छत पर पढ़ने वाली लड़की असल में लड़का निकली

मनीष माथुर, सामाजिक कार्यकर्ता

ग्‍वालियर (1980-1984) :

कार्बनिक रसायन का पर्चा एक दिन के अवकाश के बाद था। तब तक मुझे ईथेन-मिथेन के फार्मूले भी पता नहीं थे। सारी स्लेट साफ थी। घर की परंपरा को निबाहते हुए मैंने उस रात भर पढ़ाई करने का संकल्प किया और भोजन पश्चात उस दवाई की एक टिकिया ली। मेरे माता-पिता-दीदीयों का मानना था कि पर्चे के ठीक पहले वाली रात नींद लो। रात भर जागना वैसे भी किशोरावस्था का एक प्रिय शगल होता है। रात भर पढ़ाई की। या यूं कहें कि रट्टा लगाया।

उन दिनों छात्र-छात्राएं अपनी-अपनी छत पर घूम-घूम के रट्टा लगाते देखे जाते थे। दिन या रात। हमारी छत से तमाम घरों की छत दिखा करतीं। जहां घूम-घूम के छात्र–छात्राएं सूरज अथवा बल्ब की रौशनी में दिन-रात तक पढ़ा करते। मेरे घर के ठीक सामने एक बड़ा मैदान था जो कालांतर में हॉकी का मिनी-स्टेडियम बन गया। उस मैदान पर हॉकी और क्रिकेट के मुकाबले होते थे। उस मैदान के पार लगभग 200 मीटर की दूरी पर सरकारी बहुमंजिला इमारतें थीं। उन्ही इमारतों में से एक की छत पर एक लड़की पढ़ा करती। कुछ ही दिनों में हम दोनों का छत पर घूम कर पढने में सामंजस्य बैठ गया। अब मैं उसे और वो मुझे निहारते हुए चलते।

खैर, जो मेरी सोने की रात थी, उस शाम फिर विवेक और जय अपनी स्कूटर पर मुझे आमंत्रण देने उपस्थित थे। उनके अनुसार कार्बनिक रसायन का पर्चा भी आउट हो गया था, जो उनके पास था, जो मुझे मुफ्त में उपलब्ध था, बशर्ते मैं जय के घर जाऊं और जॉइंट स्टडी करूं ताकि उन्हें मालूम हो कि प्रश्नों के जवाब पुस्तक में कहां छुपे हैं। जैसी कि कहावत है, मेरे मुंह खून लग चुका था। मैंने सरासर इस बात को छिपाया कि मैं इस विषय में कोरा हूं और दीदी को बता कर उनके साथ चल पडा। दीदी ने खबरदार किया कि मुझे हर हाल में रात 10 बजे तक लौट आना है। बड़ी मुश्किल और अपनी सीमित समझ से मैंने प्रश्नों के उत्तर खोजे, उन्हें याद करने का प्रयास किया। इस दौरान जय के रसोईघर से चाय, नाश्ते, पानी, खाने की इमदाद सतत जारी रही। माहौल खुशगवार था और उपस्थित छात्रों को विश्‍वास था कि‍ उनका ये पर्चा भी शानदार जाएगा।

मैं अंततः सुबह तीन बजे घर पहुंचा। छह बजे की रवानगी तय थी, अत: सोने के लिए समय नहीं था। पुन: सोता–जागता मैं एग्जाम हाल में पहुंचा। ठीक 6.45 पर उत्तर पुस्तिकाएं मिलीं और सात बजे पर्चा। जो पर्चा हमने हल किया था, उसका एक भी प्रश्न दिए गए पर्चे में नहीं था। मैं पुन: उसी मन:स्थिति में बैठ गया। मुझे इतने बड़े विश्वासघात का अनुमान नहीं था। मेरे वही रसायनशास्त्र के गुरूजी प्रकट हुए और बोले, “क्यों आज भी वही हाल है, जो परसों था? लिखो महाराज लिखो, पर्चा देखने के नंबर नहीं मिलते।”

मेरी लगी पड़ी थी। मेरे वो तीन घंटे कैसे बीते, याद नहीं। परंतु मुझे किसी भी प्रश्न का सही उत्तर क्या होगा, इसका विश्वास नहीं था। घर आ कर दीदी ने एग्जाम लिया। जब उसे पता चला कि जो पर्चा मैं रट कर गया था, वो नहीं आया तो गहरी छानबीन हुई। फलत: ये साबित हुआ के कार्बनिक रसायन में मेरी स्थिति बहुत कमजोर है। शोकसभा संपन्न भयी। परंपरानुसार मैंने कोप भवन में शरण ली। उन दिनों हमारे घर में एक कोप भवन भी होता था, जहां दु:खी सदस्य तकरीबन 12-24 घंटे गुजारते और भोजन, पानी से परहेज करते। राम-राम करके एग्जाम खत्म हुए। हर पर्चे के बाद जब मैं घर पहुंचता तो मेरी कोई दीदी अथवा मां दरवाजा खोलते ही पहला प्रश्न दागते, “कैसा गया?” मेरा रटारटाया जवाब होता, अच्छा!

