क्या समाज की घमासान आपाधापी के बीच उनकी शिक्षाओं के मद्धिम संगीत को सुना जा सकता है, क्या ये हमारी रोजमर्रा की जिंदगी का आधार बन सकती हैं? कृष्णमूर्ति की टीचिंग प्रैक्टिकल है कि नहीं, इस सवाल का वास्तविक अर्थ यह है कि कृष्णमूर्ति की शिक्षाओं को अपना कर हमारा जीवन बर्बाद तो नहीं हो जाएगा! क्या उन्हें जिया सकता है? अपने तमाम अंतर्विरोधों और कलहों के साथ भी? यदि शिक्षाओं को उनके गूढ़तम अर्थ में देखा जाए तो ऐसा प्रतीत होता है कि नौकरी-चाकरी में रहते हुए, पारिवारिक जीवन जीते हुए कृष्णमूर्ति को जीना एक बहुत बड़ी चुनौती है। पर शिक्षा के क्षेत्र में कुछ प्रयोग शुरू से किये जाएँ तो उन्हें समझना और जीना आसान हो सकता है। शिक्षकों और छात्रों के लिए जो बुनियादी सवाल उन्होंने उठाये वे हैं:

क्या तुलना, प्रतिस्पर्धा और द्वंद्व के बगैर हम पढ़ नहीं सकते? काम नहीं कर सकते? जीविका नहीं चला सकते? क्या एक अच्छा जीवन जीवन जीने के लिए हिंसक होना जरूरी है? अपने विचारों को समझना, भावनाओं को देखना-समझना, अनावश्यक विचार की व्यर्थता को समझना- क्या यह सब हमें एक बेहतर जीवन जीने में मदद नहीं करते?अपनी मानसिक, भावनात्मक निर्भरता को समझना हमें बेहतर और शांत नहीं बनाता है? यदि हम देख सकें कि हम किस तरह संस्कारों में जकड़े हुए हैं तो क्या हमारे जीवन की गुणवत्ता बेहतर नहीं होती? क्या होश में रहते, अवलोकन करते हम ठीक से जी सकते हैं?

कृष्णमूर्ति एक साथ सरल और गूढ़ हैं। बुद्धिजीवी हैं और हृदयजीवी भी। औपचारिक, स्थापित अकादमिक दुनिया से अभी भी कोसों दूर हैं। दर्शनशास्त्र के कई प्रोफेसर भी उन्हें पढ़कर बौखला जाएं, यह मुमकिन हैं। पर वह खास हैं। स्थापित मान्यताओं की बखिया उधेड़ते और हर धर्म को संदेह की निगाहों से देखते जिद्दू कृष्णमूर्ति कई अर्थों में अबूझ और अजनबी हैं। वे नासिर काज़मी की याद दिलाते हैं:

गए दिनों का सुराग लेकर किधर से आया किधर गया वो,
अजीब मानूस अजनबी था मुझे तो हैरान कर गया वो।

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