एग्जाम के बाद तो फिर मैदान में क्रिकेट मैच की बाजियां लगतीं। मैं विकेट-कीपिंग करता था। एक शाम मेरी लापरवाही से बाल मेरी बाईं आंख पर लगी। मैं उसकी चोट को अपने हाथ से ढंकता हुआ गिर गया। आंख में आई सूजन से मेरा एक बाज़ार बंद हो गया। पापा के एक परिचित आई स्पेशलिस्ट के पास ले जाया गया। डॉक्‍टर साहब ने फरमान सुनाया कि जब तक सूजन नहीं जाती, तब तक इंतजार किया जाए, तब ही पता चलेगा कि कितना नुकसान हुआ है। दो-चार दिनों में ही मेरी आंख खुलने लगी। मेरी वो आंख बिलकुल रेड-आई जैसे कार्टून करैक्टर सी खुली। मुझे बहुत अच्छा लगा। मेरी एक आंख अब लाल थी, जो ग्‍वालियर की मशहूर हेकड़-बाजी के लिए बहुत अनुकूल थी। मैं किसी फिल्मी खलनायक की तरह नर आ रहा था। नेत्र विशेषज्ञ ने मेरी आंखों की जांच की। पता पडा, मुझे – 1.5 का चश्मा चढ़ेगा। चश्मा बनवाया गया। पता चला जिस बिल्डिंग की छत पर पढ़ने वाली को मैं लड़की समझता था, वो दरअसल एक लड़का था। निश्चित तौर पर उसकी आंखें भी कमजोर थीं!

हर नर्मदे! अपना ख्याल रखिए और मस्त रहिए। जारी…

इस तरह मैं जिया-1:  आखिर मैं साबित कर पाया कि ‘मर्द को दर्द नहीं होता’

इस तरह मैं जिया-2: लगता था ड्राइवर से अच्छी जिंदगी किसी की नहीं…

इस तरह मैं जिया-3: हम लखपति होते-होते बाल-बाल बचे…

इस तरह मैं जिया-4: एक बैरियर बनाओ और आने-जाने वालों से टैक्स वसूलो

इस तरह मैं जिया-5: वाह भइया, पुरौनी का तो डाला ही नहीं!

इस तरह मैं जिया-6: पानी भर कर छागल को खिड़की के बाहर लटकाया…

इस तरह मैं जिया-7: पानी भरे खेत, घास के गुच्छे, झुके लोग… मैं मंत्रमुग्‍ध देखता रहा

इस तरह मैं जिया-8 : मेरे प्रेम करने के सपने उस घटना के साथ चूर-चूर हो गए

इस तरह मैं जिया-9 : हमने मान लिया, वो आंखें बंद कर सपने देख रहे हैं

इस तरह मैं जिया-10 : हमारे लिए ये एक बड़ा सदमा था …

इस तरह मैं जिया-11: संगीत की तरह सुनाई देती साइकिल के टायरों की आवाज

इस तरह मैं जिया-12: मैसेज साफ था, जान-पैचान होने का मतलब यह नहीं कि तू घुस्ताई चला आएगा

इस तरह मैं जिया-13 : एक चाय की प्याली और ‘दीमाग खोराब से ठोंडा’ हो जाता

इस तरह मैं जिया-14 : तस्‍वीर संग जिसका जन्‍मदिन मनाया था वह 40 साल बाद यूं मिला …

इस तरह मैं जिया-15 : अगर कोई पवित्र आत्मा यहां से गुजर रही है तो …

इस तरह मैं जिया-16 : हम उसे गटागट के नाम से जानते थे …

इस तरह मैं जिया-17 : कर्नल साहब ने खिड़कियां पीटना शुरू की तो चीख-पुकार मच गई

इस तरह मैं जिया-18 : इतनी मुहब्बत! मुझे ऐसा प्रेम कहीं ना मिला

इस तरह मैं जिया-19 : एक दुकान जहां सुई से लेकर जहाज तक सब मिलता था

इस तरह मैं जिया-20 : मेरी बनाई झालर से झिलमिलाता था घर, कहां गए वे दिन?

इस तरह मैं जिया-21 : नायकर साहब पहले ही राउंड में बाहर हुए तो बुरा लगा

इस तरह मैं जिया-22 : … उसने जयघोष करते हुए परीक्षा हॉल में खर्रे बिखेर दिए

इस तरह मैं जिया-23 : फेंके हुए सिक्कों में से उनके हाथ 22 पैसे लगे…

इस तरह मैं जिया-24 : आई सा ‘मस्का-डोमेस्टिका’ इन माय रूम

इस तरह मैं जिया-25 : तब ऐसी बोलचाल को मोहब्बत माना जाता था

इस तरह मैं जिया-26 : बाल सेट करने का मतलब होता था ‘अमिताभ कट’

इस तरह मैं जिया-27 : जहां नर्मदा में नहाना सपड़ना था और शून्य था मिंडी

इस तरह मैं जिया-28 : पसंदीदा ट्रक में सफर का ख्‍याल ही कितना रोमांचक!

इस तरह मैं जिया-29 : दो बजे भी तिरपाल कस गई तो 6 बजे भोपाल पार

इस तरह मैं जिया-30 : “हे भगवान, इन सबका टिकट कंफर्म करवा दो,प्लीज”

इस तरह मैं जिया-31 : मैंने अशोक लेलैंड को आंखों से ओझल होने तक निहारा!

इस तरह मैं जिया-32 : मां पूछती, दिन कैसा गया?, मैं झूठ कह देता, बहुत अच्छा

इस तरह मैं जिया-33 : बेचैनी बढ़ रही थी, लैब से नीला थोथा उठाया कर रख लिया…

इस तरह मैं जिया-34 : परीक्षा की पहली रात मुझे सोना था लेकिन घर आते-आते 2 बज गए

इस तरह मैं जिया-35 : मेरे होश उड़ गए, वही पेपर आया, जो कल मिला था

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *